आजकल के माहौल पर अपनी संवेदनाओं को प्रदर्शित करने के कई माध्यम हैं, आप चाहें तो लंबा चिट्ठा भी तैयार कर सकते हैं और महज सात शब्दों के हाईकू के माध्यम से भी अपने समाज का आईना प्रस्तुत कर सकते हैं . माध्यम कुछ भी हो सकता है आलेख, व्यंग्य, लघु कथा, कहानी, गीत, ग़ज़ल, दोहे, हाईकू आदि. कुछ भी कहें सार्थक कहें.....हमारे लिए आज जब ब्लॉग अभिव्यक्ति का एक माध्यम बना है तो क्यों न अपनी अभिव्यक्ति को नित नया आयाम दिया जाए ? ....कहा गया है कि यदि लेखन में अस्तित्व-बोध, रागात्मक संवेदना, दार्शनिक आस्वाद के साथ-साथ समय-बोध और भारतीयता का आग्रह लेखन का मूल विषय है, तो ज़िंदगी से जुड़े प्रतीकों और ताजे बिंबों के जरिये आप अपनी अनुभूतियों को अत्यन्त सघनता से रखने में सफल हो जाते हैं ...शिल्प और संवेदना लेखन की वेहद महत्वपूर्ण कसौटी होती है , जिसे लेखन में नजर अंदाज़ नही किया जा सकता ....!
इसमें कोई संदेह नही कि आज ब्लॉग लेखन में जिस आनुभूतिक उष्मा और कहन के लिए जिस तहजीव की जरूरत महसूस होती है, उसे कई चिट्ठाकारो द्वारा बखूबी निर्वाहा जा रहा है . मेरे समझ से वही चिट्ठाकार ज्यादा दिनों तक सक्रिय रह सकते हैं जो समय और वातावरण के प्रति पूर्ण सजग रहेंगे.. ...!
विगत रविवार को मेरे द्वारा ब्लॉग पर दो गज़लें प्रस्तुत की गयी थी , जिसकी व्यापक प्रतिक्रियाएं हुईं .मित्रों के बहुत सारे मेल प्राप्त हुए, सबने अपने-अपने ढंग से उन दोनों ग़ज़लों को परिभाषित किया, अपने-अपने ढंग से सोचा-समझा और महसूस किया .कुछ मित्रों ने इन सम सामयिक ग़ज़लों को लगातार जारी रखने का आग्रह भी किया तो कुछ ने पिष्ट-पेशन मात्र ही कहा . अच्छा लगता है जब कोई पाठक किसी कृतित्व का मूल्यांकन परक टिप्पणी नीर-क्षीर विवेक के आधार पर करे ।
दरअसल ग़ज़लों से मेरा अनुराग काफी पुराना है , विभिन्न विषयों पर मैंने साहित्य की समस्त विधाओं में विगत दो- ढाई दशकों से लगातार लिख रहा हूँ, किंतु अपनी अभिव्यक्ति को सबसे ज्यादा धार मैंने ग़ज़लों में ही दिया है , इसलिए ग़ज़ल के माध्यम से युग-बोध को सही ढंग से आत्मसात करने में मुझे ज्यादा सहूलियत होती है. जिन लोगों ने मेरी ग़ज़लों को पसंद किया है उन्हें मेरा आत्मिक आभार !
यद्यपि कई मित्रों ने ग़ज़लों का यह सिलसिला जारी रखने का आग्रह किया है, मैं उनकी भावनाओं को प्रणाम करता हूँ , किंतु यह संभव कैसे हो सकता है ? ब्लॉग पर रस परिवर्तन भी आवश्यक है , कभी कविता, कभी ग़ज़ल , कभी दोहे , कभी हाईकू , कभी गीत तो कभी व्यंग्य का क्रम चलता रहे तो पठनियता बनी रहती है . अपने समस्त शुभ चिंतकों एवं मित्रों का पुन: आत्मिक आभार व्यक्त करते हुए प्रस्तुत है एक और सम सामयिक ग़ज़ल ....इस ग़ज़ल को मैंने अपने एक वरिष्ठ कवि स्व. पांडे आशुतोष की इन पंक्तियों से प्रेरित होकर लिखा है , जिसमें उन्होंने कहा है कि -
" धरम-युद्ध, प्लावन, अनाचार, तृष्णा,
बहुत क्षुब्ध हूँ, घर के वातावरण से !"
आज़कल आप जिधर भी नज़र दौडायेंगे , लूट-हत्या-खौफ-कत्लेयाम के अतिरिक्त कुछ भी नही पायेंगे ... हमारा मुल्क एक तरह से स्वार्थ का बाज़ार बनता जा रहा है और राजनीति से मर्यादाएं विलुप्त होती जा रही है , प्रस्तुत है इसी पृष्ठभूमि पर मेरी एक छोटी सी ग़ज़ल-
ज़िंदगी वरदान उसकी है या एक अभिशाप है ,
हम समझ पाते नहीं क्या पुण्य है क्या पाप है !

जब खुदा के घर में लेते उग्रवादी हों शरण-
व्यर्थ हैं सब आयतें और व्यर्थ हरी का जाप है !

दोस्ती का है लबादा जो पहन बैठा यहाँ-
उससे बढ़कर कौन दूजा आस्तीन का साँप है !

आज कल की राजनीति का चलन तो देखिये -
यह पता चलता नहीं अब कौन किसका बाप है !
काँप जाते बेटियों के जिस्म का हर पोर जब-
पूछता है कोई दर्जी क्या बदन का नाप है !

हादसे के बाद आए एक सिपाही ने कहा-
"प्रभात" तुमको हो न हो पर मुझको पश्चाताप है !

(रवीन्द्र प्रभात )

5 comments:

  1. दोस्ती का है लबादा जो पहन बैठा यहाँ-
    उससे बढ़कर कौन दूजा आस्तीन का साँप है !
    -----------------------------
    मैं आपकी इस बात से सहमत हूं लिखने की विविध विधाओं में लिखने और पढने का अलग ही मजा है। कम से कम इससे लिखने और पढने वाले को बोरियत नहीं होती।
    आपकी इस गजल की यह पंक्तिया बहुत अच्छी लगीं।
    दीपक भारतदीप

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  2. आपके विचारों से शत-प्रतिशत सहमत ... दूसरी तरफ गज़लें.. हर बार कुछ नया भाव पढ़ने को मिलता है.

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  3. भाई बहुत खूब,बहुत अच्छा लिखा है आपने...मेरी भी पूर्ण सहमती है..

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  4. वाकई आप कितना श्रेष्ठ लेखन करते हैं , इस बात का अंदाजा निम्न पंक्तियों से लगाया जा सकता है -
    "काँप जाते बेटियों के जिस्म का हर पोर जब-
    पूछता है कोई दर्जी क्या बदन का नाप है !"

    यह पंक्तिया बहुत अच्छी लगीं।

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  5. आज कल की राजनीति का चलन तो देखिये -
    यह पता चलता नहीं अब कौन किसका बाप है !
    काँप जाते बेटियों के जिस्म का हर पोर जब-
    पूछता है कोई दर्जी क्या बदन का नाप है !

    bahut badhiya ravindra ji.. main aapka blog abhi padh raha hu..magar samaj par aapke kataksh bahut sahi kahe gaye hai..abhi blog par hu.. umeed hai aur bhi bahut kuch milega..

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