दरवाज़े जब दोनों तरफ से बंद हों तो किसी एक के चाह लेने से
दरवाज़े नहीं खुलते
नहीं मिटती दूरियाँ
शिकायतें अपनी अपनी
अपने नज़रिये से होती हैं
कोई और नज़र देना मुमकिन नहीं !
और कुछ दरवाज़े जो बहुत दिनों से बंद हों
वे जकड जाते हैं
मुश्किल से खोलना
और उसकी आवाज़ सुनना
शोर से अधिक कुछ नहीं लगता !
शोर से भी किसी एक के मोह से
क्या होता है
इबारतें तो वही रहती हैं उसके बंद सिरे पर
जो हम अपनी कलम से लिख चुके होते हैं !
बंद दरवाज़ों को खोलने की बातें होना
बड़े बड़े उदाहरण देना
वक़्त बिताने का बहाना है
…।
(सुरभि सोनम)
बंद कमरों की ख़ामोशी में
कुछ यूँ डूबे रहते हैं हम अब
कि ज़िन्दगी की पुकार
दरवाज़े पर ही जाती है दब
अपने अन्धकार में लुप्त
रमे रहते हैं कुछ यूँ कर्कश धुन में
की अनसुना कर जाते हैं
ज़िन्दगी की चीख को भी सुन के
मौत अपना रंगमंच
और कर्न्पतालों तक आस की
गुहार तक न पहुँचती है
ज़िन्दगी की खून से लथपथ दरवाज़े
मृत्यु का रचाया खेल देखते रहते हैं
और चादरों में छिपे हम
उसके अंत की प्रतीक्षा करते रहते हैं
क्यूँ छिपाए बैठे हैं हम खुद को
बंद कमरों की निर्जीव दीवारों में?
जब तोड़ रही होती हैं ज़िन्दगी अपना दम
उलझी, लिपटी, चीख पुकारों से
कब तक हारेगी ज़िन्दगी
हमारे दरवाज़े पर आकर?
कब तक छपेंगे हम भी
काल की भव्यता से डर कर?
क्यों नहीं खोल देते हैं हम दरवाज़े
और देते हैं एक मौका ज़िन्दगी को जीने का?
क्यों नहीं चीर देते हैं हम ये चादर
और जगने देते हैं अपने अन्दर भाव मानवता का?
अब नहीं तो कब बढ़ाएंगे हम
अपने हाथ उस ज़िन्दगी की ओर ?
आज नहीं, कल, दरवाज़े के उस तरफ
होगी फँसी अपनी भी ज़िन्दगी की डोर
आ गया है वक्त अब
ये दरवाज़े तोड़ देने का
मौत के रसातल से निकल कर
ज़िन्दगी के हाथ थाम लेने का
आ गया है वक्त अब
अपने अन्दर सहमे हुए उस मानव को जगाने का
अपनी बंदिशें तोड़ कर
हर ज़िन्दगी को गले लगाने का
(राजेंद्र तेला)
सूरज ने बंद कर लिए
दरवाज़े घर के
छुपा लिया उजाले को
काला अन्धेरा
छा गया आकाश में
इंद्र ने मौक़ा ताड़ा
भेज दिए बादल घनघोर
उमड़ घुमड़ कर बरसने लगे
बहा दिए नदी नाले
किसानों के चेहरे चमकने लगे
अग्नी भी चुप नहीं रही
लगी आकाश में बिजली चमकाने
वरुण ने भेज दी ठंडी हवाएं
कर दिया वातावरण को ठंडा
पक्षी नीड़ों में छुप गए
मिट्टी महकने लगी
बच्चे मस्ती में नाहने लगे
वर्षा के गीत गाने लगे
बारिश बारिश आयी
सबके चेहरे पर खुशियाँ लाई
(चंद्रभूषण)
पांच तो क्या एक भी गांव मुझे नहीं चाहिए।
सुई के नोक बराबर भी जमीन
तुम मुझे नहीं देना चाहते
मत दो, मुझे उसका क्या करना है।
न जर, न जमीन, न जोरू के लिए
न बतौर कवि
एक जरा सी हैसियत के लिए।
मेरी महाभारत तो खुद मुझसे है
जिसे मैं जितना भी बस चलता है,
लड़ता रहता हूं।
किसी कुत्ते-कबूतर गोजर-गिरगिट की तरह
मेरे भी हाथ एक जिंदगी आई है
इसको तुमसे, इससे या उससे नापकर
मुझे क्या मिल जाएगा।
इस दुनिया में हर कोई अपने ही जैसा
क्यों नहीं रह सकता
इस पर इतना टंटा क्यों है
बस, इतनी सी बात के लिए
लड़ता रहता हूं।
मेरी कविता की उड़ान भी
इससे ज्यादा नहीं है
मेरी फिक्र में क्यों घुलते हो
मुझे तुमसे कोई युद्ध नहीं लड़ना।
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी समय परिकल्पना पर एक नयी प्रस्तुति के साथ...तबतक के लिए शुभ विदा।
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी समय परिकल्पना पर एक नयी प्रस्तुति के साथ...तबतक के लिए शुभ विदा।
कल शाम फीड में आ गया था पर खुला नहीं पेज 404 गलती दिखा रहा था :(
जवाब देंहटाएंपर आज खुला बंद दरवाजा तो लगा वाकई में खुला हुआ है :)
बहुत सुंदर !
बहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचनाएँ!
जवाब देंहटाएंMeree rachna ko sthan dene ka shukriya
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