हर तरफ़ संत्रास अब मैं क्या करूं आशा ?
दर्द का है साज, कोई अब तरन्नुम दे-
कह रहा मधुमास अब मैं क्या करूं आशा ?
जिस्म के सौदे में हैं मशगूल पंडित जी -
छोड़कर संन्यास , अब मैं क्या करूं आशा ?
तिनका-तिनका जोड़कर मैंने इमारत है गढी-
पर मिला बनवास, अब मैं क्या करूं आशा ?
आम-जन के बीच देकर क्षेत्रवादी टिप्पणी वह -
बन गया है ख़ास , अब मैं क्या करूं आशा ?
काव्य में खण्डित हुई है छंद की गरिमा -
गीत का उपहास , अब मैं क्या करूं आशा ?
()रवीन्द्र प्रभात
बहुत बढिया गजल है।बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट, आपकी प्रशंसा यूंही नहीं हो रही।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया।
भावभीनी रचना.. विश्वास के छले जाने पर भी आशा की एक किरण कहीं से फूट ही पड़ती है.
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंसुंदर!!
अति सुंदर!!
एक अच्छी रचना देने के लिए धन्यवाद.
बहुत ही सुंदर रचना, बधाई
जवाब देंहटाएंरविन्द्र - बिल्कुल हमारे समय की ही बात कही है ; लय और लावण्य से - [ राज ठाकरे जैसे तमामों पर तंज़ बहुत सटीक है] - मनीष
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है ...अच्छा लगा ...बधाई
जवाब देंहटाएंखूबसूरत गजल। आपने बडी रदीफ को लेकर एक शानदार गजल कही है। यह बडी बात है। बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंबधाई
मेरे भाई
किंतु आशा ही हमारी पूंजी है!
बहुत खूबसूरत गज़ल है रविन्द्र भाई...बधाई!
जवाब देंहटाएंकाव्य में खण्डित हुई है छंद की गरिमा -
जवाब देंहटाएंगीत का उपहास , अब मैं क्या करूं आशा ?
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दीपक भारतदीप