जो क्रम चला सतयुग,द्वापर,कलयुग का
तो क्रम जारी है
फिर सतयुग की बारी है.
सत्य कभी मरता नहीं
अतीत के गह्वर में टिकता नहीं...
मही डोलेगी,गगन डोलेगा
काल विनाश के लिए
आत्मा का नाश नहीं
आत्मा अमर है
कहा था श्री कृष्ण ने...
तो कृष्ण की आत्मा हमारे पास ही है
सृष्टि के आरंभ से आज तक
प्रभु हमारे साथ ही हैं
हवाओं में उनका स्पर्श है
मौन में आशीष है
गर है यह सत्य
"जब जब धर्म का नाश होता है मैं अवतार लेता हूँ"
तो निश्चय ही
प्रभु का जन्म होगा
हमें डूबने से बचाने को
अन्याय के विरोध में
साई मार्ग बताने को
हरि का जन्म होगा
मही डोलेगी गगन डोलेगा
हरि का जन्म होगा
सोलह साल की मेहर जिसने अभी जिंदगी के उस पड़ाव में कदम रखा था, जब उसे स्वंय और समाज में खुद के लिए होने वाले कुछ बदलावों को समझना था, जानना था और बहुत कुछ सीखना भी था। सबकी सोच और स्वीकृति के मुताबिक अपने आप को परिपक्व करना था। पढ.ाई में हमेषा से अव्वल रहने वाली मेहर को उम्मीद थी कि वो इस बड.ी सी यूनिवर्सिटी में भी टॉप पर बनी रहेगी। कॉलेज के पहले दिन मेहर को सब कुछ बदला सा लगा। यहां का माहौल स्कूल जैसा नहीं था, सब कोई अपने में ही मस्त था। घर आकर मेहर खूब रोई। पेरेन्ट्स ने पहले ही बोल दिया था कि नब्बे प्रतिषत अंक ही आने चाहिए। जैसे तैसे परीक्षाऐं हुई परिणाम भी उसके मनमुताबिक नहीं आए। डिप्रेषन में आकर उसने हार मान ली और एक दिन स्वंय उसने मौत को गले लगा लिया।
त्ेारह साल की सोनल रंग-रूप में साधारण पर हमेषा से पढाई में आगे रहने वाली लड.की थी लेकिन उसकी बड.ी बहन जो काफी खूबसूरत थी हर कोई बड़ी की तारीफ करते नहीं थकता था। हर बार भेदभाव झेलती सोनल के अव्वल आने पर भी सिर्फ पीठ थपथपा दी जाती थी। बहन से कम्पैरिजन का ये दर्द दिन रात कोसता रहता। अच्छी से अच्छी ड्ेस पर भी सिर्फ ‘ठीक है’ कमेंन्ट इस कदर उसे तंग करने लगा कि एक दिन तंग आकर आत्महत्या जैसा कदम उठा लिया और पेरेन्ट्स को उम्रभर के लिए रोने को छोड. गयी।
तीसरी कहानी है कैलाष की जिसने गरीब परिवार में जन्म लिया। मजदूरी करके अपना पेट पालने वाले और कठिन हालातों में कैलाष को पढानें वाले गरीब मां-बाप के लिए वो ही एकमात्र आसरा था। कैलाष भी उन्हें बेहद प्यार करता था। बड़ा आदमी बनना और मां-बाप को एक अच्छी जिंदगी देना ही उसका मकसद था। लेकिन सारे ख्वाब चूर-चूर हो गये जब प्यार में हार सहन न होने से कैलाष ने रेल के नीचे आ कर जान दे दी।
ऊपर लिखी घटनाऐं कोई काल्पनिक कहानी नहीं बल्कि हमारे आपके बीच का सच है। आत्महत्या जैसा बड़ा कदम आजकल आम हो गया है। आखिर क्या कारण है कि एक खुषमिजाज इंसान खुद ही खुषियों से नाता तोड़ कर अपनी जिंदगी समाप्त कर रहा है। होने को तो कुछ भी हो सकता है लेकिन यूंही दुनिया छोड़ देना वो भी अपनी वजह से ये बात कुछ जान नहीं पड़ती।
