मैं समय हूँ , कहीं और जाऊँ इस उत्सव को छोडकर - ? सूरज ले ही आया हूँ , पंछियों का कलरव है ही हर तरफ ... सब अपने अपने काम में लग ही चुके हैं तो ........................... आइये रश्मि जी मंच से पर्दा हटाइए :

क्या हो रहा है यहाँ ... ये क्या जगह है दोस्तों ? साहित्यिक उत्सव ?
आओ इकबाल आओ - सही कहा था तुमने
'नहीं है ना उम्मीद इकबाल अपनी किश्ते वीरां से
ज़रा नम हो तो यह मिट्टी बड़ी ज़रखेज़ है साकी '
...... साहित्य की उर्वरक धरती में हमने जो बीज लगाए थे , वे उग आए हैं . निराशा की धूल से जो धरती बंजर होने लगी थी ,
वहाँ कई नए चेहरे पनप आए हैं . इन क़दमों को इंतज़ार है आशीष का . ओह्हो , अब समझा तभी आमंत्रित किया है रवीन्द्र जी ने प्राचीन कवियों को ,
अहा - अदभुत दृश्य है . ये है हिंदी साहित्य का आकर्षण , बड़े बूढ़े बच्चे सब खड़े हैं एक हस्ताक्षर के लिए . बैठो बैठो मैं लेता हूँ इनके हस्ताक्षर अपने उन्नत ललाट पर और मैं इन्हें बुलाता हूँ , कुछ पंक्तियाँ तो सुना जाएँ ये आपके बीच ---

हमारे बीच सौंदर्य बिखेरते खड़े हैं कवि सुमित्रानंदन पन्त , उनकी मुस्कान कह रही है -

'बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से
....
यह विदेह प्राणों का बंधन
अंतर्ज्वाला में तपता तन
मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को
दग्ध कामना करता अर्पण
नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से

बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से'

स्तब्ध है सभा , क्योंकि आ रही हैं महादेवी वर्मा ....

'तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या
चित्रित तू मैं हूँ रेखाक्रम,
मधुर राग तू मैं स्वर संगम,
तू असीम मैं सीमा का भ्रम,
काया छाया में रहस्यमय।
प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या' ........

इमरोज़ की आँखें कुछ बोल उठी हैं , अच्छा तो अब अमृता प्रीतम आ रही हैं -

'मेरी सेज हाजिर है
पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज है……'

नशा है नशा है ये कैसा नशा है ... कुछ तो हुआ है , वो आ चले बच्चन जी लिए हाथ में मय का प्याला -

'मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'
अदभुत अदभुत ... रसखान भी आ गए और उत्सव कृष्णमय हो उठा है -

'धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी॥
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी॥'

महाभारत के सारथी के शब्दों को अपनी कलम में बाँध कवि दिनकर भी आ पहुँचे हैं -

'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,

मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,

नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,

शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।'

रगों में खून की धारा उत्तेजना से भर उठी है , कवि जयशंकर प्रसाद का आह्वान युवाओं को क्या , सबको जगा रहा है -

'असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो!'

मौसम गंभीर हो चला है , कोई बुलाओ भाई सरोजनी प्रीतम को ,...... हाँ तो अब आई होंठों पे मुस्कान , संभाला है सरोजनी प्रीतम ने हास्य का कमान -

'उन्होंने विवाह के लिए विज्ञापन दिया यूँ
मृगनयनी हो गजगामिनी
शुकनासिका, मोरनी सी ग्रीवा हो
सुडौल, हंसिनी की आवश्यकता है
मां जी ने पढ़कर बेटी से कहा
‘यह तो सिरफिरा कवि है
या पशु-पक्षियों का डॉक्टर लगता है’...............

----हहाहाहा , मज़ा आ गया , अब और आएगा मज़ा जब मंच पर होंगे काका हाथरसी .... ये रहे काका हाथरसी

'फादर ने बनवा दिये तीन कोट¸ छै पैंट¸
लल्लू मेरा बन गया कालिज स्टूडैंट।
कालिज स्टूडैंट¸ हुए होस्टल में भरती¸
दिन भर बिस्कुट चरें¸ शाम को खायें इमरती।
कहें काका कविराय¸ बुद्धि पर डाली चादर¸
मौज कर रहे पुत्र¸ हडि्डयां घिसते फादर।'

आखिर में कवि नीरज अपने अंदाज में सबको एक पैगाम देकर जा रहे हैं -

'आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
और कहने के लिए कहानी प्यार की
स्याही नहीं, आँखों वाला पानी चाहिए।

जो भी कुछ लुटा रहे हो तुम यहाँ
वो ही बस तुम्हारे साथ जाएगा,
जो छुपाके रखा है तिजोरी में
वो तो धन न कोई काम आएगा,
सोने का ये रंग छूट जाना है
हर किसी का संग छूट जाना है
आखिरी सफर के इंतजाम के लिए
जेब भी कफन में इक लगानी चाहिए।
आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए'

रवीन्द्र जी अब दीजिये मुझे भी विदा , और रश्मि जी को भी ... कुछ नई सोच उनके अन्दर करवटें ले रही हैं , हाँ अब वे अपनी कलम ढूंढ रही हैं मुझे पकड़ने के लिए .... फिर मिलूँगा .......


