नई पीढ़ी भी पुराने गानों में बँधती हैँ, और तब उनकी पसंद के आगे सोचना होते है क़ि अभी पिक्चर बाकी है .... ठीक उसी तरह एक बार आराम से ब्लॉग के पुराने पोस्ट पढ़िए तो बहुत अच्छा लगता है, और न पढ़ा हो तो उसे पढ़ने का आनंद मिलता है . कुछ पोस्ट पुरानी यादों को ताजा कर जाती हैं, खुद लेखक भी भूल जाता है … तो यह परिकल्पना, और मैं किसलिए हैं यहाँ !
आज इस रंगमंच पर - चलो तुमको लेकर चलें .... रश्मि प्रभा
28 घंटे
मैं ट्रेन में चढ़ा, तुमने मुड़कर पीछे न देखा। एक आस थी कि तुम एक बार मुड़कर देख लेती तो 28 घंटे की यात्रा 28 घंटे की न लगती।
सामान कम लेकर चलता हूँ, उतना कि जितना स्वयं उठा सकूँ। यात्रा के हर सामान पर दो बार सोचने का टैग लगाता हूँ। सामान को अधिक महत्व देता हूँ क्योंकि उठाता स्वयं हूँ। विचारों को महत्व देता हूँ क्योंकि उनका बहकना स्वयं को झेलना पड़ता है। यादें अधिक नहीं सहेजना चाहता हूँ, बहाकर ले जाती हैं भावनाओं के ज्वार में। पैसा कम खर्च करता हूँ, बचाता हूँ भविष्य के लिये, महत्वपूर्ण है। सब कम कर रखा है, सबको महत्व दे रखा है स्वयं से अधिक।
तुम्हारे एक बार मुड़कर देख लेने को भी अपने 28 घंटों से अधिक महत्व दे रखा है। ये 28 घंटे मेरे जीवन से खो गये तुम्हारे एक बार मुड़ कर न देखने से।
रात के दो बजे थे, तुम्हारी आँखों में नींद होगी। मैं फिर भी चाहता था कि तुम एक बार देख लेती। हो सकता है जब तुमने मुड़कर देखा हो मैं सामान लेकर चढ़ रहा था या यह मानकर अन्दर चला गया कि अब तुम नहीं देखोगी। पर तुम्हारी आँखें मेरी ओर उस समय क्यों नहीं घूमी जब मैं चाह रहा था। तुम्हारी ओर देखते हुये तुम्हारे कन्धों को मोड़ना चाह रहा था अपनी ओर। लगता है, मेरी आँखों में अब वह बल नहीं रहा जो खींच ले तुम्हारी दृष्टि, अचानक, बलात, साधिकार।
मुझे व्यग्रता है कि तुम्हारी आँखों ने मेरी आँखों की अवहेलना कर दी।
मेरा प्रेम रोगग्रसित है। पहले तो अवहेलना व अधिकार जैसे शब्द नहीं आते थे हमारे बीच। पर पहले तो तुम्हारी आँखें हमेशा मेरी ओर ही मुड़कर देखती थी और मेरी यात्राओं को यथासम्भव छोटा कर देती थी। आज तुमने अपनी यात्रा छोटी कर ली है। तुम्हे मंजिल पाने की शीघ्रता है। तुम्हारा निर्णय था हवाई यात्रा का। तुम हवाई जहाज की तरह उड़ान भरना चाहती हो, मैं ट्रेन की दो पटरियों के बीच दौड़ता, लगातार, स्टेशन दर स्टेशन। मेरे टिकट पर एक और सीट तुम्हारी राह देखती रही पूरे 28 घंटे।
उत्तरोन्मुख मानसून को चीरती ट्रेन दक्षिण दिशा को भाग रही है। बूँदों के छोटे छोटे तमाचे सहती अपनी गति से बढ़ी जा रही है मेरी ट्रेन। पटरी और बूँदों से ट्रेन के संघर्ष का कोलाहल संभवतः मेरी जीवनी से मिलते जुलते स्वर हैं। तुम्हारा जहाज तो इस मानसून से परे, पवन की गोद में उड़ा जा रहा होगा।
खिड़की पर बूदें उमड़ती हैं, लुप्त हो जाती हैं, विंध्य पर्वत के हरे जंगल पीछे छूट रहे हैं, यात्री उत्साह में बतिया रहे हैं, बगल के केबिन में एक युगल बैठा है। तुम रहती तो दिखाता। तुम नहीं हो पर तुम्हारा मुड़कर न देखना सारे दृश्य रोक कर खड़ा है, हर क्षण इन 28 घंटों में।
बहुत परिचित आये थे स्टेशनों पर मिलने, पूछते थे तुम्हारे बारे में। क्या बताता उन्हें, तुमने तो मुड़कर भी नहीं देखा।
समझाना चाहता हूँ मन को, विषय भी हैं बहुत जो ध्यान दिये जाने की राह तक रहे हैं पर तुमने मुड़कर क्यों नहीं देखा?
