(ग़ज़ल )
शर्म की पोशाक को वह छोड़ करके आ गया
वेबसी की एक चादर ओढ़ करके आ गया ।
रक्त पीकर वह मनुज का कह रहा है शान से-
रहगुजर में दो दिलों को जोड़ करके आ गया ।
गा रहे हैं गीत फिर भी साज से हैं बेखबर-
राग दरवारी शहर में शोर करके आ गया।
लोग कहते हैं मुकम्मल आज वह इंसान जो-
आईना से पत्थरों को तोड़ करके आ गया ।
कह रहा प्रभात से खुद को चमन का रहनुमा-
बाग़ से कच्ची कली जो तोड़ करके आ गया ।
() रवीन्द्र प्रभात
गा रहे हैं गीत फिर भी साज से हैं बेखबर-
जवाब देंहटाएंराग दरवारी शहर में शोर करके आ गया।
लोग कहते हैं मुकम्मल आज वह इंसान जो-
आईना से पत्थरों को तोड़ करके आ गया ।
प्रभात जी हमेशा की तरह लाजवाब गज़ल। बधाई
बहुत सुन्दर और समसामयिक ग़ज़ल के लिए पुन: बधाईयाँ !
जवाब देंहटाएंलाजवाब गज़ल। बधाई
जवाब देंहटाएंसचमुच हमेशा की तरह लाजवाब है यह ग़ज़ल भी ...!
जवाब देंहटाएंसचमुच हमेशा की तरह लाजवाब है यह ग़ज़ल भी ...!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया, बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंगा रहे हैं गीत फिर भी साज से हैं बेखबर-
जवाब देंहटाएंराग दरवारी शहर में शोर करके आ गया।
bemisal
सुन्दर गज़ल...
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