(सौजन्य-गूगल)
शिल्पकार की दृष्टि से देख,
पाषाण नहीं, तेरा ही रूप हूँ मैं,
शिल्पकार की क़दर कर ज़रा,
उसी का बनाया स्व-रूप हूँ मैं।
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`हुडूडूडूडू..डूक`,करता हुआ गाँव का महाजन और दूसरे अग्रणी, उदास और
मुरझाये हुए चेहरे के साथ खड़े हो गये ।
अब क्या बोलना?
अब क्या कहना?
मानो, पूरे मंडल-सभा का दिमाग़ संवेदना शून्य हो गया था ।
महाजन
मंडल करें तो भी क्या करें..!! यह गोरा अमलदार प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय
था, फिर ना जाने, उसने महाजन के सामने ऐसी बे-मतलब की बात क्या सोच कर कह
दी..!!
अरे..!!
प्रशासन में अत्यंत कुशल और सदैव लोक कल्याण में निमग्न रहनेवाले, इस गोरे
अमलदारने, अपने वतन स्कॉटलेन्ड के लिए विदा होने के आखिरी वक़्त, यहाँ के
महाजन द्वारा उपहार के लिए साथ लाए हुए, क़ीमती वस्त्र, अहमदावादी अतलस(
रेशमी वस्त्र) और अनमोल आभूषणों को, विवेक पूर्ण ढंग से,अमलदारने ये कह
कर लौटा दिए कि,"इन सब का मैं क्या करूँ?"
ठीक
है, चलो माना कि, गोरे अमलदार ने ये क़ीमती सामान-उपहार लेने से इनकार कर
दिया, पर बाद में..बाद में..उसके बदले उन्होंने माँगा भी तो क्या माँगा?
खंडित
हालत में, बेकार पत्थर के रूप में,इधर उधर पड़ी हुई गंदी प्रतिमा के कुछ
नमूने? जिस पर गाँव के बेकार, आवारा लोग टट्टी करते थे और अपने मवेशी को,
उस पर गोबर करने लिए खुला छोड़ देते थे?
अगर
किसी को ज्ञात होने पर वह क्या कहेगा," विदा होते समय, आपके इलाके के
महाजन ने, इतने बड़े ओहदे वाले अमलदार को क्या उपहार दिया? तो सभी कहेंगे
कि, पत्थर दिये थे?"
महाजन
के सारे अग्रणी ने, एक पल में ही सोच कर, निर्णय कर लिया,"
नहीं..नहीं..नहीं..!! ये निष्पाण पत्थर का उपहार दे कर तो बेकार में, हम
अपनी ही इज़्ज़त गँवा देंगे..!!"
महाजन
में से एक ने, उस गोरे अमलदार से कहा," साहब, ऐसे यहाँ-वहाँ बेकार पड़े
हुए पत्थर के नमूने तो आप जितना माँगें, हम दे देंगे, पर इस बेकार के,
बेजान पत्थर को ले जाकर आप इसका क्या करेंगे? इसे कैसे और कहाँ संभालेंगे?
आप इसके अलावा दूसरा कुछ माँग लीजिए ना..!! "
महाजन
की ऐसी बचकाना बातें सुनकर, उस गोरे अमलदार के चेहरे पर विषाद साफ झलकने
लगा," जिन लोगों को उनकी अमूल्य धरोहर समान, कलाकृतियां, बेकार के, बेजान
पत्थर सी दिखती है, उनके साथ आगे क्या संवाद करना?"
कला
प्रेमी गोरे अमलदार ने, ग्रीस और रोम की याद दिलाने वाली, ऐसी बेनमून
कलाकृतियां, खास करके इतने अद्भुत, कुशल शिल्पकार के औज़ार से प्रकट हुई,
ये यक्ष कन्या के देह की कलात्मक गोलाई वाली भावभंगिमा ने, उस अमलदार के
तन, मन और नयन पर मानो वशीकरण करके,गोरे को अपने बस में कर लिया था ।
इस
नगर का नयनरम्य तालाब और उसके आसपास के हरे भरे उपवन से घिरे हुए, अपने
शासनाधिकार के इस नगर को छोड़ कर, अपने वतन स्कॉटलेन्ड वापस जाने की सोच
मात्र से उस गोरे अमलदार का मन उदास हो रहा था ।
शून्यमनस्क
और विषादयुक्त भाव से, कला प्रेमी अमलदार ने महाजन को निश्चयात्मक स्वर
में कहा," अगर आप मुझे सचमुच कुछ उपहार देना चाहते हैं तो, मैं जो चाहता
हूँ, वो ही दीजिए, वर्ना मुझे और कुछ न चाहिए..!!"
