हम  दिल से चाहते हैं मदद करना 
पर बहुत मुश्किल है 
कानून ही चैन से नहीं रहने देता  … यह मेरा मानना नहीं है, मेरा दृष्टिगत अनुभव है।  
रश्मि प्रभा 


हम चाह कर भी दूसरों की मदद नहीं कर पाते, क्यों ?
*ऋता शेखर ‘मधु’*


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में रहते हुए हम आस-पास में घटित घटनाओं से अनजान नहीं रह सकता| जीवन डगर सदा सीधी राह चले , यह भी संभव नहीं| मानव स्वभाव में प्रेम, स्नेह, अनुशासन, क्रोध , इर्ष्या आदि का समावेश रहता है साथ ही दूसरों के कष्ट देखकर मानवीय संवेदना भी उत्पन्न होती है| हमारा मन बार बार उनकी मदद करने की प्रेरणा देता है| पर ऐसा क्या है कि हम चाह कर भी दूसरों की मदद नहीं कर पाते| सक्षम होते हुए भी हमारे हाथ उन कँधों तक नहीं पहुँच पाते| क्या इसके लिए हमारा सामाजिक माहौल, पारिवारिक दायित्व, डर, कानूनी बंधन, मानसिक स्थिति या व्यक्ति विशेष से रिश्तों का सांमजस्य उत्तरदायी है?
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कुछ सामान्य घटनाओं पर नजर डाल सकते हैं| पड़ोस में खुशहाल सा दिखने वाले घर में बहु की आँखें हमेशा छलछलाई रहती हैं| मुँह से कुछ नहीं कहती पर चेहरा आंतरिक तकलीफ बयान कर देता है| क्या सब कुछ देख समझ भी हम कुछ कर पाएँगे, नहीं न| जब हम उसे जीवन भर की सुरक्षा नहीं दे सकते तो चुप रहना ही बेहतर समझते हैं|



अभी हाल में विद्यालय की ओर से अपने आसपास के क्षेत्र के बच्चों की सूची तैयार करने के लिए सर्वे पर जाने का मौका मिला| तभी एक घर के बाहर संभ्रांत वृद्धा घर के गेट के बाहर बैठी थी | पोतियों ने उन्हें घेर रखा था पर वे भीतर जाने के लिए तैयार नहीं थीं| बार बार कह रही थीं, अब तुम लोगों के व्यवहार सहन नहीं होते| उस वक्त हम यही सोच रहे थे कि बच्चों से ज्यादा वृद्धों की स्थिति पर सर्वे होना चाहिए| हम चाह कर भी उनकी मदद नहीं कर पाए कि यह उनके घर का मामला है| घर के मामले जब सड़क पर आ जाएँ तो वह समाज का मामला हो जाता है फिर भी हम चुप रहते हैं|

दूर के परिवार में अशक्त वृद्ध को समय पर खाना नहीं मिलता| माँगने पर दो रोटियाँ तानों के साथ मिल गईं| वृद्ध से खाया नहीं गया क्योंकि अपने समय में उन्होंने स्वादानुसार खाया है| पर वह यह सोच कर खा लेते हैं कि फिर कब मिल पाएगा| हम कुछ नहीं कर पाते क्योंकि जवाब हाजिर रहता है- इतनी ही सहानुभूति है तो अपने घर ले जाइए| अपने घर ले भी जाना चाहें तो वृद्ध ही तैयार नहीं होंगे अपना तथाकथित घर छोड़ने के लिए|



परिवार में दूर के रिश्ते की एक कन्या का विवाह तय हुआ| उसके पिता नहीं थे और आर्थिक स्थिति दयनीय थी| शादी के लिए मदद करने की बात थी| थोड़े पैसों के लिए कोई बात नहीं थी पर करीब पचास हजार देने थे| यह भी तय था कि वे वापस नहीं मिलने वाले थे| तो चाह कर भी मदद न कर पाना बड़ी मजबूरी थी क्योंकि उनके भी पारिवारिक दायित्व थे|

एक बार एक परिचित बता रहे थे कि उनके घर के पास कोचिंग संस्थान है| शाम वाली क्लास से छूटते छूटते थोड़ी रात हो जाती है| संस्थान से निकलने वाली लड़कियाँ जब निकलती हैं, कुछ देर के लिए एक गली मिलती है| वहाँ पर रौशनी की समुचित व्यवस्था नहीं है| जिनके अभिभावक लेने आते हैं उनके लिए कोई बात नहीं| मगर अकेली लड़कियाँ अक्सर मनचले युवकों की बदतमीजियों का शिकार बन जाती हैं| ऐसे में एक दिन उन्होंने देखा कि कुछ लड़के एक लड़की को बुरी तरह से छेड़ रहे थे और डर से वह लड़की चिल्ला रही थी| हमने कहा कि उन्हे उस लड़की की मदद करनी चाहिए थी| इसपर उन्होंने बताया कि वे गुंडे टाइप लड़के विरोध करने पर गोलियाँ भी चला सकते थे| डर के भाव ने चाह कर भी मदद करने से उनके हाथ रोक दिए|



कुछ रिश्ते आपस में उलझे हुए होते हैं| ऐसे में किसी पर विपदा आए तो चाह कर भी हम मदद नहीं कर पाते कि सामने वाला कहीं गलत अर्थ न लगा ले| स्वार्थी होने की तोहमत न लगा दे|



सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति अस्पताल तक पहुँचते पहुँचते दम तोड़ देता है| सड़क पर लोगों की भीड़ होती है पर आगे कोई नहीं बढ़ पाता | पूछताछ के झँझटों से सभी बचना चाहते हैं| कानूनी प्रक्रिया की जटिलता से सभी डरते हैं|



मदद न कर पाने की कसमसाहट से छुटकारा पाना आसान नहीं होता फिर भी मूक बने हम देखते रह जाते हैं|
किसी बीमार को खून की जरूरत हो तो मदद करना चाह कर भी नहीं कर पाते| परिवार का कोई सदस्य पीछे खींच लेता है कि खुद को कमजोर क्यों बनाना| यहाँ पर मानसिकता हावी हो जाती है|



कभी कभी ,’’आ बैल मुझे मार,’’ वाली स्थिति भी पैदा हो जाती है| मदद कर भी दिया जाए और कुछ ऊँच नीच हो जाए तो तोहमत जड़ते भी लोगों को देर नहीं लगती| इस तरह के स्वभाव वालों से बच कर रहना भी मजबूरी बन जाती है|

1 comments:

  1. इन सब के बावजूद भी कुछ लोग कुछ कर ले जाते हैं साधुवाद के पात्र तो होते ही हैं ।

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