यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,
यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,
मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा !
शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,
प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है ! ........ महादेवी वर्मा
उपर्युक्त काव्य अंश एक यज्ञ बोल से कम नहीं इसके साथ एक विशेष उत्सवी आरम्भ
मूर्खता जन्मजात नहीं होती
नवजात शिशु भी कहाँ होता है मूर्ख
चीख कर दे देता है अपने आगमन की सूचना
माँ की गोद में ढूंढ लेता है
अपनी भूख -प्यास का इंतजाम ...
मचलता है ,जमा देता है लातें भी
बात पसंद ना आने पर!
प्रतिक्रियाएं बता देती हैं मन के भाव
अच्छा- बुरा कुछ नहीं छिपाता...
हंसने की बात पर हँसता है दिल खोल कर
रोने की बात पर रोता ही है
बुरा मानने की बात पर बुरा ही मान लेता है
ज़ाहिर कर देता है अपने भय भी उसी समान ...
बढती उम्र चढ़ा देती है परतें
और बदलती जाती हैं उसकी प्रतिक्रियाएं...
हंसने की बात पर डर जाना
रोने की बात पर हँस देना
डरने की बात पर हँसना ...
समझदार होने के क्रम में
प्रतिदिन मूर्खता की ओर बढ़ता है !
दरअसल
लोग मूर्ख नहीं होते
मूर्ख बन जाते है
मूर्ख बना दिए जाते हैं
या फिर
छलना छलनी ना कर दे
सिर्फ इसलिए ही
मूर्ख बने रहना चाह्ते हैं !
वाणी गीत
आगोश में निशा के करवटें बदलता रहता है सवेरा
लिपटकर उसकी संचेतना में बिखेरता है वह प्रांजल प्रभा…
संभोग समाधि का है यह या अवसर गहण घृणा का
फिर-भी तरल रुप व्यक्त श्रृंगार, उद्भव है यह अमृत का…
उत्साह मदिले प्रेम का…
जागते सवेरे में समाधि…
अवशेष मुखरित व्यंग…
या व्यंग इस रचना का…
शायद मेरे अंतर्तम चेतना का गहरा अंधकार
जो अव्यक्त सागर की गर्जना का उत्थान है…
सालों से इतिहास बना वो कटा-फटा चेहरा
दिवालों की पोरों में थी उसके सुगंधी की तलाश
प्रकृति के संयोग में आप ही योग बन जाने की पुकार…
विस्तृत संभव यथा में लगातार संघर्ष कर पाने का यत्न
किसके लिए… उस एक संभव रुप लावण्य की प्रतीक्षा…
सारा दिवस बस भावनाओं की सिलवटों में बदल ले गई
आराम की एक शांत संभावना…
शायद इस कायनात में रंजित नगमों की वर्षा में सिसकियों
की अभिलाषा ही टिक सकी हैं…
आज इस निष्कर्ष पर जाकर ठहर गया है मन
ना अब किसी की प्रतीक्षा ना किसी की अराधना
खोल दृष्टि पार देख गगन के वहाँ कोई नहीं है
किसी के पीछे…
वहाँ उन्मुक्त सिर्फ मैं हूँ…"मैं"
खोकर एक संभावना आगई देखो कितनी संभावना…
मधुर प्रीत का सत्य संकरे मार्ग से होकर मुक्ति में समा गया…
नजरे उठकर जाते देख तो रही हैं उस उर्जा को पर
अब चाहता नहीं की वो वापस उतर आये मेरे अंतर्तम में…।
DIVINE INDIA
सड़क के किनारे पड़ा हुआ
यह जो धूल में लथ पथ
काला नंगा आदमी है
जिस के होंठों से गाढ़ी लाल धारी बह रही है
इस आदमी को बचाओ !
हो गई होगी कोई बदतमीज़ी
गुस्सा आया होगा और गाली दी होगी इस ने
भूख लगी होगी और माँगी होगी रोटी इस ने
मन की कोई बात न कह पा कर
थोड़ी सी पी ली होगी इस ने
दो घड़ी नाच गा लिया होगा खुश हो कर
और बेसुध सोता रहा होगा थक जाने पर
इस आदमी की यादों में पसीने की बूँदें हैं
इस आदमी के खाबों मे मिट्टी के ढेले हैं
इस आदमी की आँखों में तैरती है दहशत की कथाएं
यह आदमी अभी ज़िन्दा है
इस आदमी को बचाओ !
इस आदमी को बचाओ
कि इस आदमी में इस धूसर धरती का
आखिरी हरा है
इस आदमी को बचाओ
कि इस आदमी मे हारे हुए आदमी का
आखिरी सपना है
कि यही है वह आखिरी आदमी जिस पर
छल और फरेब का
कोई रंग नहीं चढ़ा है
देखो, इस आदमी की
कनपटियों के पास एक नस बहुत तेज़ी से फड़क रही है
पसलियाँ भले चटक गई हों
उन के पीछे एक दिल अभी भी बड़े ईमान से धड़क रहा है
गौर से देखो,
अपनी उँगलियों पर महसूस करो
उस की साँसों की मद्धम गरमाहट
करीब जा कर देखो
चमकीली सड़क के किनारे फैंक दिए गए
तुम्हारी सभ्यता के मलबे में धराशायी
इस अकेले डरे हुए आदमी को
कि कंधे भले उखड़ गए हों
बाँहें हो चुकी हों नाकारा
बेतरह कुचल दिए गए हों इस के पैर
तुम अपने हाथों से टटोलो
कि इस आदमी की रीढ़ अभी भी पुख्ता है
यह आदमी अभी भी ज़िन्दा है
इस आदमी को बचाओ !
इस आदमी को बचाओ !!
अजेय
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी समय परिकल्पना पर फिर एक नई प्रस्तुति के साथ ....तबतक के लिए शुभ विदा।
शब्द यज्ञ में एक आहुति स्वीकारने के लिए बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचनाएं चुनी हैं .....
जवाब देंहटाएंsundar
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचनाएँ |
जवाब देंहटाएंवाह वाह क्या बात है :)
जवाब देंहटाएंचलो इसी बहाने खुशी मिली कभी किसी जमाने में चाहे पालने में ही सही हम भी कभी मूर्ख नहीं रहे होंगे ! :)
nice presentation .
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