ओ मेरे पापा , ओ मेरी मम्मा
एक बात सुनाऊं मैं
मैं ही सत्य हूँ
मैं ही सुन्दर
शिव तुम्हारा भी हूँ मैं
तेरा सपना
और हकीकत
तेरा बचपन
और मुस्कान
तेरी ज़िन्दगी मैं ...
मुझसे ही है इन्द्रधनुष
कर्ण कवच सा मैं
अर्जुन सा हूँ लक्ष्य तुम्हारा
सप्तरिशी हूँ मैं
मुझसे ही है गीत तुम्हारे
तेरा स्वर हूँ मैं
मुझसे ही है तेरा गौरव
तेरा चेहरा हूँ मैं
तू मुझमें है
मैं तुझमें हूँ
देश छुपा है हममें
तू निर्माता
मैं हूँ निर्मित - तेरा मकसद हूँ मैं !
बच्चों का कोना: शिक्षक (कहते हैं कैलाश शर्मा - अगर चाहते हो तुम खुशियाँ, ढूँढो
इसको बचपन में.)
दे कर के सम्मान गुरु को,
जीवन में है सफल बनोगे.
श्रेष्ठ ज्ञान अधिकारी होगे.
बिना गुरु के ज्ञान कहाँ है,
बिना गुरु भगवान कहाँ है?
चढ़ने सीढ़ी सफलता की
गुरु जैसी सोपान कहाँ है?
जो भी पाठ पढ़ाते शिक्षक,
जीवन राह सुगम हैं करते.
उनकी शिक्षा हैं जो मानते,
वे हैं जीवन में आगे बढ़ते.
शिक्षक का सम्मान जहाँ न,
वह समाज अवनति को जाता.
बीज सु-संस्कारों के बो कर,
वह शिक्षक पूजनीय बन जाता.
बाल मन की राहें.....बच्चों का ब्लांग: अलादीन का ...
(माहेश्वरी कनेरी)
अलादीन का चिराग,माँ
अगर मुझे मिल जाता
बैठ कंधे पर जिन्न के
सारी दुनिया घूम के आता
अलमस्त पक्षी सा कभी
आसमान में उड़ जाता
तारों से बातें करता कभी
चंदा से हाथ मिलाता
लुका छिपी खेल-खेल में
कितना भी ढ़ूँढ़ती मुझे
मैं हाथ कभी न आता
चंदा मामा के घर जाता
बूढ़ी नानी से मिल आता
कितना मजा आता ,माँ
जो चाहूँ वो मिल जाता
“हुकुम मेरे आका”, कह वो
पलक झपकते ही आजाता
सारी दुनिया की खुशियों से
झोली मेरी भर जाता
अलादीन का चिराग,माँ
अगर मुझे मिल जाता
बैठ कंधे पर जिन्न के
सारी दुनिया घूम के आता
कुछ हमारे नन्हें मुन्नों के लिए - नूतन ( बच्चों का ...(अन्नपूर्णा बाजपाई)
बालकों को कौन सी बातें सदा याद रखना चाहिए ?
सत्य की विजय की निश्चितता ।
सिद्धी का संकल्प होने पर भी निरंतर उन्नति होने की संभावना ।
अच्छे बालको मे कौन से गुण होते है ?
बालकों को गुस्सैल नहीं होना होना चाहिए ।
बालकों को उत्साही होना चाहिए ।
बालकों को सच्चा और दृढ़ निश्चयी होना चाहिए ।
धैर्य शील होना चाहिए , विपरीत परिस्थितियों से जल्द ही घबराना नहीं चाहिए डट कर सामना करना चाहिए।
सहनशील होना चाहिए ।
साहसी होना चाहिए । डरपोक बालकों की कहीं इज्जत नहीं होती है ।
खुश मिज़ाज होना चाहिये ।
विनम्र होना चाहिए ।कभी अपनी सफलता पर गर्व नहीं करना चाहिए । और न ही अपने साथियों को कभी निम्नतर समझता है ।
उदार होना चाहिए दूसरों के गुणों की खुले मन से प्रशंसा करनी चाहिए । सभी की सहायता के लिए भी तत्पर रहना चाहिए ।
ईमानदार और आज्ञाकारी होना चाहिए ।
प्रिय बच्चों ऐसा नहीं है कि ये सारी बातें तुम्हें तुम्हारी माँ नहीं बताती है परंतु जब आप किसी और के द्वारा भी वही सब बाते सुनते है जो आपकी माँ आपको बताती तब आप अवश्य उन सभी बातों पर गौर करते है । और अच्छे इंसान बनने की दिशा मे कदम अवश्य बढ़ाते है । आखिर आपके मातापिता आपके लिए दिन रात मेहनत करते है तो आपका ये दायित्व बनता है कि आप उन्हे एक संस्कारी बालक बन कर खुशियाँ दे जो वे चाहते है ।
आखिर में - बाल-कविताएँ : सीमाएं और संभावनाएं के अंतर्गत अशोक आंद्रे जी के विचारों से हम अवगत होते हैं
बाल साहित्य में जबसे सृजनात्मक स्तर पर विविध प्रकार से लेखन शैली का विकास हुआ है , तभी से उसके शिल्प और विषय की दृष्टि से प्रयोगात्मक स्तर पर कार्य किया गया है. लेकिन बाल-साहित्य में रचना प्रक्रिया के दौरान यह देखना जरूरी कि हम किस वर्ग के बच्चों के लिए लिख रहे हैं. मैं इस तरह से बच्चों को दो वर्गों में विभाजित करता हूँ.प्रथम तीन से नौ वर्ष की आयु के बच्चों तथा द्वितीय में दस से अठारह वर्ष की आयु तक.