सोचा कि पूछ लूँ मोबाइल से पर हमारे नेटवर्क तुम्हारे जहाज की ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाते हैं।
तुम पहले पहुँच गयी होगी। आशा है तुम्हारी आँखें मेरी बाट जोहती होगीं। 28 घंटे जो प्रश्न उमड़ते रहे, संभवतः अपने उत्तर पा सकेंगे। संभवतः मुझे मेरे 28 घंटे वापस मिल जायेंगे।
पिक्चर अभी बाकी है, मेरे दोस्त
मेरे 28 घंटों पर सुधीजनों ने अपना वाणी अमृत बरसा उन्हें पुनः जीवित कर दिया । प्रभात की चैतन्यता, शीतल बयार और आप सभी की टिप्पणी अस्तित्व को भावमयी बना गयी और बह निकली धन्यवाद की धारा ।
टिप्पणियों पर प्रतिटिप्पणी देकर एक पोस्ट बना डालना एक नया प्रयोग हो सकता है पर ऋण उतारना तो मेरी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति थी ।
सारी प्रतिटिप्पणियाँ इस रंग में हैं ।
वाणी गीत ने कहा…
कई बार होता है लम्हे सिमट कर वहीँ रह jaate हैं ...किसी की पीठ पर..
२८ घंटों के सफ़र की दास्तान रोचक रही ...!
चिपक कर पीठ पर लम्हे, तेरे ही साथ जाते हैं,
मिलें जब फिर, समझ आता, कि बीता है समय कितना।
Arvind Mishra ने कहा…
भाव प्रवण प्रवीण कहूं या भाव प्रवीण प्रवीण ---ऐसी संवेदनाएं जीवन के पलों/क्षणों को सार्थक तो बना जाती हैं मगर फिर भी ऐसी गहन संवेदना से " भले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापहि जगत गति ..."
वो शेर कौन था ..किसे याद है ? ...वो जाते जाते तुम्हारा मुड़कर दुबारा देखना ....
याद आया याद आया .....यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उससे मगर जाते जाते उसका वो मुड़कर दुबारा देखना....
गंतव्य एक पंथ अनेक ......क्या फर्क पड़ता है ?
हाँ वे पहले पहुँच कर स्टेशन लेने इर्र्र देखने आयीं या नहीं ?दैहिक सत्यापन करने की जैसा चूडा था वैसा ही पाया :)
अगर नहीं तब तो सचमुच अच्छी बात नहीं ..हम भी कह देते हैं !
कहानी, हम मनाते थे, तनिक सीधी सी बन जाती,
क्या बतायें, अब तलक वह, साँप सी लहरा रही ।
हिमान्शु मोहन ने कहा…
उत्तम! ख़ूबसूरत! गहन!
उत्तम! ख़ूबसूरत! गहन!