कहने को तो लोग कुछ भी कहते है लेकिन स्थिति केवल वो ही समझ सकता है जिस पर बीत रही होती है। हम इंकार नहीं करते कि लोगो के पास परेषानियां कम नहीं होती। लेकिन परेषानी और चिंता में हर वक्त डूबे रहना, या उन्हें स्वयं पर हावी होने देना ये कोई समझ की बात नहीं। अगर गौर से देखे तो पाऐंगे कि सुसाइड करने वाले लोगों में अधिकतर पढ.े लिखें लोग या सभ्य परिवार के ही लोग पाऐ जाते हैं। क्या कभी सोचा है कि सुबह से लेकर षाम तक काम करने वाला मजदूर आत्महत्या क्यों नहीं करता। कहने को वो हमसे स्टेटस में नीचे होते है लेकिन उनकी फिलॉसिफी हमसे कई गुना बेहतर होती है। कभी किसी सब्जी वाले से अपनी परेषानियों का बखान करते सुुना आपने या कोई रिक्षे वाला तेज धूप से डर कर एक कोने में बैठे मिला हो। ये सभी लोग हमारे लिए एक मिसाल के तौर पर है जो हर पल यही समझाते हैं कि कोषिष करने वालों की कभी हार नहीं होती। मेहनत से डर कर कोई नया स्टेप ही न लेना या बैठे-बैठे ये सोचना कि अब कुछ नहीं हो सकता ये कहां का न्याय है। अकसर लोग कहते है मेरी लाइफ में कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा, लेकिन जब गौर से सोचे तो पाऐंगे कि लाइफ नॉरमल चल रही है, खाने को दो वक्त खाना मिल रहा, तन पर कपड़े भी है। तो कैसे कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा।
जिंदगी स्वंय मंे बहुत खूबसूरत है और उससे भी ज्यादा संुदर है वो रिष्ते जो हमें स्पेषल फील कराते है। सोच के देखिये अगर एक दिन आपने सबसे महंगी और संुदर ड्ेस पहनी हो और किसी ने भी आपको नोटिस ही न किया हो न ही तारीफ की, तो कैसा लगेगा आपको। कोई भी ये नहीं चाहेगा कि कोई उसे अहमियत न दे। इसी लिए जरूरी है पहले खुद लोगों को अहमियत दे उन्हें स्पेषल फील कराऐं तभी वो आपकी भी कदर करेगें।
अकसर देखा जाता है लोग परेषानियों में डूबे रहते है सोचते है कोई भी उन्हे नहीं चाहता। ऐसे में उनके जहन में बार-बार यही बात आती है कि जिस दिन मैं चला जाउंगा उस दिन मेरी अहमियत समझेगें। ऐसी बातें मजाक में हो तो ठीक है क्योंकि जिंदगी में हर कोई आपकी अहमियत बताए जरूरी तो नहीं । मगर आपको दूसरों के लिए न सही अपने लिए स्पेषल फील करना होगा। सोच कर देखे कभी आपकी वजह से दूसरों के चेहरे पर मुस्कान आई हो। इससे अच्छा भला और क्या हो सकता है। आज का यूथ षॉर्ट टर्म सक्सेस में विष्वास करता है, जल्दी सफलता न मिले तो निराष हो जाता है, लेकिन उसे ये नहीं पता होता कि सक्सेस का कोई षॉर्ट कट नहीं होता पर हां विष्वास स्ंवय पर ही रखना होगा।
अकसर लोग सुंदर रूप रंग को ही सब कुछ मानते है लेकिन अपने मन की संुदरता को भूल जाते है सुकरात का नाम आज सब जानते है वो षक्ल से एकदम अच्छे नहीं थे लेकिन उनके विचारों को सबने लोहा माना। बाहरी संुदरता तो सिर्फ दिखावे की बातें है असल में इंसान की पहचान तभी होती है जब वो मन से सुंदर हो। गर्व करे उस रूप पर जो खुदा ने दिया है और इस जिंदगी को एक खुषनुमा ढंग से जिए तो सफलता जरूर मिलेगी। मेरी टीचर ने बहुत ही खूबसूरत बात कही जो मैं हमेषा ही फौलो करती हूं कि जिंदगी आपकी है, और ये आपकी च्वाइस है कि आप कैसे जिऐं। हममे से लगभग नब्बे प्रतिषत लोग दूसरों की मर्जी से जीते है, और जब वे उम्मीदों पर खरा नहीं उतरते वहीं से कॉनफ्लिक्ट पैदा होता है और लोग तनाव में चले जाते है। इससे बेहतर है जिंदगी अपने हिसाब से जियंे।