गोरे
अमलदार के निश्चयात्मक स्वर में उच्चारे गए, ऐसे शब्द सुनकर, विमूढ़ हुए
महाजन के अग्रणी, आखिर इस बात का निर्णय, दो दिन में कर के, फिर से मिलने
का वायदा कर के, जैसे आयें थे वैसे ही,`हुडूडूडूडू..डूक`, खड़े हुए और
हताश, मायूस सा चेहरा लेकर वहाँ से विदा हुए ।
अँग्रेज़
गोरे अमलदार के सरकारी निवास के बाहर, सारे लोग आते ही, दुविधा की स्थिति
अनुभव कर रहे गाँव के अग्रणीओं ने आखिरी में इस समस्या के समाधान के लिए,
गाँव के एक मात्र विद्वान, जन्म जात बुद्धिमान, ब्राह्मण मुखिया
श्रीसोमेश्वर शास्त्रीजी से मिलने का मन बनाया और महाजन का झुंड, उनसे
मुलाकात करने के लिए, श्रीसोमेश्वर शास्त्रीजी के घर पर आ पहुँचा ।
कई
बरसों से एकान्त जीवन बिता रहे, विद्वान श्रीशास्त्रीजी, उनके यहाँ अचानक
गाँव के इतने सारे लोगों को एक साथ देखकर आश्चर्य में पड़ गए..!!
हालाँकि,महाजन
के मन को सताती हुई समस्या के बारे में, सारा वृत्तांत सुनकर, शास्त्रीजी
किसी भोलेभाले बालक की भाँति मुस्कुराए और फिर उपर खुले आकाश की ओर निहारते
हुए स्वयं अपने आप से कहने लगे,"समय समय की बात है..!! जब चला जाता है तब
सब कुछ छिन जाता है, बिलकुल ऐसे, जैसे मुद्रा राक्षस के उस श्लोक में
दरिद्रताका वर्णन किया गया है..!! आखिर अब ये कलात्मक प्रतिमाएं भी हमसे
छिन जाएंगी?"
श्रीशास्त्रीजी
की स्वयं से कि गई बात का मर्म, महाजन समझ न पाया, उनको शास्त्रीजी कि
बात, बेहोशी की अवस्था में तुतरा रहे किसी इन्सान के बकवास समान लगी ।
आखिर
किसी ने शास्त्रीजी से पूछ ही लिया,"शास्त्रीजी,आप हमें बस इतना बताएं, इस
विधर्मी अमलदार को, शास्त्र मतानुसार, ये सारे पत्थर, हम दे सकते हैं कि
नहीं? क्या ऐसा करना सही होगा?"
कुछ
देर के बाद श्रीशास्त्रीजी ने कहा," आपके कहने के मुताबिक इस गोरे को ये
पत्थर देने में कोई धर्म बाधा नहीं है, यह अमलदार अपने वतन में, इन सारे
पत्थरों को अच्छी तरह सँभालेगा और किसी रोज़ इसे देखकर, नये शिल्पकार को
कुछ प्रेरणा मिलेगी ।"
अभी तक दुविधा में अटके महाजन को अब तसल्ली हो गई और लगा," चलो, आखिर समस्या का समाधान मिल ही गया..!!"
गाँव
के सारे लोग श्रीसोमेश्वर शास्त्रीजी के शास्त्र विधान का समर्थन करते
हुए, उनकी प्रशंसा करने लगे । एक अग्रणी ने तो ये तक कह दिया,"
हाँ..हाँ..!! भले मानस, सौ बात की एक बात की आपने, वैसे भी ये पत्थर यहाँ
गाँव में भीड़ कर रहे हैं, उस गोरे के काम आएंगे..!!"