किसलिये यह सब सहन,
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…
अरे वाह, आप तो बहुत भावुक निकले...।
दिल की परेशानी यूँ ही नहीं बढ़ती, ये दिमाग अगल दिल से राफ़्ता कायम कर ले तो ऐसी तकलीफ़ें आम हो जाती हैं। थोड़ा बचा कर रखिए जी, और भी ग़म हैं जमाने में...
कहा दिल ने अकड़ कर जब, तुम्हारे साथ रहते हैं,
हमें झुकना पड़ा, हम बुद्धि का अवसान सहते हैं।
Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) ने कहा…
"पर तुम्हारी आँखें मेरी ओर उस समय क्यों नहीं घूमी जब मैं चाह रहा था । तुम्हारी ओर देखते हुये तुम्हारे कन्धों को मोड़ना चाह रहा था अपनी ओर । लगता है, मेरी आँखों में अब वह बल नहीं रहा जो खींच ले तुम्हारी दृष्टि, अचानक, बलात, साधिकार ।"
कभी कभी मन होता है अदर साईड ओफ़ स्टोरी को भी जानने का :) काश वो भी लिखतीं और आपकी इन बेहद खूबसूरत पन्क्तियो के जवाब पढने का मौका मिलता... हो सकता है उन दो घंटो की भी एक कहानी हो या दो मिनट की भी... :)
न मुड़कर देखना उनका, कहानी एक बना लाया,
सुने उनसे कहानी, अब कयामत झेलना है क्या?
मनोज कुमार ने कहा…
.........और प्रवीण जी ... कहा कहूं इस कविता मय गद्य पर ... बस बेहतरीन ! लाजवाब!!
गद्य पद्य के बीच फँसे है, जीवन के अभिचित्रण सब,
जैसे हैं, अब बह जाने दें, था प्रयास, रुक पाये कब।
उन्मुक्त ने कहा…
अरे कौन थी वह उड़नपरी :-) .........
उड़नपरी थी, स्वप्नतरी थी, हरण कर लिये चिन्तन रथ,
कौन कल्पना जी सकती अब, मौन झेलता जीवन पथ।
राम त्यागी ने कहा…
अरे ये क्या हुआ ...भाभी जी का नंबर देना ज़रा :-)
क्या हुआ है, क्यों हुआ है, प्रश्न हैं, उत्तर भी हैं,
इन पहाड़ो की चढ़ाई में कई समतल भी हैं,
बैठ कर सुस्ता रहे हैं, भूलते सब जा रहे हैं,
जानते निष्कर्ष अपना, भाप, हिम हैं, जल भी हैं।
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi ने कहा…
उस का मुड़ कर न देखना, जी का जंजाल हो गया। प्रेम ऐसा ही होता है। उसे हमेशा इकतरफा होना चाहिए, बिना किसी अपेक्षा के।
प्रेम का यह रूप जाना, क्या करें, था समय वह भी,
मन नहीं उन्माद करता, बीत ही जाता सुखद।
dhiru singh {धीरू सिंह} ने कहा…
२८ घंटे का सफ़र रेल से अपने आप मे एक सफर है . और उस पर यह सफर ............
सफर में साथ चलते थे हजारों शख्स अपने से,
हृदय को हर समय छेड़े मगर उनका नहीं आना।
डॉ महेश सिन्हा ने कहा…
जाने कहाँ गए वो दिन, अरे नहीं घंटे
समय, तुम्हारा साथ नहीं जब, वह भी वापस आ जाता,
विरह वेदना, तनिक जोर से मन ही मन में कह देती।
P.N. Subramanian ने कहा…
रोचक.
रोचक अब लगता है, बीते दिन का असली अल्हड़पन,
प्रेम मार्ग की राह अकेली, सभी वहीं से जाते हैं।
अन्तर सोहिल ने कहा…
संवेदनशील गद्य, वाह
क्यों ना आप इसे कविता का रूप दें दें
मजा आ जायेगा.....