एक बहुत अच्छी किताब में लिखा था कि दुनिया मंे फेलियर नाम की कोई चीज नहीं होती। ये सिर्फ एक सीखने की प्रक्रिया है, और जब ये प्रक्रिया पूरी होगी वो सक्सेस में बदल जाऐगी। तो असफलता से निराष होने से बेहतर है जो पाना चाहते है उसके लिए जी जान से जुट जाइये यही एक बेहतर कल की षुरूआत है। एक क्लास मंे तीस बच्चे हों और तीसों र्फस्ट आए ये तो पासिबल नहीं हर कोई बराबर की षिक्षा लेता है फिर कोई प्रथम और कोई थर्ड क्यों आता है, क्योंकि इण्डिया हर बार वर्ल्ड कप जीते जरूरी तो नहीं। वैसे ही लक्ष्य वैसे ही हो जो हमारे लिए केपेबल हो पूरे करना। तभी हम तनाव से बच सकंेगे।
जिंदगी में हमेषा एक सा वक्त नहीं रहता आज दुख है तो कल सुख भी आएगा और इसकी मिसाल ढूंढे तो लाखों मिलेगे। डॉ.कलाम,स्टीव जॉब्स और ऐसे ही कितने लोगों ने असफलता का स्वाद भी चखा लेकिन दोगुनी ऊर्जा के साथ प्रयास किये और आज इनहें हर कोई जानता है। अगर ये लोग भी हार मान लेते तो क्या होता। जो है सब यहीं है फिर न जाने कब इंसान रूप मंे जिंदगी मिले। किसी के लिए हो न हो उस ईष्वर के लिए हम सब अनमोल है जिसने एक अच्छे उद्देष्य के लिए हमें भेजा है।
जूही श्रीवास्तव
(कफ़न के अंदर एक लाश पड़ी है)
(उदास संगीत लगभग १५ सेकंड्स)
नमस्ते (कफ़न के अंदर से झांकते हुए)
अजी घबराईये नही, मैं कोई भूत नही हूँ. मैं तो एक कलाकार हूँ जो मरने का अभिनय कर रहा था. या यूं कहें कि मैं मर के यह देखने की चेष्टा कर रहा था कि मृत्यु मे नाटकीयता कितनी संभव है.
नही समझे?
वस्तुतः मेरी एक समस्या है कि मैं हर चीज में, हर घटनाक्रम मे नाटकीयता सूंघने की कोशिश करता हूँ और यह आदत मुझे बचपन से ही है. अब इसका दोष मैं अपने झोलाछाप लेखक बाप को दूं, राजाओं का अभिनय करने वाले फटेहाल दादा को दूं या अपनी डायरी मे छुप छुप के कवितायें लिखने वाली माँ को दूं, यह निर्णय मैं नही कर पाता. निर्णय ना कर पाने की आदत भी मुझे बचपन से ही है और इसका दोष मैं किसे सौंपू यह भी मुझे नही पता चलता. लेकिन इतने दिनों के दोष-युक्त सोच के बाद इतनी बात तो समझ मे आ गयी कि मैं अपने सारे दोषों का दोषी किसी ना किसी को तो ठहरा ही सकता हूँ.
आपको बोर करने का दोष कथालेखक और निर्देशक के माथे और मेरे खाली पेट का दोष बाप की कंगाली के सर. पर, आज मैं अच्छे मूड मे हूँ. तो आज मैं किसी को दोष नही दूंगा. आज के सारे दोष - मेरे होंगे.
खैर, मैं तो आपको अपनी नाटकीयता सूंघने वाली आदत के बारे मे बता रहा था. बचपन से ही अपने दादा को अभिनय करते देखकर और आधुनिक नाटकों की अ-नाटकीयता का विश्लेषण करते सुन कर, मेरे मन मे नाटकों से प्रेम तो हो गया पर फिर भी मुझे उनकी कंगाली नही भाती थी. दादाजी और मोहन दोनो की हालत देखते देखते मेरे दिमाग मे यह बात जड़ कर गयी थी कि हर अभिनेता कंगाल होता है, प्रकारांतर मे सिने-अभिनेताओं के करोडों का आंकडा सुन कर यह तो पता चल गया कि मैं बचपन मे बहुत बेवकूफ था. पर उस वक़्त तो यही सच था और मैंने अपने मन में यह निष्कर्ष निकाला कि हर कंगाल अभिनेता बन सकता है.
