डायरी
अनकही बातों की
अनकही सोच की
अनकही मुलाकातों की
अनकहे रिश्तों की - ख़ास दोस्त होती है
अगर दोस्त को सम्भाल के रखो
तो वह दोस्ती निभाती है
किसी से कुछ नहीं कहती
पर सहनशीलता की हदें टूटने लगे
तो डायरी अपने पन्नों की सरसराहट में
सबकुछ कहती है
अनुमान के कांच तोड़ती है डायरी
मैं बार बार वापस आने को उठता हूँ क्यूँकि मुझे पता है तुम रोक लोगी मुझे...मेरा हाथ थाम कर बिना कुछ कहे उन नम आँखों से मुझे ताकते...तुम्हारी आँखों से बात करने की अदा...और वो नाजुक छुअन का अहसास...बार बार वापस आने के लिए उठने का मन करता है.....
-२-
आज ढलती शाम फिर तुम कुछ उदास, बुझी बुझी सी छत पर मुझसे मिलने आई..आज फिर दूर बगीचे से उस काले और नारंगी डैने वाली चिड़िया ने एक मधुर गीत गुनगुनाया...शायद वो जान गई थी कि तुम कुछ उदास हो...मैं और तुम आसमान में न जाने क्या ताकते उस चिड़िया का गीत सुनते रहे...फिर तुमने मेरी तरफ देखा मेरी नजरों में अपनी नजरें डाल कर...और मुस्करा उठी...खो गये हम एक दूसरे की आँखों में. चिड़िया शायद तब निश्चिंत होकर सो गई...रात ने अपनी पहली अंगड़ाई ली है अभी...चाँद उल्लास में आसमान पर सितारे टांक रहा है हौले हौले...कि तुम्हारे मुस्कराने का उत्सव जो मनाना है अभी.....
-३-
वो मुझसे कहती है कि " तुम पान खाना छोड़ क्यूँ नहीं देते...जानते हो मैं जबाब नहीं दे पाती, जब अम्मा पूछती हैं मेरे ओठों की लाली का सबब.."
मैं सोच में हूँ कि अपने गुलाबी गालों और चमकीली आँखों के लिए क्या जबाब देती होगी वो अम्मा को?
और कुछ पन्ने उसके जाने के बाद:
-४-
कुछ सँवार कर लिखने की आदत ऐसी रही कि हमेशा ही दो कलम लिए घूमता रहा..एक लाल और एक काली...नीली रोशनाई आँख में चुभन देती थी सो कभी न भाई. वर्तमान लिखता तो काली स्याही की कलम से और अतीत की चुभन को लाल स्याही से उकेरता....तन्हा रातों में गुजरता उन पन्नों से ...शब्द शब्द चींटिंयों से रेंगते नज़र आते हैं..काली और लाल चीटियों की कतारें..रेंगती मेरे शरीर पर ..काली एक सिहरन पैदा करती और लाल अपने डंक गड़ाती-काटती..एक खामोश चीख उठती ..जाग जाता हूँ मैं..खिड़की से आती ठंड़ी हवा की छुअन..राहत देती है पसीने से भीगे बैचेन तन को और सोचता हूँ मैं कि आज के लिखे काले हर्फ भी अगर कल लिखूँ तो लाल हो जायेंगे...चुभन है कि मुई जाती नहीं इस जिन्दगी से..बेवजह काले हर्फों को सजाकर खुश हुआ जाता हूँ मैं..न जाने क्या सोचकर बिखरा देता हूँ काली स्याही की दवात डायरी के एक कोरे पन्ने पर...यही तो है मेरी डायरी के उस काले पन्ने का सबब और मेरी लाल कलम की कहानी...तुम आ जाओ तो फिर लिखूँ एक ऐसी नई कहानी-आसमानी रोशनाई से...कि भरमा के चाँद उतर आयेगा पाने पर मेरे...
-५-
कैसे भूलूँ तुम्हारा मेरे सीने पर कान लगा कर घंटो मेरी धड़कने सुनना...कुछ पूछता तो तुम होठों पर ऊँगली रखकर धीरे से चुप रहने का इशारा करती और आँखें बंद किये ही मुस्करा देती...बाद में कहतीं कि कितनी सुन्दर धुन है तुम्हारी धड़कनों की...जी ही नहीं भरता सुनने से...मैं कहता कि मेरी धड़कन कहाँ जो मेरी सीने में धड़कती है..ये तो तुम्हारी अमानत है और मुस्करा देता..तुम शरमा जाती..गाल खिल उठते सुर्ख लाल गुलाब के मानिंद..
-६-
याद करो उस रोज बगिया में ऐसे ही क्षणों में एक भौरें ने तुम्हें गाल पर डंक मार दिया था..और तुम..दर्द की तड़प में ऐसा झपटी उसपर कि बेचारा जान गवाँ बैठा...शायद तुम्हारे गाल को गुलाब समझने की भूल...वो तो मैं अक्सर ही करता हूँ..बस यह कि भौंरा नहीं हूँ..वरना....बस!! तुमने मेरे होठों पर हाथ रख दिया और तुम्हारी आँखों से वो आँसू..कहती कि कभी ऐसी बात जुबां पर मत लाना.....
