तुम अच्छे हो या बुरे
तेजस्वी हो यशस्वी हो
होड़ में सबसे आगे हो
… पूरी किताब का परिचय कोई नहीं पढ़ता
पर यदि तुम्हारा नाम जेहन में,मस्तिष्क में,जुबां पर है
तुम याद हो
राम,रावण
कृष्ण,कंस
कर्ण,अर्जुन
गांधी,गोडसे .... किसी भी अच्छे,बुरे नाम से
तो तुम्हारा परिचय है
परोक्ष विशेषताओं के साथ
अन्यथा पन्ने भरने से कुछ नहीं होता
कुछ भी नहीं !
मिलते हैं उन नामों से - जिनको जानने के लिए पन्नों की ज़रूरत नहीं,पन्ने तो भरते ही जाएँगे साल दर साल, न भी भरें तो ये हैं
क्योंकि,
आप सभी किसी न किसी क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं, बस आपको इसकी पड़ताल ही नहीं है। आप अपने परिवार को गौर से देखिए, उसका अध्ययन कीजिए तब आपको पता लगेगा कि आपके परिवार में प्रत्येक व्यक्ति अपनी विधा का माहिर है। इसी प्रकार प्रत्येक परिवार में न जाने कितने विशेषज्ञ रहते हैं, बस हमारी दृष्टि ही उनतक नहीं पहुंचती है। एक विद्वान ने बताया कि प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के 10 नम्बर होते हैं, ये नम्बर सभी में समान होते हैं, ना किसी में कम और ना किसी में ज्यादा। बस हमारा आकलन ही हमें इन नम्बरों रूपी विशेषताओं तक नहीं ले जाता। सभी की अपनी रुचियां होती हैं, कोई अध्ययनशील तो कोई व्यापारी, कोई पाकशास्त्री तो कोई अतिथिसेवी, कोई परामर्शदाता तो कोई व्यवहारकुशल। कोई बुजुर्गों की सेवा में माहिर तो कोई बच्चों को साधने में माहिर, कोई खिलाड़ी तो कोई हुनरबाज। ऐसे ही अनेकानेक गुण हम सब में अन्तर्निहीत हैं बस हमें ही उसका पता नहीं है। जब भी परिवार में सामाजिक कार्य आयोजित होते हैं तब व्यक्ति की पहचान होती है। इसी प्रकार अपने कार्यस्थल पर भी विभिन्न आयोजनों के माध्यम से ही व्यक्ति की योग्यता की पहचान की जाती है।
परिवार में विवाह समारोह है, आप जब नेगचार की बात सोचते हैं तब अचानक ही आपको बुआ याद आ जाती है, सभी कहने लगते हैं कि बुआजी को पहले ही बुलालो, उनके बिना तो कुछ हो नहीं सकेगा। समधियों से सम्मानजनक वार्तालाप के लिए आपको घर का कोई बड़ा भाई या ताऊजी याद आ जाते हैं। भोजन की व्यवस्था देखने के लिए भी कोई विशिष्ट व्यक्ति का स्मरण होता है। लेनदेन का परामर्श देने के लिए फला व्यक्ति ठीक रहेगा, मन में निश्चित कर लेते हैं। ऐसे ही मेंहदी लगाने से लेकर गीत गाने तक और वस्त्र से लेकर आभूषणों का चयन करने में भी आपको विशेषज्ञ व्यक्ति दिखायी दे ही जाता है। समारोह सम्पन्न होने के बाद अक्सर लोग कहते हुए दिखायी भी दे जाते हैं कि मेरे बिना तो उनका फला काम होता ही नहीं। बस उनके नाम की धाक जम जाती है और वे उसी काम के विशेषज्ञ बनकर समाज और परिवार में पहचाने जाते हैं। आप सही सोच रहे हैं, कई निठल्ले भी होते हैं, वे बस गप मारने के ही काम आते हैं, लेकिन यह भी आवश्यक है। कई झगड़ेबाज होते हैं, कभी-कभी ये भी आड़े वक्त में काम आ जाते हैं। अब आप कल्पना कीजिए कि किसी परिवार में विशेषज्ञों की भूमिका को बदल दिया जाए तो क्या होगा! पाकशास्त्री को यदि अन्य कार्य सौंप दिया जाएगा तब शायद वह उस कार्य को इतनी दक्षता के साथ नहीं कर सके और क्या होगा? लोग कहेंगे कि यह व्यक्ति योग्य नहीं है। ऐसे ही किसी अन्य को पाकशास्त्री बना दिया जाए तो लोग कहेंगे कि इसे कुछ नहीं आता। इसलिए हम सब की प्रवीणता भी इसी में हैं कि हम योग्य वयक्तियों की पहचान करें।