बस...! फिर क्या था? अभिनय के शुरुआत की शुरुआत हो गयी. जन्मजात कंगाल होने का आत्मविश्वास कूट कूट कर भरा था. आख़िर मुफलिसी मुझे विरासत मे मिली थी.
मैं एक अच्छा अभिनेता हूँ. अरे नही...! मैं ये नही कह रहा की विरासती नचनिये अच्छे नही. मैं दूसरो के बारे मे तो बात ही नही करना चाहता. मैं....मैं एक अच्छा अभिनेता हूँ - इसका पता मुझे पहली बार तब चला जब मेरे दादाजी परलोक सिधार गए.
जहाँ सब लोग रोने धोने मे व्यस्त थे, मैं दादाजी के पदचिन्हों पर चलते हुए, उनकी मृत्यु का नाटकीय विश्लेषण कर रहा था. किसके भाव कैसे हैं, कौन कितना मुहँ तिरछा कर के रो रहा है, किसके आंखों मे आंसू की कितनी बूँदें हैं, सब मैंने बहुत ही बारीकी से देखा. आख़िर मेरे अभिनय की शुरुआत जो थी. क्या पता किस रोल मे मेरा कौन सा सम्बन्धी किस दिन लटक जाये. इस सोच मे मैंने अपने हर रिश्तेदार को भली-भाँती नोट किया.
और उस दिन से आजतक मैंने मरने की बहुत कोशिश की, जैसे आज कर रहा था पर उतने अच्छे तरीके से आज तक नही मर पाया जिस तरह दादाजी मरे थे.
एक राज की बात बताऊं??? मेरे जीवन का उद्देश्य भी यही है कि मैं अपने दादाजी से अच्छे तरीके से मरूँ. और मेरे नाटक का पटाक्षेप आम की नहीं बल्कि चंदन की लकडी के साथ हो और नेपथ्य मे बर्तनों की धन धन और कुत्तों की भूंक के बदले कोई सुन्दर सा उदास संगीत हो जो धीरे धीरे इस कदर अपने चरम पे चला जाये की कोई दूसरी आवाज ही सुनाई ना दे.
(music off)
दादाजी, दादाजी उठिए ना! आज आपके नाटक का ५० वां शो है. सबलोग आपको बुलाने आये हैं. मम्मी, पापा...देखिए ना दादाजी को क्या हुआ. उठ ही नही रहे हैं. अभी तो मेरे साथ बैठ कर चाय पी रहे थे, मैं थोडी देर के लिए इनकी नकली दाढी लाने बाहर गया और ये उठ ही नही रहे हैं. मम्मी आप रो क्यों रही हैं? पापा आप चुप क्यों हैं? दादा जी...दादा जी..उठिए ना!!!
(cry converts to laugh)
हाहाहा! आज मुझे वो दिन याद आता है तो हँसी आती है. भला वो भी कोई दृश्य था?आख़िर एक कलाकार की मृत्यु मे कोई इम्पैक्ट तो हो. मेरा वश चलता तो मैं उन्हें दुबारा मरने को कहता. अब मेरी एक्टिंग भी थोडी इम्प्रूव हो गयी है.
(red light. intense music)
दादाजी, दादाजी उठिए ना! आज आपके नाटक का ५० वां शो है. सबलोग आपको बुलाने आये हैं. मम्मी, पापा...देखिए ना दादाजी को क्या हुआ. उठ ही नही रहे हैं. अभी तो मेरे साथ बैठ कर चाय पी रहे थे, मैं थोडी देर के लिए इनकी नकली दाढी लाने बाहर गया और ये उठ ही नही रहे हैं. मम्मी आप रो क्यों रही हैं? पापा आप चुप क्यों हैं? दादा जी...दादा जी..उठिए ना!!!
(light slowly starts coming back to normal)
अपने नाटक के गोल्डेन जुबिली के दिन ही बेचारे दादाजी...!!! उनकी मृत्यु का दोष आजतक मैं उनके उस नाटक को ही देता आया हूँ.
(blue light)
आईये आईये! कुछ टिकट बचे हैं. शेखर कुमार की अनोखी अदाकारी का अद्भुत नमूना. ..'रंगमंच का दुश्मन'. गोल्डेन जुबिली शो.