-७-
रेत पर लेटे बदलते मौसम में तुम अपनी नजरों से उन भागते बादलों संग न जाने कितनी देर खेला करती. फिर एकाएक तुमने मुझे दिखाया था वह विचित्र आकृति वाला बादल- कछुआ बादल कह कर तुम हंस पड़ी थी और न जाने क्या सोच संजीदा हो उठी..कहा था तुमने कि काश!! हमारी जिन्दगी भी कछुआ बादल हो जाये. वक्त है कि थमता नहीं..और बदल जाता है मौसम शनैः शनैः...तुम भी पास नही...दिखता है मुझे भी अब अक्सर एक बादल- आठ पांव वाला..क्या कहूँ उसे-ऑक्टोपस बादल..एक जकड़न का अहसास होता है मुझे और कोशिश कहीं दूर भाग जाने की...
-८-
तरसती रात की खामोशी घेरकर आगोश में तुमको करेगी जिस वक्त मजबूर इतना कि तुम बेबस और निढाल हो, कर बैठो आत्म समर्पण..और भूल जाओ मुझे.... याद रखना ठीक उस वक्त कोई दीवाना फना होगा झुलसते सूरज की तपिश में सात समुन्दर पार यहाँ...
वक्त की गुल्लक में
यादों के कुछ हसीन लम्हें
जमा किये थे तुम्हारे साथ के..
तुम मिलने आने को हो
तब उसमें से
एक मुस्कान निकाल लाया हूँ..
तुम्हारी अमानत..
तुम पर खर्च करने को..
न जाने फिर इस जनम में,
मुलाकात हो न हो!!!
-समीर लाल ’समीर’
आज मैं फिर से रोई ...बहुत दिन बाद....अचानक रोने का मन हो गया, ऐसा नहीं था .. पर जो एक भारी सा पत्थर रखा था मेरे अन्दर , वो बस आज जैसे संभल नहीं पाया ..सुबह से ही आँख में किरकिरी सी थी...शायद पत्थर पिघलना शुरू हो गया था ..पर मैं ही समझ नहीं पाई.. .. दिन तो जैसे -कैसे गुज़र ही गया ..पर रात घिरते ही जैसे वो बोझ और नहीं उठा सकी और वो एकदम से जैसे किसी बिन बुलाये मेहमान की तरह टपक पड़ा ... बस बह निकला, आँखों के रास्ते ...
पर मैं गलत वक़्त पर रोई ...शाम के वक़्त रोना कोई सही वक़्त तो नहीं है ना...जी हाँ..जब आप चीख कर, चिल्ला कर, जोर से अपने हाथों को पटकते हुए रोना चाहते हैं ..तब हर वक़्त सही वक़्त नहीं होता ....
जब रोई तो लगा कि सब कुछ उलट-पुलट दूं..कुछ तोड़ दूं...कुछ फेंक दूं..कुछ ऐसा कर डालूँ कि जिससे उस पत्थर का छोटा सा भी टुकड़ा मेरे अन्दर बचा न रह जाए...
लेकिन घर में ऐसे ..इस तरीके से रो नहीं सकती..क्यों ???...क्योंकि घर में, घर के लोग हैं जो मुझे रोता नहीं देख सकेंगे ....कम से कम इस तरह तो नहीं ही देख सकते ..और ना ही मैं अपनी सूजी हुई आँखें उनको दिखा पाउंगी....और अब तक के अनुभव से कह सकती हूँ कि रोने के लिए घर बिलकुल ही गैर-मुनासिब जगह है..पर अब तक मुझे दुनिया का ऐसा कोई कोना नहीं मिला है..जहां मैं रोऊँ.. चिल्लाऊं ..तो कोई मुझे ना देखे..ना सुने ...ना आकर पूछे कि क्यों ?..क्या..?...किसलिए ??....ना कहे कि अब बस..बहुत हुआ...बस होने दो ..जो हो रहा है...
पर दुनिया में ऐसा एक कोना ढूंढना बड़ा मुश्किल है..बहुत कोशिशें कीं ...कि इस पत्थर के पिघलने के लिए कोई महफूज़..दूर..अकेली जगह मिल जाए..कोई ऐसा ज़मीन का टुकड़ा , आसमान का हिस्सा, क्षितिज का नज़ारा ..जहां बस मेरे भर खड़े रहने या बैठने की जगह हो....पर बताया ना ये बहुत मुश्किल है.. ..