बहने दूँगा घाव, बहेंगे, कवितायें बन जायेंगी,
सह लेने की क्षमता अपनी लेकिन उनसे आधी है।
अन्तर सोहिल ने कहा…
मैं भी एक बार किसी के साथ चलने के भरोसे पर आरक्षण करवा कर रेल में बैठा था, मगर दूसरी खाली बर्थ और मेरी टिकट पर दो सीटों के नम्बर मुझे पूरे 12 घंटे मुंह चिढाते रहे।.....
खाली सीटें,साथ बिठाये मैं तुमसे बतियाता था,
पर सब हँस कर मुस्काते हैं, प्रेम न समझें, जाहिल हैं।
शोभना चौरे ने कहा…
मेरा प्रेम रोगग्रसित है । पहले तो अवहेलना व अधिकार जैसे शब्द नहीं आते थे हमारे बीच । पर पहले तो तुम्हारी आँखें हमेशा मेरी ओर ही मुड़कर देखती थी और मेरी यात्राओं को यथासम्भव छोटा कर देती थी ।
परिस्थितिया बहुत कुछ बदल देती है |अकेले मन की यात्रा को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत करती सुन्दर पोस्ट |
मेरा तो मार्ग निश्चित था, अकेली थी मेरी राहें,
सुखद यह वेदना अनुभव न होती, तुम जो ना आती।
ajit gupta ने कहा…
उसने नहीं देखा तो एक नायाब सी पोस्ट बन गयी यदि देख लिया होता तो आम बात हो जाती। लेकिन कभी-कभी अपेक्षित कोई बात नहीं होती तो सारा ध्यान वहीं रहता है और लगता है कि कहीं यह उपेक्षा तो नहीं। बहुत ही अच्छी प्रकार से अपनी बात को आपने कहा है, बधाई।
देख कर वादे हुये, फिर क्यों नहीं देखा ?
मिली होगी खुशी उनको,हमारा तड़पकर जाना।
वन्दना ने कहा…
कभी कभी कुछ लम्हात ज़िन्दगी मे ठहर से जाते हैं एक प्रश्न बनकर और ताउम्र उनके जवाब नही मिलते…………शुरु से आखिर तक बाँधे रखा।
मैं आगे बढ़ नहीं पाया, उसी पल के लिये ठहरा,
हवायें ठुमुक बढ़ जाती तुम्हारी एक नज़रों से।
Divya ने कहा…
28 hours !....lock it and cherish them.
I'm sure she was wishing, that you will call her and ask, and talk and complain..
समय की कैद में अब भी, अकेले छोड़ तुम आयी,
वही लम्हे तड़पते हैं, उन्हें चाभी नहीं मिलती।
Ratan Singh Shekhawat ने कहा…
बेहतरीन लाजवाब.............
हम जबाब एक ढूढ़ रहे हैं, अब सवाल की गलियों में,
एक पहेली बन कर उभरी, जीवन की फरमाईश अब।
राज भाटिय़ा ने कहा…
अरे इतनी भी बेरुखी क्या??? हो सकता है कोई दुर से छुप के देख रहा हो, चलिये वो गीत सुने मन हल्का हो जयेगा.
मै यह सोच कर उस के दर से ऊठा था कि....
घिरे थे स्याह अँधियारे, फ़कत एक रोशनी तुम थीं,
न कहना छिप के देखा था, मेरी नज़रें तुम्ही पर थीं।
चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…
परवीन बाबू! लगता है ई संस्मरन “सखि वे मुझसे कहकर जाते” का पुरुस भाग है..एकदम ओही आनंद...
"पर न जाने बात क्या है", अगर उत्तर ज्ञात होता,
उर्वशी की खोज में यूँ सूत्र न दिनकर पिरोता।
rashmi ravija ने कहा…
"पहले तो तुम्हारी आँखें हमेशा मेरी ओर ही मुड़कर देखती थी और मेरी यात्राओं को यथासम्भव छोटा कर देती थी ।"
और इस 28 घंटे के हर मिनट और हर सेकेंड्स पर भी चस्पां रहीं वे ऑंखें, जिन्होंने मुड कर नहीं देखा....पर ये ख़ूबसूरत पोस्ट लिखवा ली.