(light normal)
मैंने ख़ुद भी कुछ टिकेट्स बेचे थे. लोग कहते थे कि यह नाटक बहुत ही...अच्छा है. धर्मयुग में समीक्षा आई कि शेखर का यह नाटक कलाकारों की आत्मा का रंग है जिसे अभिनेता इन्द्रधनुष बनाकर मंच पर ऐसे बिखेरता है कि हम उसके सम्मोहन से उबर ही नहीं पाते.
मोहन कहता था, "रंगमंच का दुश्मन - रंगमंच की दुनिया का क्रांतिकारी आश्चर्य है".
हहह! मुझे तो लगता है कि रंगमंच का दुश्मन मेरे दादाजी का दुश्मन हो गया. कहीं न कहीं उसकी कहानी उन्हें अंदर ही अंदर सालती थी. उस कहानी का नायक कहीं ना कहीं उन्हें अपनी याद दिलाता था. अभिनय - उनके लिए दर्पण देखने जैसा हो गया था. वो कहानी थी एक ऐसे कलाकार की - जो अपनी कला के प्रति इतना समर्पित था कि उसके परिवार वाले उपेक्षित हो गए थे. और धीरे धीरे परिवार में अपनी पहचान खोने वाला नायक जब रंगमंच की दुनिया में अपनी पहचान पा लेता है, तो उसे यह अहसास होता है कि उसके अपने, अब अपने नहीं रहे. यद्यपि कहानी के नायक ने रंगमंच की दुनिया छोड़ कर गुमनामी की दुनिया को स्वीकार कर लिया लेकिन दादाजी का रंग-प्रेम उससे शायद थोडा अधिक था.
"रंग मंच जीवन है. इस मिथ्या से संसार मे जहाँ दिन रात हर कोई एक दुसरे से नाटक करता है...केवल मंचीय नाटक मे ही थोडी सी सच्चाई बची है. रंगमंच जीवन है. रंग मंच को त्यागना, जीवन त्यागने जैसा है."
और दादाजी का नाटक केवल इसी उलझन मे समाप्त हो गया. मृत्यु के दिन भी उनके दिमाग मे अगर कुछ था तो रंगमंच का दुश्मन. वो मुझे अपनी ओजस्वी आवाज में अपनी पंक्तियाँ सुना रहे थे.
"घर मे भूखे बच्चे बैठे, यहां बने बैठे महराजा
दो रुपये की धोती महंगी, यहां पे सोलह सिंगार साजा
ऐसा नाटक स्वीकार नही है, रंग मंच का दुश्मन हूँ मैं.
मुझे मंच से प्यार नही है, रंग मंच का दुश्मन हूँ मैं.
दादा जी की आवाज का मुकाबला कोई नहीं कर सकता था. केवल मोहन ही था जो उनके थोड़ा नजदीक जा पाता. मोहन से मेरी मुलाकात भी इसी नाटक में हुई थी. नाटक में दादाजी का बेटा बना था वो. दादाजी कहने लगे थे कि मोहन उनका अजन्मा बेटा था. जबकि मोहन ने जन्म भी लिया था और वो मेरे दादाजी का बेटा भी नहीं था. तभी तो मैं उसे मोहन कह पाता था. मोहन अपने बारे में ज्यादा नहीं बोलता था और मुझे उसके बारे में कुछ ज्यादा जानकारी नहीं थी. लेकिन मुझे एक बात पता थी - जुबानी याद थी कि मोहन के बाप का नाम अर्जुन नहीं था और उसकी माँ सुभद्रा नहीं थी.
(Changes voice like mohan)
"मेरा बाप अर्जुन नहीं था
मेरी माँ सुभद्रा नहीं थी
और मैं भी अभिमन्यु नहीं हूँ
फिर यदि मैने अपनी माँ के गर्भ से
वीरता भरी रहस्यमयी कहानियाँ नहीं सुनी
तो मेरा क्या दोष ?
यदि इतने पर भी मुझ अबोध को
इस दुर्भेद्य चक्र्व्यूह में फांस दिया गया है
तो ऐ मेरे धैर्य के परीक्षक भविष्य!
मैं तुमसे अनन्त हिरण्य उषाओं को साक्षी देकर कहता हूँ -
मैं इस दुर्भेद्य को भेदुंगा, पार करूंगा
और एक दिन निश्चय ही राह मेरे चरण तले आयेगी
चाहे देर भले ही लगे !
