वक़्त अपनी गति से चलता है
गुजरता वह नहीं
उसके सामने से - हम गुजर जाते हैं
वक़्त जिम्मेदार होता है जिन आँधियों के लिए
वो आँधियाँ हम खुद लाते हैं
किस्मत वक़्त नहीं बनाता या बदलता है
राह बदलकर वक़्त को दोषी हम बनाते हैं
यूँ तो हम बार बार कहते हैं
'होनी काहू विधि ना टरै'
पर हर होनी के बाद वक़्त से सवाल करते हैं ! …
वक़्त हम पर नहीं हँसता
वक़्त को हास्यास्पद हम बनाते हैं !!!
रश्मि प्रभा
वक्त पर कुछ छोटी कवितायें [कविता]
वक्त-
एक कुली है,
वादों को ढोता है
और
लम्हों की मजूरी लेता है।
वादे अगर बढ जाते हैं
तो थककर बैठ जाता है।
बड़ा ईमानदार है,
फिर मजूरी भी कम लेता है।
और लोग कहते हैं
वक्त गुजरता हीं नहीं।
***
वह बरगद-
जवां था जब,
कई राहगीर थे उसकी छांव में,
वक्त भी वहीं साँस लेता था,
फिर बरगद बूढा हुआ,
राहगीरों ने
उससे उसकी छांव छीन ली,
अब कई घर हैं वहाँ,
वक्त अब उन घरों में जीता है,
सच हीं कहते हैं -
वक्त हमेशा एक-सा नहीं होता।
***
बड़ा जिद्दी था वह,
मुझसे हमेशा
दौड़ में बाजी लगाया करता था,
जानता था कि जीत जाएगा।
पर अब नहीं,
अब वो नजर भी नहीं आता,
क्योंकि
अब मैं जो जिद्दी हो गया हूँ,
न थकने की जिद्द पा ली है मैने।
शायद वक्त था वह,
कब का मुझसे पिछड़ चुका है।
***
कुछ साल पहले,
हम तीन संग थे-
तुम , मैं और वक्त,
फिर तुम कहीं गुम हो गए,
तब से न जाने क्यों
वक्त भी मुझसे रूठ गया है,
सुनो -
तुम बहुत प्यारी थी ना उसको,
शायद तुमसे हीं मानेगा,
उसे बहला-फुसलाकर भेज दो,
और सुनो,उसके लिए-
तुम भी आ जाओ ना।
ये गलत है कि वक़्त गुजर जाता है |
गुजरती तो जिंदगी है
वक़्त तो अरसों से ठहरा है :
दर्द में :
जो तुम्हारे सीने में बीतता है
तुम्हारी तन्हाईयों में संवरता है
तुम्हारी आंखों से झांकता है
तुम्हारे दूसरे घर में,
(जिसे तुम शौक़ से "द अदर होम" कहती हो )
आसमानी सफ़ेद दीवार पे
वाल क्लॉक की तरह ठहरा है |
गुजरती तो जिंदगी है
वक़्त तो अरसों से ठहरा है :
ख़ामोशी में
जिसे मैंने अपने हंसी के पीछे छुपाये रखा है
और तुमने,
तकिये की तरह सीने में लगाये रखा है |
ये गलत है कि वक़्त गुजर जाता है |
ये तो चाँद है
एक टुकड़ा जो तुम्हारी छत से नज़र आता है
और दूसरा
मेरी खिड़कियों के शीशों से उतर कर
टेबल पे बैठ जाता है :कभी कभी तो बदतमीज़ी भी करता है||
ये लफ्ज़ है
तुम्हारे छोटे छोटे किस्सों का
जिसमें हकीकत को रौंद कर इश्क़ जीत जाता है |
ये तो मेरे बालकॉनी का गुलमोहर है
हर सुबह
मेरे दरवाजे को नॉक करता है
फिर एक झटके से
बिना इजाजत अंदर आ जाता है |
मेरे तस्सबुर के कैनवास पे
लकीरों की तरह उतर आता है \
लकीरें बोलती तो नहीं ;
खैर लबों को छू कर चली जाती है ||
वक़्त इन सबों में जीता है
वक़्त इन सबों में बिखरा है
.................
ये गलत है कि वक़्त गुजर जाता है |
गुजरते तो हम हैं
गुजरती तो तुम हो ||
वक़्त
अजीब है तू भी
नरम हाथो से
तूने पकड़ा था हाथ
फिर हथेली पर
अश्क की बूंदें बिखर गई
टूटते खवाबों की
कतरन
ही तो थी, वे बूंदें
जो दिला रही थी याद
हर आँखों में
खवाब प्यारे नहीं लगते !!
है न........
मुकेश कुमार सिन्हा
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