ऐसी ही सम्भावनाएं शिक्षा और रोजगार चयन में होती है। शिक्षा का चयन कैसे करें, इसके लिए माता-पिता और गुरु को किशोरों को मार्गदर्शन देना चाहिए। वर्तमान में शायद ही कोई ऐसे माता-पिता हों जो संतान की रुचि और उसके गुण को देखकर उसकी शिक्षा का चयन करते हों, सभी समाज में प्रतिष्ठा के विषयों का ही चयन करते दिखायी देते हैं। जब किसी विद्यार्थी के विज्ञान में नम्बर कम आते हैं तब हम उसे कमजोर कह देते हैं, उसे हीनबोध का शिकार बना देते हैं। लेकिन वो ही विद्यार्थी यदि अन्य विषय जो उसकी रुचि का है ले लेता है तब उसमें वह कीर्तिमान स्थापित करता है तब हम कहते हैं कि बड़ा होशियार है। इसलिए योग्यता और अयोग्यता का आकलन विषयवार शिक्षा से नहीं होता है। हमें बचपन से ही अपनी संतान का अध्ययन करना चाहिए और निश्चित करना चाहिए कि इसकी रुचि क्या है, इसमें क्या गुण निहीत हैं। आप द्वारा थोपी गयी शिक्षा व्यक्ति को असफल बना देती है और फिर वह हीनबोध का शिकार बन जाता है। कभी-कभी मानसिक रोगी तक बन जाता है। इसलिए शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो उसके गुणों का विस्तार करे और उसे परिष्कृत कर सके। इसी प्रकार रोजगार तलाशते समय भी हमें सावधानी बरतनी चाहिए। आप किस वातावरण में अधिक आरामदायक अनुभव करते हैं वैसा ही वातावरण तलाशना चाहिए। विपरीत वातावरण क्लेश का ही कारण बनते हैं। कुछ लोग सरकारी नौकरी में खुश रहते हैं तो कुछ प्राइवेट क्षेत्र में। कुछ बड़े कार्यक्षेत्र में खुश हैं तो कुछ छोटे कार्यक्षेत्र में। कुछ एक ही जगह बैठकर कार्य करना पसन्द करते हैं तो कुछ भ्रमण करना पसन्द करते हैं। ऐसे ही अनेक प्रकार हैं जब हम अपने मन की गति को ढूंढ सकते हैं। हमारे यहाँ तो अध्यात्म का मूल ही है कि स्वयं को खोजो। और यह स्वयं की खोज बचपन से ही प्रारम्भ हो जानी चाहिए। जब हम अपनी योग्यताओं को खोज लेते हैं तब अपने लिए सफलता का मार्ग भी तलाश लेते हैं। इसलिए सभी व्यक्ति योग्य हैं बस उन्हें उनकी योग्यता का कार्य करने दीजिए। कोई नेतृत्व करता है तो कोई कार्यकर्ता के रूप में कार्य कर सकता है, अब इन दोनों को उलट दीजिए। क्या होगा? इसलिए बस तलाशिए सम्भावनाएं, जो आपके अन्दर हैं और आपके बच्चों में हैं। उनपर अपना दृष्टिकोण मत थोपिए की यह तो ऐसा ही है। इसलिए आप भी विशेष हैं और किसी न किसी क्षेत्र में विशेषज्ञ हैं, बस आपने कभी स्वयं को खोजा ही नहीं।
अजित गुप्ता:
प्रकाशित पुस्तकें - शब्द जो मकरंद बने, सांझ की झंकार (कविता संग्रह), अहम् से वयम् तक (निबन्ध संग्रह) सैलाबी तटबन्ध (उपन्यास), अरण्य में सूरज (उपन्यास) हम गुलेलची (व्यंग्य संग्रह), बौर तो आए (निबन्ध संग्रह), सोने का पिंजर---अमेरिका और मैं (संस्मरणात्मक यात्रा वृतान्त), प्रेम का पाठ (लघु कथा संग्रह) आदि।
सचिन - छोटे कद के महान खिलाड़ी के विदाई की घोषणा
संभवत: भारत के खेल इतिहास में किसी खिलाड़ी के सन्यास को लेकर इतनी अटकलें और बहसें नहीं हुई होंगी जितनी पिछले दिनों सचिन के क्रिकेट से सन्यास को लेकर हुईं. लंबे समय से इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया के लिए खेल जगत की शायद यही सबसे बड़ी और सबसे तेज़ दिखायी जाने वाली ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ बची रह गयी थी. आखिरकार दस अक्तूबर को सचिन ने सारी अटकलों को तोड़ते हुए वेस्टइंडिज के खिलाफ़ उनके द्वारा खेले जाने वाले दोसौवें टेस्ट के बाद क्रिकेट को अलविदा कहने की घोषणा कर दी.