कोई कह सकता है कि जाओ....अपने दोस्तों के पास जाओ...वहाँ रोओ..वहाँ कोई सवाल या जवाब न होगा.पर मैं कहती हूँ ये भी कोई तरीका नहीं ..जिन पत्थरों का बोझ हमसे खुद तो संभल नहीं रहा, उसे दूसरों पर भला क्यों लादा जाये....और फिर क्यों बेकार किसी की सहानुभूति के लफ्ज़ सुने जाएँ जो अक्सर उम्मीदों, तसल्ली और स्नेह के आवरण में लिपटे होते हैं..
इसलिए बहुत अरसे से मैंने एक ख़ास, बहुत बढ़िया और कारगर तरीका रोने के लिए ढूंढ निकाला है..मैं रोती हूँ ..पर बेआवाज़....इतनी ख़ामोशी से कि कभी-२ तो रो लेने के थोड़ी देर बाद मुझे खुद भी याद नहीं रहता कि अभी थोड़ी देर पहले मेरी आँखें गीली थीं ...कि मेरी आवाज़ गले में ही अटक गई थी...कि कुछ देर के लिए मैं खुद में ही खो गई थी..
पर मैंने कहा ना कि ये बढ़िया तरीका... हमेशा ही काम करे ऐसा कोई ज़रूरी नहीं..कभी कभी आप जोर से चीखना चाहते हैं ..पर हम है पढ़े-लिखे , समझदार, अक्लमंद , सभ्य किस्म के लोग....ऐसे कैसे गंवारों कि तरह गला फाड़ कर रो सकते हैं. ...आखिर कुछ तो फर्क है ही....उनमे और हममें ...
और इसलिए मैं तो उस दिन भी खुल कर नहीं रो पायी जिस दिन मेरे लिए सचमुच आसमान ही टूटा था....कम से कम उस वक़्त मुझे तो ऐसा ही लगा था..हाँ ये और बात है कि कहने वाले कहेंगे... कि ...ups and down ...raise and fall ...let down ...let go ....तो जब उस वक़्त गले से आवाज़ ना निकली... तो अब ही ऐसा कौनसा आसमान सर पर आ पड़ा है..कि एक अकेला कोना ढूंढ निकालने के लिए सड़क पर मुंह उठाये , जिस दिशा में समझ आये..उस तरफ चल दें हम..
नहीं आसमान नहीं टूटा है...कोई धरती भी नहीं फटी है ना कोई बिजली ही गिरी है....ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है..बस एक पत्थर है..जो पिघल कर निकलना चाहता है...पर उसे रास्ता नहीं मिल रहा...इसलिए...इसलिए ....धरती के एक कोने की तलाश है....उस कोने में चाहे आसमान में बादल ना हो ....चाहे उस धरती के टुकड़े पर हरी घास ना हो...पर हो एक टुकड़ा ज़मीन, कहीं......मिले किसी को तो बताइयेगा..या आपको पहले ही मिल चुका हो तो भी बताइयेगा..
भावना लालवानी
सफ़र में होंगे कांटें भी
मगर
खबर न थी
के चुभेंगे इस कदर
कि तय न हो सकेंगी
ये लम्बी दूरियां कभी.....
(या कौन जाने ,कोई चुनता रहा हो कांटे मेरी राह के अब तक.... पैरों तले मखमली एहसास यूँ ही तो नहीं था अब तक.......
यकायक मंजिल दूर चली गयी हो जैसे....)
अनु..अनुलता राज नायर.
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी समय, इसी जगह.....तबतक शुभ विदा ।
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जवाब देंहटाएंनि:शब्द हूँ......डायरी के पन्ने दिल में उतर गए...बहोत सुन्दर लिंक्स.... हमेशा कि तरह
जवाब देंहटाएंडायरी के पन्नों मे ही तो हकीकतों से लिबास उतरा करते हैं ।
जवाब देंहटाएंकितने करीब होते हैं डायरी के पन्ने.....यादों को सहेजे जो रहते हैं सदा के लिए...
जवाब देंहटाएंहमारा पन्ना यहाँ शेयर करने का शुक्रिया दी
सादर
अनु
वाह ! सभी उम्दा !
जवाब देंहटाएंऔर समीर जी की तो कुछ बात ही अलग है :)
meri post ko shamil karne ke liye dhnaywaad ..diary jaise vishay alag alag mood ki sabhi rachnaayein behad achhi hain.
जवाब देंहटाएंऔर अब तक के अनुभव से कह सकती हूँ कि रोने के लिए घर बिलकुल ही गैर-मुनासिब जगह है..पर अब तक मुझे दुनिया का ऐसा कोई कोना नहीं मिला है..जहां मैं रोऊँ.. चिल्लाऊं ..तो कोई मुझे ना देखे..ना सुने ...ना आकर पूछे कि क्यों ?..क्या..?...किसलिए ??....ना कहे कि अब बस..बहुत हुआ...बस होने दो ..जो हो रहा है...
जवाब देंहटाएं!!
भावना जी और अनु जी को पढ़कर बहुत अच्छा लगा.खुद को तो पहले भी कभी नहीं पढ़ा :)
जवाब देंहटाएंआभार!!
sunder prastuti diary ki
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