सुन्दर लेखन
मेरा लहरों सा बन उठना, लगेगा एक कोलाहल,
मुझे ग़र चाँद संग देखो, तो समझोगे कहानी सब।
राजकुमार सोनी ने कहा…
शायद इसे ही कहते हैं प्रेम का सम्मान.
जब प्रेम ईमानदार होता है तो वह सम्मानित हो ही जाता है.
आपको बधाई.
अपनी आँखों में कितने मैं ख्वाब सजाये बैठा हूँ,
नज़र मिला लो, हैं बहने को सब के सब तैयार खड़े।
बेचैन आत्मा ने कहा…
suna tha ki lohe ka ghar kaljayii rachnayen diya karta hai...aur kya-kya likha..?
तिक्त पराजय, बीत गया जो काल, बहा कविता बनकर,
नहीं पराजय की गाथायें, कालजयी हो पाती हैं।
भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…
क्या कहूं, समझ में नहीं आ रहा..
कहा कुछ नहीं, सहा समय का भार अकेला,
बहुधा मन हो विवश, बहा यूँ करता है।
संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…
आपका यह यात्रा प्रसंग बहुत भाव पूर्ण और संवेदनशील....यात्रा के २८ घंटे इसी उहापोह में गुज़र गए...काश एक बार मुड कर देखा होता..
बहुत प्रवाह मयी
तुम्हारी एक मुस्काहट, मेरे जीवन का खिल जाना,
कृपणता मत सहेजो, है मेरा हथियार पागलपन।
Shiv ने कहा…
बहुत बढ़िया लिखा है आपने. बड़ी कोमल भाषा है.
मनभावों की आवाजाही बिना विशेषण होती है,
कोमल और कठोर हृदय के भारी भारी पत्थर हैं।
डॉ.राधिका उमडे़कर बुधकर ने कहा…
अरे वाह वाह इतनी सुंदर पोस्ट सिर्फ एक मुड के न देखने पर ,वाकई बहुत ही खुबसूरत ,कुछ रचनाये ऐसी होती हैं की जिनकी तारीफ में कहे गए
शब्द भी गुनाह बन जाते हैं ,क्योकि कोई भी शब्द कितनी भी तारीफ़ उनके लिए कम ही पड़ जाती हैं .अप्रतिम रचना
कोई होगी टीस, मेरा क्या गुनाह, मालुम नहीं,
यूँ नज़र का फेर लेना क्या सज़ा काफी नहीं?
निर्मला कपिला ने कहा…
मुझे 28 घन्टे लग गये शायद इस पोस्ट तक आने मे। हा हा हा --दिलचस्प हैं आपकी पोस्ट। शुभकामनायें
मैं हृदय को मना लेता, मानता मेरी वो है,
चोट यह गहरी बहुत है, आज वह माना नहीं।
विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन ने कहा…
इस सरल धवल सौम्य मुस्कान के पीछे इतना प्यारा और सुन्दर दिल भी है, यह तो सभी जान गये है आपके इस ब्लोग से। लेकिन प्यारे भाई, जवाब में लिखे इतने ढेर सारे शेर भी यदि आपके हैं तो आपको ब्लोग से पहले गज़लों की ओर आना चाहिये।
बहरहाल यदि वे पीछे मुडकर देख लेते तो आपके मन मे ये भाव कहां से आते, इसलिये इस पीछे मुडकर न देखने के लिये हम सब उन्हे साधुवाद देते हैं।
न अन्दर रोशनी भेदे, मेरी गहराई इतनी थी,
वहाँ कोई चाँद भी बैठा हुआ था खींचनेवाला।
anitakumar ने कहा…
बेसाख्ता एक ही शब्द निकल रहा है, ' वाह'। उन्हों ने मुड़ कर इसी लिए नहीं देखा कि आप की दृष्टि की ताकत से वाकिफ़ थीं, हठात, बलात रोक लेती उन्हें।
एक कवि ह्र्दय से निकली पोस्ट,
अगर यह जानकर भी, देखता मैं, मुड़ के ना देखा,
मेरे भावों का अंधड़ व्यग्र हो, उसने सहा होगा।
Stuti Pandey ने कहा…
"पर तुम्हारी आँखें मेरी ओर उस समय क्यों नहीं घूमी जब मैं चाह रहा था । तुम्हारी ओर देखते हुये तुम्हारे कन्धों को मोड़ना चाह रहा था अपनी ओर । लगता है, मेरी आँखों में अब वह बल नहीं रहा जो खींच ले तुम्हारी दृष्टि, अचानक, बलात, साधिकार ।"
- कभी कभी सब कुछ जानते हुए भी हम उस सब कुछ से दूर जाना चाहते हैं. खुद को विवश पाते हैं फिर भी खुद को विवश करना चाहते हैं. ये एक दिल ना जाने कितनी तड़प को जन्म दे देता है.