चौबीस सालों के लंबे क्रिकेट कैरियर में सचिन ने क्रिकेट को जिस तहर जिया वह खेलों में एक अद्भुत और गैर-मामूली मिसाल है. भारत के क्रिकेट इतिहास में बल्कि सभी तरह के खेलों के भारतीय इतिहास पर नज़र डालें तो मिल्खा सिंह, कपिलदेव और सचिन जैसे बहुत कम खिलाड़ी याद आएंगे जिनकी जिन्दगी खेल साधना का आईना बन गई हो.
सचिन की जी तोड़ मेहनत, लगन और खेलते रहने की दीवानगी के हद तक की भूख ने उन्हें खेल के भगवान का दर्जा दिलाया जो संभवत: किसी भी खिलाड़ी के लिए किसी भी हासिल ईनाम से बड़ी उपलब्धि है.
सचिन सन् 1989 मे भारतीय टीम में चुने गये. यह दशक भारतीय क्रिकेट के ‘रि-स्ट्रक्चरिंग’ का दौर था. प्रसन्ना, बेदी, करसन घावरी, रोजर बिन्नी, मदनलाल, दिलीप दोषी, वेंकट राघवन जैसे गेंदबाजों के बाद कपिलदेव को छोड़कर कोई अन्य विकेटलेवा और घातक गेंदबाज टीम में नहीं था. चेतन शर्मा, मनोज प्रभाकर तथा बाद में श्रीनाथ और वेंकटेश प्रसाद जैसे गेंदबाज कुछ सालों के लिए अवश्य टीम को सहारा देते रहे पर ये सभी उस तरह घातक और आतंकित करने वाले नहीं रहे जैसे पाकिस्तान के इमरान खान, वसीम अकरम, वक़ार युनूस, अब्दुल क़ादिर, आक़िब जावेद, आस्ट्रेलिया के क्रेग मेकडरमट, ब्रूस रीड, ग्लेन मेकग्राथ, शेन वार्न, ब्रेट ली, वेस्ट इंडिज के कर्टनी वाल्श, ऐम्ब्रूस, पैट्रीक पीटरसन, इयान बिशप, साउथ अफ्रिका के एलन डोनाल्ड, शॉन पोलाक, डेल स्टेन, इंग्लैण्ड के क्रिस लिविस, डेरन गाफ, क्रेग व्हाइट, अलन मुलाली, डेविड मैलकम, स्टीव हार्मिसन, जेम्स ऐंडरसन, फि्लंटाफ, न्यूज़ीलैण्ड के डैनी मॉरिसन, शेन बाण्ड या श्रीलंका के चमिण्डा वास, मुथैया मुरलीधरन आदि रहे.
वास्तव में किसी भी बल्लेबाज को बड़ा और महान बनाने में हमेशा उसके समकालीन अन्य देशों के गेंदबाजों की उपस्थिति, उनके साथ प्रतिस्पर्धा और रस्साकशी बहुत मायने रखती है. अपनी-अपनी टीमों के लिए जी-जीन से सभी खेलते हैं पर जो बड़े खिलाड़ी होते हैं उनके बीच अपने हुनर और कला की एक अलग ही प्रतिस्पर्धा, वार-प्रहार की करारी जुगलबन्दी की बानगी देखने को मिलती है. विव रिचर्ड्स, सुनील गावस्कर, बॉयकाट, ज़हीर अब्बास, गार्डन ग्रिनीज, डेसमेंड हेयन्स, ग्रेग चैपल, एलन बार्डर, ग्राहम गूच आदि कई ऐसे बल्लेबाज हुए हैं जिन्हें अपने समय में दुनिया के बेहतरीन गेंदबाजों के खिलाफ खेलकर इन अद्भुत और यादगार पलों को रचने का मौका मिला. संभवत: इन सबकी ख्याति के पीछे यह भी एक बहुत बड़ा कारण है.
