(ग़ज़ल )
पराये शहर में इक हमजुबां हमराज पाया
समंदर लांघने की तब कहीं परवाज़ पाया ।
सड़क के पत्थरों को देख करके यार मैंने-
समय के साथ जीने का सही अंदाज़ पाया ।
मुहब्बत यह उफनती सी नदी है जान लो तुम-
कि जिसमें डूब कर सबने दरद का साज़ पाया ।
खता करके सभी ने मांग ली अपनी रिहाई-
चलो अच्छा हुआ हमने कफ़स का ताज पाया ।
यहाँ खंजर लिए सब घूमते बेख़ौफ़ घूमें-
बड़ी मुश्किल से मेरे हाथ ने इसराज पाया ।
() रवीन्द्र प्रभात
खता करके सभी ने मांग ली अपनी रिहाई-
जवाब देंहटाएंचलो अच्छा हुआ हमने कफ़स का ताज पाया ।
waah
यहाँ खंजर लिए सब घूमते बेख़ौफ़ घूमें-
जवाब देंहटाएंबड़ी मुश्किल से मेरे हाथ ने इसराज पाया
bahut khoob.
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंमुहब्बत यह उफनती सी नदी है जान लो तुम-
जवाब देंहटाएंकि जिसमें डूब कर सबने दरद का साज़ पाया ।
यहाँ खंजर लिए सब घूमते बेख़ौफ़ घूमें-
बड़ी मुश्किल से मेरे हाथ ने इसराज पाया ।
वाह क्या बात है उमदा गज़ल। शुभकामनायें
बहुत सुन्दर गज़ल...........
जवाब देंहटाएंvery nice
जवाब देंहटाएंkyaa baat hai prabhaat ji, bahut umdaa gazal kahi hai aapane
जवाब देंहटाएंसुन्दर गज़ल...
जवाब देंहटाएंसड़क के पत्थरों को देख करके यार मैंने-
जवाब देंहटाएंसमय के साथ जीने का सही अंदाज़ पाया ।
हर ख्याल मन को छू गया......
बेहद सुंदर.....