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मगर आप कहीं मत जाइएगा  
क्योंकि मंच पर कार्यक्रम के प्रथम चरण में प्रस्तुत है कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम,यथा :



चाँद के पार यादों का अम्बार , चाँद भी बस सुनता जा रहा है ….


अंतर्राष्ट्रीय :संयुक्त राष्ट्र की राजनीति: अमरीकी साम्राज्यवाद का खेल

     अभी जारी है उत्सव, मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद ......
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23 comments:

  1. बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से
    तुमने चिर अनजान प्राणों से'

    वाह .. वाह बहुत ही सुन्‍दर रश्‍मी जी की आवाज में

    इन कवियों को सुनना और पढ़ना एक सुखद अनुभूति ... परिकल्‍पना को इस प्रस्‍तुति के लिये बधाई के साथ शुभकामनाएं ।

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  2. सटीक व्याख्या…… नीरज का आभार

    जो भी कुछ लुटा रहे हो तुम यहाँ
    वो ही बस तुम्हारे साथ जाएगा,
    जो छुपाके रखा है तिजोरी में
    वो तो धन न कोई काम आएगा,
    सोने का ये रंग छूट जाना है
    हर किसी का संग छूट जाना है
    आखिरी सफर के इंतजाम के लिए
    जेब भी कफन में इक लगानी चाहिए।
    आदमी को आदमी बनाने के लिए
    जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए'

    जवाब देंहटाएं
  3. आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति का.

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  4. बहुत ही खूबसूरत और मनमोहक प्रस्तुति....

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  5. बेहद खुबसूरत तरीके से समय की भाषा पेश की है आपने ...मन मोह लिया इस अभिव्यक्ति ने ...बहुत बहुत बेहतरीन

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  6. समय तो साक्षी है हर हर महत्वपूर्ण क्षणों का, जो समझा वह समय की शक्ति को अपने भीतर आत्मसात कर लिया और जो केवल आलोचनाओं प्रति आलोचनाओं के माया जाल में उलझा रहा उसके हाथ खाली रह गए ! बहुत सुन्दर प्रस्तुति, बधाईयाँ !

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  7. परिकल्‍पना को बधाई के साथ शुभकामनाएं !

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  8. समय के सच को नया आयाम देती हुयी आवाज़ यानी परिकल्पना ब्लॉगोत्सव की आवाज़ !

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  9. बहुत सुन्दर प्रस्तुति, आभार कालजयी रचनाकारों की रचनाओं को सुनवाने हेतु !

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  10. यह तो मानो “आकाशगंगा” में विचरण करने जैसा है...
    साहित्याकाश के कालजयी धूमकेतुओं को एक साथ देखना, पढ़ना और सुनना... वाकई अभूतपूर्व अनुभव है यह... अत्यंत मनमोहक....
    सादर आभार

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  11. हिंदी के मूर्धन्य रचनाकारों की रचनाएँ एक ही जगह पढ़ आनंद आ गया.
    नीरज

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  12. इस प्रयास ..इस अद्भुत प्रयास के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास ...
    ढेर सारी शुभकामनायें

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  13. बेहतरीन दृश्यावलोकन और फिर समय की आवाज में रश्मि जी की आवाज ... शानदार

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  14. प्रभावशाली...परिकल्पना को बधाई

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  15. 'तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या
    चित्रित तू मैं हूँ रेखाक्रम,
    मधुर राग तू मैं स्वर संगम,
    तू असीम मैं सीमा का भ्रम,
    काया छाया में रहस्यमय।
    प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या
    तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या' .....
    .... सब कुछ कहती हुई रचना
    इसके बाद अब क्या किसी और कविता को पढूँ और क्या टिप्पड़ी दूँ ....

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  16. शेष कुछ भी नहीं रहता
    यहीं सब छुट जाता है
    रिश्ते भी बदलते हैं
    समय जब चक्र चलाता है

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  17. इस बार इतनी सुन्दर और नये अन्दाज मे ब्लागोत्सव की शुरूआत हुयी है हैरान हूँ आगे क्या होगा। लाजवाब प्रस्तुति। धन्यवाद।

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  18. इस बार इतनी सुन्दर और नये अन्दाज मे ब्लागोत्सव की शुरूआत हुयी है हैरान हूँ आगे क्या होगा। लाजवाब प्रस्तुति। धन्यवाद।

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  19. एक साथ कई श्रेष्ठ साहित्यकारों को पढने का सौभाग्य मिला, आभार.

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