सचिन के पूरे टेस्ट, वन डे कैरियर और इस दौरान भारत की गेंदबाजी की ताक़त देखें तो कोई ऐसा तेज़ गेंदबाज याद नहीं आता जिसका क्रिकेट जगत में आतंक रहा हो. ऐसे में सचिन के लिए यह हमेशा चुनौती रही कि वह पाकिस्तान, इंगलैण्ड, आस्ट्रेलिया और साउथ अफ्रिका की हरी घास से सजी तेज़ पीचों पर दुनिया के इन नामी-गिरामी गेंदबाजों का सामना कर रन बनाए और टीम को जीत दिलाने में योगदान दे. दूसरा, हमारे देश की पीचें तेज गेंदबाजी के लिए बेजान और मुर्दा मानी जाती थी. न तेज पीचें न तेज़ गेंदबाज. बॉलिंग मशीन भी देश में बहुत बाद में आयी. ऐसे में सचिन के पास सिर्फ एक ही मौका होता था टेस्ट या वनडे में सीधे दुनिया की तेज़ और कलात्मक स्पिन गेंदबाजी का सामना. जैसे आग में कूदकर ही आग से लड़ा और बचा जा सकता है, ठीक उसी तरह सचिन के सामने हमेशा हर इनिंग्स में यही स्थिति होती थी. पॉंच फुट पॉंच इंच के इस ‘टेंडलिया’ ने इंगलैण्ड, आस्ट्रेलिया और साउथ अफ्रिका के मैदानों पर तेज़ तर्रार अपनी ओर उठती गेंदों पर जो ‘बैकफुट पंच’ और ‘फ्रण्ट फुट पर कवर ड्राइव’ खेले हैं वे उनकी बेक़रार ऑंखों, मचलते हाथों और बल्ले से गेंद को आक्रामकता व नज़ाकत से मिलाने के अटूट हौसले का कमाल है. विवियन रिचर्डस की हर देश, मैदान और गेंदबाज के खिलाफ की गई बेजोड़ और क़रारी कलात्मकता भरी दबंग बल्लेबाजी के बाद केवल सचिन की ही ऐसी बल्लेबाजी रही है जो हमें बार-बार देखने पर मजबूर करती है. यदि सचिन के समकालीन कोई इस शोहरत का हिस्सेदार हो सकता है तो वे वेस्टइंडिज के ब्राइन लारा हैं.
खेल और फिल्मों में किसी के आग़ाज का बहुत महत्व है. जिस समय सचिन को मौका मिला उस समय पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया और इंगलैण्ड की टीमें जैसे हमें बोल-बोलकर हराने का दम भरती थीं. और, अक्सर हमारी टीम इनसे जूझकर हार भी जाती थी. शारजाह क्रिकेट का वह दौर शायद हम कभी नहीं भूल सकते. बार-बार हार और मानसिक दबाव के चलते हमेशा खुलकर आक्रामक क्रिकेट खेलना हमारी टीम के लिए संभव नहीं हो पाता था. दबाव में बिखर जाना एक आदत सी बन गयी थी. ऐसे में कपिलदेव द्वारा पाकिस्तान के खिलाफ डबल विकेट कांपिटिशन में अपने साथ सचिन को लेकर खेलना यह सचिन के जीवन का एक अद्भुत और यादगार लम्हा था. सचिन जैसे इसी के लिए बेक़रार थे. 16 साल से कम उम्र में उन्होंने इस कांपिटिशन में जिस तहर अब्दुल क़ादिर को तीन छक्के रसीदकर जीत दिलायी उनके इस कमाल ने पूरे क्रिकेट जगत को हैरान कर रख दिया था. इन छक्कों की गूँज ने पहली बार इमरान खान और उनकी पूरी टीम को सकते में डाल दिया था. फिर क्या था जैसे सचिन को इस जीत के बाद दुनिया के गेंदबाजों को धुनकने का ‘लाइसेंस टू किल’ मिल गया था.