हालाँकि,उस
व्यक्ति की बात को अनसुनी सी करके, सोमेश्वर शास्त्रीजी ने दूसरे दिन
अमलदार को मिलने की इच्छा जतायी, तो महाजन के सभी अग्रणी ने झट से सहमति दे
दी और सभी अपने-अपने घर के रास्ते चल दिए ।
दूसरे
दिन अरुणोदय होते ही, श्रीसोमेश्वर शास्त्रीजी की अगुवाई में महाजन के
लोग, उस गोरे अमलदार के निवास स्थान पर पहुँचे तब, वह गोरा अमलदार सभी
मूर्तियों और यहाँ के सारे मनलुभावन नज़ारे को, ऐसी तृषातुर, मनभर नज़रों
से निहार रहा था, मानो इस स्थान को वह अंतिम बार देख रहा हो..!!
अँग्रेज़
अमलदार ने शिष्टाचार के साथ सभी मेहमानों का स्वागत किया । हालाँकि,
श्रीसोमेश्वर शास्त्रीजी के भव्य,प्रभावशाली व्यक्तित्व से प्रभावित होकर,
गोरे ने उन्हें भाव पूर्वक वंदन किया ।
समस्त
महाजन की ओर से शास्त्रीजी ने कहा,"आप की इच्छा अनुसार,ये सभी कला कृति,
उपहार के रूप में, आपको देते हुए हमें बड़ी प्रसन्नता महसूस होगी । साहब,
ये शिल्पकार की शिल्प कला में, संगीत की रम्य पदावलियां खेल रही है, इस
यक्ष कन्या की कटि मेखला को ही देखिए ना..!! मानो उसकी सुनहरी छोटी-छोटी
घंटियाँ अभी-अभी बज उठेगी..!!"
शास्त्रीजी
की बात सुनते ही, गोरे ने शास्त्रीजी के भीतर समाये हुए कला प्रेमी इन्सान
को बख़ूबी पहचान लिया और उनके कला प्रेम को उत्तेजित करते हुए, उसने
शास्त्रीजी से एक सवाल किया," आप को इस शिल्पकार की कौन सी सर्वोत्तम कला
कृति सर्वाधिक प्रिय है?"
"शिल्पकार
की सर्वोत्तम कृति?" शास्त्रीजी बड़े दुःखी और भारी मन से हँस दिए,"
सर्वोत्तम कृति तो किसी गाय-भैंसे के तबेले में, मवेशियों के गोबर के नीचे
दबी पड़ी होगी, पर यह शिल्पकार कोई मानव नहीं, स्वयं विश्वकर्मा या
मानवेन्द्र का अवतार होगा, अन्यथा ऐसी सर्वोत्कृष्ट प्रतिमाओं का निर्माण
करना संभव नहीं है..!!"
ये
दोनों कला प्रेमी विद्वानों को, अभी तक अबोध भाव से सुन रहे महाजन में से
किसी ने, उनके वार्तालाप में बाधा डालते हुए प्रश्न पूछा," साहब, ये तो
बताइए, इन सारे बेजान पत्थरों को आप वतन में ले जाकर कहाँ रखेंगे? इसका
क्या करेंगे?"
गोरे
अमलदार ने उत्तर दिया," मेरे वतन में, हरी भरी पहाड़ी की तराई के पास
स्थित तालाब के किनारे,एक अष्टकोणिय कृति बनवा कर,उसके आठ कोने में, ये
सुंदर प्रतिमाओं की, मैं स्थापना करूँगा । यहाँ की, मेरी आज की युवा यादों
को सजा कर, आप सभी को, आप के गाँव के इस अद्भुत वातावरण को याद कर के, मेरी
वृद्धावस्था में, उसका आनंद उठाने का प्रयत्न करूँगा । मैं ऐसी अनुपम
कृतियों के बीच, मेरे थके हुए तन-मन-जीवन की अंतिम समाधि का भरपूर आनंद
उठाउंगा ।"
इतना कहते-कहते वह, गोरा अमलदार भावुक हो गया ।
ये
देख कर, श्रीसोमेश्वर शास्त्रीजी के चेहरे पर प्रसन्नता छा गई । भले ही
गोरा विधर्मी था, पर इन अनमोल कलाकृतियों को आखिर, एक सच्चा कला प्रेमी
मिलने के संतोष के साथ शास्त्रीजी वहाँ से उठ खड़े हुए और उनके साथ-साथ, ये
सारे वार्तालाप को आधा-अधूरा समझ कर, दुविधा से घिरा हुआ, महाजन भी..!!