प्रथम वर्ग की आयु की कविताओं में,भाषा की सहजता के साथ-साथ मनोरंजक तत्वों की प्रधानता का होना अनिवार्य है. क्योंकि इस वर्ग के बच्चों का स्वभाव सहजता व मनोरंजक तत्वों की ओर ही आकृष्ट होना रहा है.जटिल विषयों की ओर वह आकर्षित होता है क्योंकि सहजता उनकी प्रवृति होती है.इस तरह से स्पष्ट है कि बाल साहित्य में जो भी प्रयोग की दृष्टि से संभव हुआ है, वह द्वितीय वर्ग आयु के लिए ही सफल रहा है.
पिछले कुछ समय से हमारा समाज इतना व्यक्तिवादी हो गया है कि हर व्यक्ति इस प्रवृति के कारण संकीर्ण हो गया है. इसीलिए पारिवारिक स्तर पर अलगाव की प्रवृति बढ़ रही है. बच्चे इन असंगतियों के चलते क्या महसूस करते हैं ? यह सब सोचने को उनके पास समय नहीं रह गया है. उनकी मस्त चंचलता सिर्फ जड़ता का बोध कर रह जाती है . उनके चेहरों पर तनावों का जाल बढ़ता जा रहा है.
यह चूहे-बिल्लियों व परी-कथाओं पर आधारित कविताएँ कविताएँ आज उसे चैन से नहीं बैठने देती है, वह सवाल-दर-सवाल खड़े कर देता है. क्योंकि आज के बदलते परिवेश में उसकी अपनी सोच व मान्यताएं बलवती होती जा रही हैं. इनके रहते बाल-साहित्य में शिल्प और विषय की दृष्टि से नवगीत इनकी मानसिकता के अनुरूप ही बैठती है.
जहां तक बाल-साहित्य में सीमाओं का सवाल है, यह सोचना बेमानी न होगा कि इस तरह से उस विधा को जकड़ कर बाँध देते हैं जो कि उसके लिए आयु में काफी छोटे होते हैं. जिनका भाषा ज्ञान भी अधिक नहीं है. जिनका मानसिक विकास और ग्राह्य शक्ति भी वयस्कों की तुलना में बहुत कम है. वैसे भी नन्हें-मुन्नों को तुकांत कविताएँ ही पसंद होती हैं जिन्हें वे प्राय: गुनगुनाते रहते हैं. विकास की प्रक्रिया में एकरसता जड़ता को स्थापित करती है.
परिवर्तन के दृष्टिकोण से बाल-साहित्य के भविष्य के बारे में सोचना इतना सहज नहीं, जितना हम मान बैठते हैं. किसी भी देश का साहित्य उस समय की स्थितियों के अंतर्गत ही रचा जाता है. जैसे-जैसे हमारा सामाजिक परिवेश करवटें बदलता है, ठीक उसी क्रम में सभी विधाएं अपना ताना-बाना बुनती हैं.
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना हीं मिलती हूँ कल फिर इसी समय, परिकल्पना पर .....तबतक आप सभी ब्लॉगोत्सव का आनंद लीजिये .....शुभ विदा ।
हर पहलू पर कुछ ना कुछ है यहां
जवाब देंहटाएंलिख रहा है हर कोई बहुत उम्दा
बस पढ़ने वाला ही पता नहीं है कहाँ :)