सचिन की बढ़ती शोहरत ने दुनिया की सभी टीमों को उनका तोड़ लाने पर मजबूर कर दिया. पाकिस्तान ने कुटिलता दिखाते हुए शाहिद अफ़रिदी को उनसे कम उम्र का ज्यादा आक्रामक बल्लेबाज और इंजमाम उल हक को उनकी टक्कर का बनाकर उतारा. इधर आस्ट्रेलिया में एलन बार्डर के बाद स्टीव वॉ ने पांटिंग, माइकल बेवन, डरेन लिहमैन को उतारा. इसी तरह ग्लेन मेकग्राथ्, ब्रेट ली, शेन वार्न, सकलेन मुश्ताक, मुरलीधरन तो कई नयी गेंदें सचिन के लिए ईजाद कर लाये तो जवाब में सचिन ने एक नये शार्ट पैडल स्वीप को शेन वार्न और मुथैया मुरलीधरन की स्पिन के साथ और खिलाफ खेलने का हथियार बनाया. शारजाह में आस्ट्रेलिया के खिलाफ धूल भरी ऑधी में लगाये उनके दो शतक, चेन्नई में शेन वार्न के खिलाफ और प्रेमदासा स्टेडियम में मुरलीधरन के खिलाफ खेली गई उनकी पारियॉं हम शायद ही कभी भूल पायेंगे.
सचिन के कैरियर का आधे से ज्यादा समय ऐसा रहा जब भारतीय टीम में विदेशी पिचों पर बैटिंग कर टेस्ट में बीस विकेट लेकर विपक्षी टीमों को हराने की क्षमता नहीं थी. गावस्कर के जाने के बाद सलामी बल्लेबाजी जोड़ी कई सालों तक नहीं बन पायी. तीसरे नंबर पर खेलने वाला कोई टिकाऊ खिलाड़ी नहीं था. मिडिल आर्डर में अज़रूद्दीन ही केवल भरोसेमंद खिलाड़ी थे. कई बार तो ऐसा भी हुआ कि मनोज प्रभाकर और विकेट कीपर नयन मोंगिया को टीम की ओपनिंग करनी पड़ी. श्रीकांत, नवजोत सिंह सिद्धू, विनोद कांबली, अजय जडेजा, रॉबिन सिंह आदि कई बल्लेबाज आए पर वे भी सहारे तक ही सीमित रहे. ओपनर, फास्ट बाउलर और आल राउण्डर हमेशा से हमारे टीम की कमी रही है. ऐसे में सचिन के लिए चुनौती दुगनी कड़ी थी कि अपने साथ-साथ दूसरे बल्लेबाजों से नहीं बने रन भी बनाओ और टीम को जीताओ. सचिन ने अधिकतर अवसरों पर यह कर दिखाया. उनके महान होने का यह दूसरा बड़ा कारण था. इसी एक बड़े कारण से अंदाजन अबसे 8-10 साल पहले तक सचिन के आउट हो जाने के बाद लोग टी वी देखना बंद कर देते थे और विरोधी टीम अधिकतर जीत जाती थी. याद होगा जब सचिन ने अकेले दम पर वसीम अकरम और उनके गेंदबाजों के खिलाफ कलकत्ता टेस्ट मैच को जीत की दहलीज पर ला दिया था. 17 रन बनाने थे और चार विकेट शेष थे. वसीम अकरम और उनकी हार के बीच केवल सचिन खड़े थे. पर वसीम ने अपने करिश्मे से सचिन को आउटकर हमारी टीम को तत्क्षण निपटाया और अपनी हार को जीत में बदल दिया. शायद वसीम के लिए इससे बड़ी जीत उनके पूरे कैरियर में न रही हो. अंदाज लगाया जा सकता है कि सचिन का कितना आतंक दूसरी टीमों पर बन गया था. और ये किसी अजूबे से कम नहीं कि उन्होंने इतने लंबे समय तक किस ध्यान और फोकस से अपनी बल्लेबाजी को बनाये रखा. इन चौबीस सालों में समय ने भी उनकी हर पल परीक्षा ली. कभी उन्हें पंजे की ऊँगलियों में तो कभी टेनिस एल्बो और तो कभी कंधे की चोट ने परेशान कर उनके उत्साह और जज़्बे को तोड़ने की कोशिश की. पर, उनकी घोर साहसी साधना के आगे ये सब टिक नहीं सके.