प्यारे दोस्तों,उस अँग्रेज़ गोरे अमलदार का नाम था, जेम्स फॉर्बस और उसका वतन स्कॉटलेन्ड ।
इस
आलेख में, जिस शिल्पकार की कला की इतनी प्रशंसा कि गई है वो था, दर्भावती
नगर का (वर्तमान-डभोई- ज़िला-वडोदरा-गुजरात) सुविख्यात शिल्पी हिराधर (हिरा
सलाट) और ये डभोई नगर है, मेरा जन्मस्थान ।
सभी विदेशी नेट सेवी दोस्तों से एक गुज़ारिश है कि, अगर स्कॉटलेन्ड में, कला प्रेमी गोरा अमलदार जेम्स फोर्बस द्वारा नये सिरे से बसाया हुआ, मेरा वतन दर्भावती (डभोई), स्कॉट लेन्ड के किसी पहाड़ की तराई में अगर किसी को मिल जाएं तो क्या इसकी जानकारी मुझे देंगे..प्ली..झ?
दोस्तों, मैं उनका जीवनपर्यन्त ऋणी रहूँगा।
(नोट-
जेम्स फोर्बस, ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ अच्छे अमलदारों में से एक थे ।
सन-१७७५ में राघोबा के सैन्य के साथ उन्हें मददगार के रूप में भेजा गया था ।
बाद में,सन-१७८० से १७८३ के दौरान, वे डभोई प्रांत के कलेक्टर के ओहदे पर
नियुक्त किए गए थे । सन -१७८३ में, डभोई और उसके आसपास का इलाक़ा,मराठा
शासनकर्ताओं को सुपुर्द करने की वजह से, उनको डभोई छोड़ना पड़ा था ।
http://mktvfilms.blogspot.in/2011/05/blog-post_23.html
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(साभार कथाबीज-श्रीनरेन्द्र जोशीजीऔर श्री न.म.गांधी)
मार्कण्ड दवे ।
दिनांक-२३-०५-२०११.
दिनांक-२३-०५-२०११.
शायद वो अमूल्य कलाकृतियाँ कहीं हो स्कॉट्लैंड में..
जवाब देंहटाएंअच्छा आलेख. जानकारी भरा..
अगर किसी को ज्ञात होने पर वह क्या कहेगा," विदा होते समय, आपके इलाके के महाजन ने, इतने बड़े ओहदे वाले अमलदार को क्या उपहार दिया? तो सभी कहेंगे कि, पत्थर दिये थे?"
जवाब देंहटाएंपत्थर में सृजन की प्रवाह को आयामित कराती हुयी कथा !
उम्दा कथानक, अच्छी कहानी !
जवाब देंहटाएंसर्वोत्तम कृति तो किसी गाय-भैंसे के तबेले में, मवेशियों के गोबर के नीचे दबी पड़ी होगी, पर यह शिल्पकार कोई मानव नहीं, स्वयं विश्वकर्मा या मानवेन्द्र का अवतार होगा, अन्यथा ऐसी सर्वोत्कृष्ट प्रतिमाओं का निर्माण करना संभव नहीं है..!!"
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने, विमर्श को जन्म देते आलेख को पढ़कर अच्छा लगा !
जानकारी भरा आलेख !
जवाब देंहटाएंप्रिय साहित्यरसिक मित्रगणश्री,
जवाब देंहटाएंआप सभी दोस्तों का अनेकानेक धन्यवाद। आप को `परिकल्पना` की ढ़ेरों बधाईयाँ और ऐसे ही इसका व्याप आप के सहयोग से होता रहे ।
अच्छा तो लगता है, जब कोई हमारे मानस-संतान (कृति) की दिल से सराहना करें।
माँ सरस्वतीजी की कृपा हम सब पर यूँ ही बनी रहे, यही मनोकामना के साथ आप सब का बहुत शुक्रिया ।
मार्कण्ड दवे।
सबसे बड़ी शिल्पकार प्रकृति ने गोल पत्थर बना कर मेरे आस पास की खड्ड भर दीं. मुझे महत्ता तब पता चली जब मैं शहर आ गया...
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