परिकल्पना उत्सव समाप्त हुआ है - परिकल्पना का प्रवाह नहीं 
परिकल्पना एक निर्बाध 
कुछ अल्हड़ 
कुछ सशक्त 
कुछ बिंदास 
कुछ गहन-गंभीर 
धूप-छाँव सी नदी है 
और मैं मछुआरिन :) 
भावनाओं की मछलियाँ मुझसे बच नहीं सकतीं 
तो एक बड़ी टोकरी परिकल्पना के सतह पर टिकाये 
मैं रखती हूँ इन मछलियों को ------- बस आपके लिए  ..... 




दिमाग बंदकर सुनना हमारी राष्ट्रीय आदत है


सोचिए, कितनी अजीब बात है कि हम किसी को सुनने से पहले ही अपनी सहमति-असहमति तय किए रहते हैं। हम किसी को या तो उससे सहमत होने के लिए सुनते हैं या उसे नकारने के लिए। उसकी बातों के तर्क से हमारा कोई वास्ता नहीं होता। हां तय कर लिया तो सामनेवाले की बस उन्हीं बातों को नोटिस करेंगे जो हमारी मान्यता की पुष्टि करती हों और नहीं तय कर लिया तो बस मीनमेख ही निकालेंगे। असल में हम ज्यादातर सुनते नहीं, सुनने का स्वांग भर करते हैं और कहां खूंटा गड़ेगा, इसका फैसला पहले से किए रहते हैं।

घर में यही होता है, बाहर भी यही होता है। हम संस्कृति में यही करते हैं, राजनीति में भी यही करते हैं; और अर्थनीति में तो माने बैठे रहते हैं कि सरकार जो भी कर रही है या आगे करेगी, सब गलत है क्योंकि सब कुछ आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के इशारे पर हो रहा है। यह अलग बात है कि आज आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के सामने खुद को बचाने के लाले पड़े हुए हैं। आईटी सेक्टर में अगर लाखों नौकरियों के अवसर बन रहे हैं तो कहेंगे कि सब बुलबुला है, इसके फटने का इंतज़ार कीजिए। किसी भी नीति को उसकी मेरिट या कमी के आधार पर नहीं परखते। माने बैठे रहते हैं कि हर नीति छलावा है तो मूल्यांकन करने का सवाल ही नहीं उठता। बिना कुछ जाने-समझे फरमान जारी करने के आदी हो गए हैं हम।

प्यार करते हैं तो इसी अदा से कि तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे। किसी को दोस्त बना लिया तो उसके सात खून माफ और जिसको दुश्मन मान लिया, उसमें रत्ती भर भी अच्छाई कभी नज़र नहीं आती। अंदर ही अंदर एक दुनिया बना लेते हैं, फिर उसी में जीते हैं और एक दिन उसी में मर जाते हैं। सबके अपने-अपने खोल हैं, अपने-अपने शून्य हैं। अपने-अपने लोग हैं, अपनी-अपनी खेमेबंदियां हैं। निर्णायक होते हैं हमारे निजी स्वार्थ, हमारी अपनी सामाजिक-आर्थिक-मानसिक सुरक्षा। असहज स्थितियों से भागते हैं, असहज सवालों को फौरन टाल जाते हैं। विरोध को स्वीकारने से डरते हैं हम। ना सुनने की आदत नहीं है हमें।

यही हम भारतीयों का राष्ट्रीय स्वभाव बन गया है। आज से नहीं, बहुत पहले से। बताते हैं कि सन् 1962-63 की बात है। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद आए थे। समाजवादी लेखक और विचारक विजयदेव नारायण शाही ने उनके खिलाफ जुलूस निकाला। नेहरू से मिलने आनंद भवन जा पहुंचे और... नेहरू ने बिना कोई बात किए इस संयत शांत विचारक का कुर्ता गले से पकड़कर नीचे तक फाड़ डाला। नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी अपने विरोधियों से क्या सुलूक करती थीं, इसके लिए किसी दृष्टांत की ज़रूरत नहीं। आज बीजेपी में नरेंद्र मोदी इसी तरह ना नहीं सुनने के लती बन चुके हैं।

लेफ्ट भी अपने आगे किसी की नहीं सुनता। कार्यकर्ता के लिए नेता की बात अकाट्य होती है। दसियों धड़े हैं और सबकी अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग। कितनी अजीब बात है कि जैसे ही कोई मार्क्सवादी पार्टी में दाखिल होता है, बिना किसी जिरह और पुराने दार्शनिक आग्रहों को छोड़े द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का प्रवक्ता बन जाता है। लाल रंग का मुलम्मा चढ़ा नहीं कि वह वैज्ञानिक समाजवादी हो जाता है। फिर वह जो कुछ बोलता है, वही जनता और क्रांति के हित में होता है। बाकी लोग या तो दलाल होते हैं या गद्दार।

यह भी गजब बात है कि जिन लोगों ने बीजेपी में रहते हुए ईसाई धर्म-परिवर्तन के खिलाफ जेहाद छेड़ा था, दंगों में उद्घोष करते हुए मुसलमानों का कत्लेआम किया था, वही लोग कांग्रेस में शामिल होते ही घनघोर सेक्यूलरवादी हो गए, सोनिया गांधी के प्रिय हो गए। कल तक जो घोर ब्राह्मणवादी थे, वही नेता बहनजी के साथ आते ही दलितों के उद्धार की कसमें खाने लगे। हम उछल-उछलकर खेमे बदलते हैं। मुझे लगता है, यह अवसरवाद के साथ-साथ हमारी राष्ट्रीय आदत भी है। अपनी स्थिति को बचाने के लिए तर्क करना या दूसरे की स्थिति को स्वीकार करने के लिए तर्क करना हम एक सिरे से भूल चुके हैं।