विवशता किन्तु जीवन की, हृदय शैशव रहा अब भी,
समय से रूठकर बैठा हुआ है, नहीं बढ़ता है।
E-Guru Rajeev ने कहा…
विचारों को महत्व देता हूँ क्योंकि उनका बहकना स्वयं को झेलना पड़ता है.
बूंदों के छोटे-छोटे तमाचे....!!
हर वाक्य पर कुछ पल रुका हूँ और आपके जिए पलों को स्वयं भी जिया हूँ.
आप प्रवीण के बजाय राजीव..!!
राजीव, राजीव के बजाय प्रवीण...!!
दोनों एक ही लगने लगे.
उतर आये आप दिल में.
मैं सहता हूँ, मुझे सहना, रहे कहानी यह,
जिसे जब आप चाहें, प्रेमपूरित, मुड़ के वे देखें।
Mrs. Asha Joglekar ने कहा…
आपको मलाल किस बात का ज्यादा था उनके मुड के न देखने का या हवाई यात्रा के निर्णय का । बहर हाल आपके वे 28 घंटे काफी परेशानी भरे थे जो बारिश की छोटी छोटी बूंदे आपको लोहे की भारी भरकम ट्रेन को तमाचे मारती सी लगीं । कहानी दिलचस्प लगी
मुझे उड़ना न आया था, चला मैं प्रेम पद लड़खड़,
तुम्हारा साथ रहता, दर्द में गिरना नहीं होता
प्रवीण पाण्डेय
हो बाबू
उसकी कहानी मुझे भूलती नहीं। बचपन में सुना था 'हो बाबू' के बारे में। तब लड़की या औरत होने की खूबी-खामियों का अहसास भी नहीं था, ना फेमिनिज़्म या स्त्रीवाद से कोई परिचय था। यूं कहूं कि हो बाबू को मैंने पहली फेमिनिस्ट के तौर पर जाना तो अतिशयोक्ति ना होगी। उस महिला की कहानी ऐसे ज़ेहन में बसी है कि लगता है उसे मैंने बहुत करीब से जाना है, देखा-परखा-समझा है।
ऐसी ही कोई दोपहर रही होगी जब रांची के घर में पीछे के आंगन में खाट पर हम सब धूप सेंक रहे थे। तब वक्त हमारी मर्ज़ी से चलता था, हम अपनी सांस-सांस जीते थे। मां, चाची, दादी की गोद में सिर रखे घंटों गुज़र जाते थे लेकिन दिन ढ़लने का कोई मलाल ना होता था। घंटों-घंटों घर की महिलाएं अपने नैहर की कहानियों से दोपहर गुलज़ार करती थीं। उन्हीं किस्सों-कहानियों के रंग बुने जा रहे स्वेटरों, कढ़े जा रहे चादरों में उतरते थे। ऐसे पक्के रंग थे कि बीसियों साल बाद भी फीके ना पड़ें।
अनजाने में ही मैं अपनी मां की गर्दन पकड़कर झूल गई। मां ने परे हटाते हुए कहा, "मत तंग करअ हो बाबू।'' मां का इतना कहना भर था कि चाची को हो बाबू की कहानी याद आ गई।