उनके इसी जुझारूपन और विपत्तियों में कुछ कर दिखाने की क्षमता ने देश और दुनिया को अपना दीवाना बना दिया. क्रिकेट कभी देश में इतने बड़े पैमाने पर आगे नहीं बड़ा जितना सचिन के समय में हुआ है. आज के लगभग सभी बड़े-छोटे खिलाड़ी सचिन को अपना आदर्श मानते हैं. हर छोटे-बड़े की चाहत सचिन बनने की है. अपनी अनवरत साधना से सचिन ने जिस तरह हर क्रिकेट फार्मेट को मिलाकर पचास हजार रनों का अंबार लगाया है वह आने वाले लंबे समय तक ‘अजीत लक्ष्य’ के रूप में बल्लेबाजों के लिए बना रहेगा. उनकी एक और जो खास बात रही है कि उन्होंने कभी शोहरत और ज़बान को अपनी साधना, लक्ष्य और काम के आड़े आने नहीं दिया.
सचिन क्रिकेट की एक महागाथा है जो हर खेल और खिलाड़ी के लिए शास्त्र व शस्त्र दोनों ही हैं. उनकी खेल से विदाई पर यही कहा जा सकता है कि
‘जीत ही उनको मिली जो हार से जमकर लड़े हैं,
हार के डर से डिगे जो, वो धराशायी पड़े हैं,
हर सफलता संकल्प के पद पूजते देखी गयी है
वो किनारे ही बचे जो सिन्धु को बॉंधे खड़े हैं’.
होमनिधि शर्मा
डॉ घनश्याम शर्मा ने एक बार कहा था कि नामवर जी ने कहीं लिखा है कि काम की बात से काम का पता चलता है और गपशप से आदमी का. आइए, एक-दूसरे से गपशप कर एक-दूसरे की समझ बेहतर बनाएं. एक बेहतर परिवार और समाज के निर्माण में. हम सभी अपने-अपने क्षेत्रों में 'काबिल बनें ताकि अपनी जिम्मेदारियों को भली-भॉंती निभा सकें. मतभेद हों परवाह नहीं, मनभेद न हों।
अरुंधति रॉय का 'आहत देश' : प्रचार का विलक्षण गद्य
अरुंधति रॉय (1961) मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में सुपरिचित बागी लेखिका है. उनका लेखन बड़ी सीमा तक व्यवस्था विरोधी ही नहीं प्रचारात्मक भी है. यही कारण है कि ‘आहत देश’(2012) को पढ़ते समय बराबर ऐसा लगता है कि लेखकीय पक्षधरता अपनी सीमाएँ लाँघकर राजनैतिक पक्षधरता अथवा ‘प्रोपेगंडा’ में तब्दील हो गई है. इसमें संदेह नहीं कि अरुंधति रॉय की तर्कप्रणाली विलक्षण है. और उनके गद्य में सम्मोहन है जिसे नीलाभ ने बखूबी हिंदी में उतारने (अनुवाद) में कोई चूक नहीं की है. अत्यंत सक्षम और सफल अनुवाद.
इसमें संदेह नहीं कि भूमंडलीकरण (भूमंडीकरण) और असंतुलित विकास की झोंक में भारत की संघ और राज्य सरकारों ने पूंजीपतियों, औद्योगिक घरानों और आपराधिक शक्तियों के साथ हाथ मिलाकर प्रकृति और पर्यावरण का जिस तरह दोहन किया है और आदिवासी जनजातियों को उजाड़कर मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर अव्यवस्था का जो तांडव चलाया हुआ है वह किसी भी प्रकार प्रशंसनीय और स्वीकार्य नहीं है. विस्थापित हो चुके या होने जा रहे आदिवासियों का अपना घर यानी जल, जंगल और जमीन जब उनके हाथ से जा रहा हो तो उनका आवाज उठाना न्यायसंगत है. और किसी भी संवेदनशील कलमकार को उनके पक्ष में खडा होना ही चाहिए. इस दृष्टि से यदि अरुंधति रॉय वंचितों-शोषितों के साथ खड़ी दिखाई दें तो अनौचित्य नहीं.
लेकिन समस्या यह है कि राजनैतिक प्रतिबद्धता के चलते यदि कोई साहित्यकार जन प्रतिबद्धता और पार्टी प्रतिबद्धता को एक करके देखे तथा देश की व्यवस्था के लिए खतरा बन चुकी शक्तियों के साथ सहानुभूति ही न रखे बल्कि उनके साथ एकजुट दिखे तो कहना होगा कि राष्ट्रीय संदर्भ में उस साहित्यकार की प्राथमिकता का चयन अनौचित्यपूर्ण है. यही कारण है कि ऐसा साहित्य साहित्य कम और हिंसा की राजनीति करने वालों का प्रचार अधिक लगता है. ‘आहत देश’ (Broken Republic : Three Essays) का किस्सा भी यही है.