इसी तरह की लीपापोती हम अपने घर-परिवार और नौकरी-पेशे में भी करते हैं। या तो हां में हां मिलाते हैं या सिर्फ नकारते रहते हैं। लेकिन इस तरह सामंजस्य और शांति बनाए रखने की कोशिश में हमें जो कुछ भी मिलता है, वह दिखावटी होता है, क्षणिक होता है। पाश के शब्दों में कहूं तो, “शांति मांगने का अर्थ युद्ध को जिल्लत के स्तर पर लड़ना है, शांति कहीं नहीं होती।”



घरवाली को ही नहीं मिलता घर आधी ज़िंदगी


राजा जनक के दरबार में कोई विद्वान पहुंचे, योगी की जीवन-दृष्टि का ज्ञान पाने। जनक ने भरपूर स्वागत करके उन्हें अपने अतिथिगृह में ठहरा दिया और कहा कि रात्रि-भोज आप मेरे साथ ही करेंगे। भोज में नाना प्रकार के व्यंजन परोसे गए, लेकिन विद्वान महोदय के ठीक सिर पर बेहद पतले धागे से लटकती एक धारदार तलवार लटका दी गई, जिसके गिरने से उनकी मृत्यु सुनिश्चित थी। जनक ने भोजन लेकर डकार भरी तो विद्वान महोदय भी उठ खड़े हुए। राजा जनक ने पूछा – कैसा था व्यंजनों का स्वाद। विद्वान हाथ जोड़कर बोले – राजन, क्षमा कीजिएगा। जब लगातार मृत्यु आपके सिर पर लटकी हो तो किसी को व्यंजनों का स्वाद कैसे मालूम पड़ सकता है? महायोगी जनक ने कहा – यही है योगी की जीवन-दृष्टि।

आज भारत में ज्यादातर लड़कियां अपने घर को लेकर ‘योगी की यही जीवन-दृष्टि’ जीने को अभिशप्त हैं। जन्म से ही तय रहता है कि मां-बाप का घर उनका अपना नहीं है। शादी के बाद जहां उनकी डोली जाएगी, वही उनका घर होगा। लड़की सयानी होने पर घर सजाने लगती है तो मां प्यार से ही सही, ताना देती है कि पराया घर क्या सजा रही हो, पति के घर जाना तो अपना घर सजाना। बेटी मायूस हो जाती है और मजबूरन पति और नए घर के सपने संजोने लगती है। मां-बाप विदा करके उसे ससुराल भेजते हैं तो कहा जाता है – बेटी जिस घर में तुम्हारी डोली जा रही है, वहां से अरथी पर ही वापस निकलना।

लड़की ससुराल पहुंचती है, जहां सभी पराए होते हैं। केवल पति ही उसे अपना समझता है, लेकिन वह भी उसे उतना अपना नहीं मानता, जितना अपनी मां, बहनों या घर के बाकी सदस्यों को। भली सास भले ही कहे कि वह उसकी बेटी समान है, लेकिन विवाद की स्थिति में वह हमेशा अपनी असली बेटियों का पक्ष लेती है। जब तक सास-ससुर जिंदा रहते हैं, लड़की ससुराल को पूरी तरह अपना घर नहीं समझ पाती। अगर वह पति को किसी तरह वश में करके अलग घर बसाने को राज़ी कर लेती है तो दुनिया-समाज के लोग कहते हैं कि देखो, कुलच्छिनी ने आते ही घर को तोड़ डाला।

वैसे, पिछले 20-25 सालों में हालात काफी बदल चुके हैं। संयुक्त परिवार का ज़माना कमोबेश जा चुका है और न्यूक्लियर फेमिली अब ज्यादा चलन में हैं। लेकिन पुरुष अभी तक मां के पल्लू में ही शरण लेता है। ज्यादातर मां और घरवालों की ही तरफदारी करता है। लड़की यहां भी एकाकीपन का शिकार हो जाती है। जब तक बच्चे नहीं होते, तब तक पति से होनेवाले झगड़ों के केंद्र में ज्यादातर मां या बहनों की ख्वाहिशें ही होती हैं। बच्चे हो जाते हैं, तब यह स्थिति धीरे-धीरे बदलने लगती है। उसे निक्की-टिंकू की मम्मी कहा जाने लगता है। लेकिन तब तक लड़की की आधी ज़िंदगी बीत चुकी होती है। वह 35-40 साल की हो चुकी होती है।

सब कुछ ठीक रहा तो अब जाकर शुरू होती है अम्मा बन चुकी भारत की आम लड़की की अपने घर के सपने को पाने की मंजिल। कभी-कभी सोचता हूं कि ऐसा अभी कब तक चलता रहेगा क्योंकि विदेशों में तो यह सिलसिला बहुत पहले खत्म हो चुका है। वहां तो लड़की अपने पैरों पर खड़ा होने के पहले ही दिन से अपना घर बनाने लगती है। शादी करती है अपने दम पर और अपनी मर्जी से। पति के साथ घर बनाती है तो हर चीज़ में बराबर की साझीदार होती है। शादी टूटती है तो जाहिर है घर भी टूटता है। लेकिन वह अपने सपने, अपनी चीज़ें लेकर अलग हो जाती है। घर ही नहीं, अकेली माएं बड़े गर्व से अपने बच्चे भी सपनों की तरह पालती है।





अनिल रघुराज 

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