क्योंकी मेरी आत्मा
अर्जुन से भी अधिक रिजू है;
सुभद्रा से भी अधिक धारणशील है;
और अभिमन्यु से भी अधिक श्रुतिधर्मा है !
क्योंकिमैं वर्तमान को अपना छोटा भाई मानता हूँ !
जिसे मैं जिधर चाहूं मोड़ सकता हूँ
और उसे अपने प्यार के सहारे दिव्य और भव्य बना सकता हूँ !
यह विराट चक्रव्यूह
उस इकलौते भाई की नूतन पाढ्शाला है !
और मैं उसका अकेला अध्यापक हूँ !
लेकिन मैं झूठ नहीं बोलता
सच, मेरा बाप अर्जुन नहीं था;
मेरी माँ सुभद्रा नहीं थी
और मैं भी अभिमन्यु नहीं हूँ !"
विकास
पल्ल्वी सक्सेना
कोई बता सकता है क्या मुझे कि इस दुनिया का सबसे मुश्किल काम क्या है ? :) है कोई जवाब किसी महानुभाव के पास ? मैं बताऊँ इस दुनिया मैं यदि सबसे मुश्किल कोई काम है तो वो है परवरिश, जिसमें लगभग रोज़ नयी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है कभी-कभी तो कुछ ऐसी चुनौतियाँ सामने होती हैं जिस पर हँसी भी बहुत आती है और समस्या भी बहुत गंभीर लगती है, ऐसे मैं पहले खुद को तैयार करना ही मुश्किल हो जाता है कि क्या करें और कैसे करें कि बच्चों को बात भी समझ में आ जाए और उन्हें बुरा भी न लगे जैसे वो कहते हैं ना “साँप भी मर जाये औ लाठी भी न टूटे”। जाने क्यूँ लोग लड़कियों को लेकर चिंता किया करते हैं मुझे तो लड़के की ज्यादा चिंता रहती है इसलिए नहीं कि वो मेरा बेटा है, क्यूंकि यह तो एक बात है ही मगर इसलिए भी कि कई ऐसे मामले हैं जिसमें लड़कियां बिना समझाये भी ज्यादा समझदारी दिखा देती है और लड़कों को हर बात बिठाकर समझनी पड़ती है। :)
खैर इन मामलों में मुझे ऐसा लगता है कि आजकल जो हालात है उनमें पहले ही एक अच्छी और सही परवरिश देना, दिनों दिन कठिन होता चला जा रहा है। क्यूंकि ज़माना शायद तेज़ी से बदल रहा है और हमारी रफ्तार धीमी है ऊपर से यह मीडिया और फिल्मों के आइटम गीत रही सही कसर पूरी कर रहे हैं। आप को जानकार शायद हँसी आए कि यहाँ के कुछ बच्चे स्कूल की छुट्टी के बाद “फेविकॉल की करीना” को देखकर उसी की तरह डांस करने की कोशिश कर रहे है और उसके मुंह से जो शब्द निकलते हैं वो गाने के नहीं बल्कि कुछ और ही होते है जैसे i am sexy, i am cool यह देखने मैं तो बहुत ही हास्यस्पद बात है मगर है उतनी ही गंभीर क्यूंकि यदि उन्हें रोका जाये तो बात बिगड़ सकती है अभी जो वो सामने कर रहें है वही वो छुप-छुप कर करने लगेंगे। ऐसे में भला क्या किया जा सकता है तो अब एक ही विकल्प नज़र आता है वह है सही और गलत के फर्क को उन्हें समझाना जो देखने और सुनने में बहुत आसान लगता है। मगर है उतना ही कठिन क्यूंकि आपकी एक बात के कहने मात्र की देर होती है कि बच्चों के हज़ार सवाल तैयार खड़े होते है आप पर हमला बोलने के लिए। कई बार तो ऐसे सवाल होते जिनका जवाब खुद आपके पास भी नहीं होता। जैसे “सेक्सी” का मतलब क्या होता है और जब हीरो हीरोइन को प्यार करता है तो वो उसको “किस्स” क्यूँ करता है इत्यादि …