इस पुस्तक में तीन लंबे निबंध हैं जो मूलतः एक अंग्रेज़ी पत्रिका के लिए लिखे गए थे. पहले निबंध में लेखिका ने चिदंबरम जी की खबर ली है. और ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ के नाम पर माओवादी कहकर आदिवासियों के सफाये के सरकारी षड्यंत्र का पर्दाफाश किया है. अभिप्राय यह है कि लेखिका यह प्रतिपादित करती हैं कि सरकार विधिवत आदिवासी माओवादी लोगों के खिलाफ सुनियोजित युद्ध चला रही है अतः उन्हें भी आत्मरक्षा के लिए युद्ध का अधिकार है. लेकिन वे आदिवासियों की आड़ में आतंकवादी संगठनों की जनविरोधी और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के बारे में कुछ नहीं कहतीं, न ही यह बतातीं कि इन संगठनों के तार कहाँ कहाँ से जुड़े हैं. एक अन्य (तीसरे) निबंध में चेरुकूरि राजकुमार उर्फ कॉमरेड आजाद की आदिलाबाद के जंगलों में आंध्रप्रदेश राज्य पुलिस द्वारा ह्त्या से जुड़े तथ्यों का विवेचन किया गया है.
परंतु इस पुस्तक का सबसे रोचक और रोमांचक हिस्सा/ किस्सा इसका मध्य भाग है. इस निबंध का शीर्षक है ‘भूमकाल–कॉमरेडों के साथ’, जिसमें भारत की आतंरिक सुरक्षा के लिए अकेला सबसे बड़ा खतरा माने जाने वाले माओवादी संगठन के लेखिका के दौरे का संस्मरण और रिपोर्ताज की शैली में सचित्र वर्णन है. माओवादियों के असुविधापूर्ण और कष्टों भरे जीवन को देखकर लेखिका ने उनकी जिजीविषा को पहचाना है. और माना है कि ये लोग अपने सपनों के साथ जीते हैं, जबकि बाकी दुनिया अपने दुस्वप्नों के साथ जीती है.
राजनीति अपनी जगह और जल-जंगल-ज़मीन-जीवन की चिंता अपनी जगह. यानी अरुंधति रॉय को न तो पूरा स्वीकार किया जा सकता है और न पूरा खारिज. उनकी चिंताएँ उत्तरआधुनिक जगत की वे चिंताएँ हैं जो धरती के अस्तित्व से जुड़ी हैं. उनकी व्याख्याएँ उनकी अपनी है जिनसे सहमत होना जरूरी नहीं.
*आहत देश,
अरुंधति रॉय,
अनुवाद – नीलाभ,
2012,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
पृष्ठ – 183,
मूल्य – रु. 400/-
ऋषभ देव शर्मा
कवि. समीक्षक और गद्यकार.
राष्ट्रभाषा-संपर्कभाषा-राजभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित. आक्रोश,व्यंग्य एवं प्रतिरोध प्रधान काव्यांदोलन 'तेवरी' के एक प्रवर्तक और आधिकारिक घोषणाकार के रूप में चर्चित. विभिन्न विश्वविद्यालयों और संस्थानों के भाषा, साहित्य और मीडिया संबंधी पाठ्यक्रमों से लेखक, संपादक और विशेषज्ञ के रूप में संबद्ध.प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद - 500 004.
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही .....मिलती हूँ कल फिर इसी समय परिकल्पना पर कुछ वक़्त के हस्ताक्षरों के साथ....तबतक के लिए शुभ विदा।
ये बात बहुत पसंद आयी कि सभी का वक्तित्व किसी एक विधा में तो माहिर होता ही है ...उसे परखने के लिए पारखी निगाहें चाहिए ...बस .
जवाब देंहटाएंकोई भी व्यक्ति के महान बनने की कहानी में हर पग पर बहुत लोगों का योगदान होता है .सचिन भी इससे अछूते नहीं हैं .
अरुंधति बहुत ही विवादास्पद लेखिका रही हैं .....उनके ख्यालों को पुरी तरह से स्वीकार करना सम्भव नहीं जान पड़ता .
बहुत पसंद आई
जवाब देंहटाएंकुछ अलग !
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