सस्ती कितनी जान हमारी बस्ती में ।
ग़ज़ल:
कुछ सूखे जलपान हमारी बस्ती में
सुपली भर है धान हमारी बस्ती में ।
हवा देखकर आज यहाँ शर्मिन्दा है-
टूटे छप्पर-छान हमारी बस्ती में ।
पुतले रोज जलाते लेकिन डरते भी -
रावण से भगवान हमारी बस्ती में ।
फैशन में गुमराह हुए ये बच्चे भी-
मुंह में दाबे पान हमारी बस्ती में ।
महिलाओं पर जोर-जुल्म दिखलाकर के -
बनती पुलिस महान हमारी बस्ती में ।
क्या-क्या जुल्म न ढाए खादी वालों ने-
सस्ती कितनी जान हमारी बस्ती में ।
मुंह में राम बगल में छुरी जो रखते वे-
पाते हैं सम्मान हमारी बस्ती में ।
सैर-सपाटे को आये थे जो प्रभात-
उनकी बड़ी दूकान हमारी बस्ती में ।
() रवीन्द्र प्रभात
nice
जवाब देंहटाएंग़ज़ल का एक-एक शेर सच्चाई बयान कर रहा है ....जहां सच्चाई है वहीं सृजन के मायने ! आज ही आपके द्वारा एल बी ए पर यशवंत सिंह की माताजी के ऊपर पुलिसिया जुल्म की खबर पढ़ी और आपने उसपर पूरी की पूरी ग़ज़ल ही कह दिया , अच्छा लगा !
जवाब देंहटाएंग़ज़ल हो तो ऐसी कि पढ़ने के बाद आह न दबा सको , क्या बात है-
जवाब देंहटाएंमुंह में राम बगल में छुरी जो रखते वे-
पाते हैं सम्मान हमारी बस्ती में ।
भाई रविन्द्र जी हम तो आपके इस गजल को वर्धा में सुनकर उसे सुपरहिट घोषित कर चुके हैं ...शानदार है आपकी यह गजल ...
जवाब देंहटाएंसैर सपाटे को आए थे जो प्रभात,
जवाब देंहटाएंउनकी बड़ी दुकान हमारी बस्ती में।
क्या जबरदस्त कटाक्ष किया है इन पंक्तियों में ...वाह बहुत खूब...बधाई।
नायाब!
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब...बधाई।
जवाब देंहटाएंशानदार है आपकी यह गजल ...
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक बात कही है आपने........
जवाब देंहटाएंपुतले रोज जलाते लेकिन डरते भी -
रावण से भगवान हमारी बस्ती में ।
यही तो हमारी भी बस्ती है...
जवाब देंहटाएंवाह!