अब ऐसे में भला कोई कैसे समझाये कि यह शीला की जवानी और मुन्नी का झंडू बाम या फिर करीना का फेफ़िकॉल अभी तेरी समझ से बाहर कि बातें है बेटा, तेरे लिए अभी कार्टून ही काफी है मगर किस या चुंबन जैसी चीज़ें तो अब कार्टून्स तक में दिखाई जाने लगी है और इस बात को यदि यह कहकर समझा भी दो कि बेटा दुनिया में हर तरह के लोग होते हैं और हर जगह, हर व्यक्ति का अपना प्यार जताने का या दिखाने का अपना एक अलग तरीका होता है यहाँ के लोगों का यही तरीका है। हम लोग भी तो आपको ऐसे ही रोज़ सुबह आपके माथे पर आपको चूमकर उठाते है और रही बात “सेक्सी” शब्द की तो उसका मतलब तो है “प्रीट्टी” मगर यह शब्द बड़े लोगों के लिए हैं बच्चों के लिए नहीं तो जवाब आता है हाँ तो फिर यह टीवी वाले अंकल-आंटी और स्टेशन पर बड़े बॉय्ज़ एंड गर्ल्स सिर्फ होंठों पर ही क्यूँ किस्स करते हैं एक दूसरे को, अब इस सवाल का मैं क्या जवाब दूँ, एक बार टीवी पर तो फिर भी रोक लगायी जा सकता है। मगर बाहर की दुनिया का मैं क्या करूँ यहाँ तो खुले आम सड़कों पर यह सब होता है अब उसकी आँखें तो बंद नहीं की जा सकती और ना ही उसके सवालों को रोका जा सकता है आप लोगों को क्या लगता है इन बातों है कोई जवाब आपके पास ?
यह सब देखकर और सोचकर लगता है कि यहाँ रहना भी ठीक है या नहीं अभी यह हाल है तो जाने आगे क्या होगा। फिर थोड़ी देर में ऐसा भी लगता है कि अब तो इंडिया में भी यही हाल है, तो कहीं भी रहो इन बातों का सामना तो करना ही है। फिर दूजे ही पल ऐसा भी लगता है कि यह समस्या केवल मेरी है या यहाँ रहने वाले सभी लोग ऐसा ही महसूस करते हैं कि आजकल के बच्चों का बचपन बहुत जल्दी खत्म हो रहा है बच्चे वक्त से पहले बड़े हो रहे है। मामला परवरिश का है इसलिए इस विषय तर्क वितर्क संभव है यह ज़रूरी नहीं कि मेरे विचार आपसे मेल खाते हों लेकिन जब तर्क की बात आती है तो कुछ लोग इसे समार्ट की श्रेणी में रखते हैं, उनके मुताबिक आज की जनरेशन बहुत स्मार्ट है। हम तो गधे थे इस उम्र में, मगर मैं यहाँ इस तर्क पर कहना चाहूंगी कि हम गधे नहीं थे मासूम थे, क्यूंकि ऐसे प्रश्नों की ओर हमारा ध्यान कभी जाता ही नहीं था।
हम तो अपने दोस्तों सहेलियों और खेल खिलौनो में ही मग्न और खुश रहा करते थे। वह भी शायद इसलिए कि तब हमे यह सब यूं खुले आम देखने को मिलता ही नहीं था जो हमारे दिमाग में ऐसे सवाल आते, क्यूंकि शायद उन दिनों हमारी किसी भी तरह की जानकारी प्राप्त करने की दुनिया बहुत सीमित हुआ करती थी। जिसकी आज भरमार है। यहाँ कुछ लोग का कहना हैं कि तब हम डर के मारे अपने माता पिता से अपने मन की बात नहीं कर पाते थे, जितना कि आज कल के बच्चे कर लेते हैं जो कि एक बहुत ही अच्छी बात है। सही है मगर क्या ऐसा नहीं है कि ऐसी बाते हमारे दिमाग में भी शायद 16 -17 साल में ही आना शुरू होती थी। 8-10 साल कि उम्र में नहीं, मुझे नहीं लगता कि इस तरह कि बातें हम में से शायद ही किसी के मन में आयी हों। औरों का तो पता नहीं मगर कम से कम मेरा अनुभव तो यही है।
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल इसी समय परिकल्पना पर एक नए अंदाज़ मे ...तबतक के लिए शुभ विदा।
अदभुत है बहुत कुछ तो !
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुन्दर, कविता बहुत अच्छी लगी .
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