ग़ज़ल :
एक कतरा जिंदगी जो रह गयी है
घोल दे सब गन्दगी जो रह गयी है ।

भीख देगा कौन , मुझको ये बताओ-
तुझमें ये आवारगी जो रह गयी है ।

आंख से आंसू छलक जाते अभीतक-
इश्क में संजीदगी जो रह गयी है ।

चाँदनी में घूमता है रात भर वह-
चाँद में दोशीजगी जो रह गयी है ।

सर-कलम कर मेरा, खंजर फेंक दे-
आंख में शर्मिंदगी जो रह गयी है ।

फासला प्रभात से है इसलिए बस-
आपकी नाराजगी जो रह गयी है ।
() रवीन्द्र प्रभात
*दोशीजगी: कुवांरापन

9 comments:

  1. अच्छी ग़ज़ल के लिए एकबार पुन: बधाईया

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  2. भीख देगा कौन , मुझको ये बताओ-
    तुझमें ये आवारगी जो रह गयी है ।

    अच्छी पंक्तियाँ, अच्छी अभिव्यक्ति !

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  3. अच्छी ग़ज़ल,अच्छी पंक्तियाँ !

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  4. फासला प्रभात से है इसलिए बस-
    आपकी नाराजगी जो रह गयी है ।
    अच्छी पंक्तियाँ...!

    जवाब देंहटाएं
  5. चाँदनी में घूमता है रात भर वह-
    चाँद में दोशीजगी जो रह गयी है । nice

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