गोपालगंज के एक गांव की हैं मेरी चाची। शादी नब्बे में हुई, और पहली बार अपने शहर, इलाके से बाहर निकलीं तो सीधा ससुराल ही पहुंची, हमारे दादाजी के घर रांची। बताती हैं कि ट्रेन पर भी पहली बार वो रांची आने के लिए ही चढ़ीं। गांव उनका निहायत ही पिछड़ा। लड़कियों की पढ़ाई सातवीं के बाद बंद हो जाती थी। जो अच्छे घरों की थीं, बियाह-शादी के नाम पर मैट्रिक-इंटर पास कर लेती थीं, वो भी प्राइवेट से। गांव में सवर्ण कम, पिछड़ी जातियों के परिवार ज़्यादा थे। लेकिन ज़ाहिर है, बोलबाला सवर्णों का ही था। गांव की आधी से ज्यादा आबादी का गुज़ारा सवर्णों के खेत-खलिहानों और घरों में काम कर चलता था।
तो चाची के यहां भी बिसेसरा और बिसेसरा बो (बिसेसरा की पत्नी) काम करते थे। बिसेसर का नाम विश्वेशर रहा होगा, लेकिन उसका अपभ्रंश रूप ही सबकी ज़ुबान पर चढ़ा। बिसेसर खेत में मज़दूरी करता और उसकी पत्नी घर में अनाज फटकने, भंडारघर साफ करने, दूध औटाने, दही जमाने का काम करती थी। मांग में टह-टह पीला सिंदूर, सांवले माथे पर चांद-सा बिंदा (चाची ने उसके आकार के अनुरूप बिंदा कहा, बिंदिया नहीं), कलाइयों में दर्जन-दर्जन भर कांच की रंग-बिरंगी चूडियां, पैरों में चमकता आलता और सीधे पल्ले की सूती साड़ी, जो सिर से ना सरकती थी। बिसेसरा बो के रूप का बखान तो जैसे मेरे मन में उतर गया और मैं उसकी कायल होने लगी।
लेकिन यहीं कहानी में नया मोड़ आ खड़ा हुआ। बिसेसर में एक ही ऐब था (एक ही?), वो शराब बहुत पीता था। शराब पीता तो होश में ना रहता और बेचारी बिसेसरा बो को जूतियाते-लतियाते उसकी वो हालत करता कि अगले दिन उसकी शक्ल पहचान में ना आती। लेकिन मांग का सिंदर फीका ना पड़ता ना ही बिंदा बिंदिया बन जाता। बिसेसरा बो अगले दिन चौके में चूड़ियां खनकाते ऐसे काम में जुटी पाई जाती कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। तो भला बिसेसर को भी कोई क्यों टोकता-समझाता। दिन-महीने-साल ऐसे ही गुज़रते चले गए। बिसेसर बो कूटती रही, बिसेसर सुबह-दर-सुबह कभी घर के बाहर, कभी खेतों में लुढ़का हुआ मिलता रहा। लेकिन किसी ने बीचबचाव करने की ज़रूरत ना समझी।
एक सुबह बिसेसर बो बड़ी खिली-खिली-सी चाची की मां के पास जाकर बैठी। ''काकी, हमरो खातिर अइसन टोपी मोजे बनवा देबू ना?''
''हां रे बिसेसर बो, तू अच्छी खबर तो ला, हम तेरे लिए पूरा जामा सिल देंगे।''
''तो काकी, बबुनी के कह द। सिल दीहें। चार महीना के बाद हम बबुआ लेकर आएब तोहरा आंगन में। काकी, काम हम तबहुं पूरा कर लेब। पीठ पर बबुआ के बांधल-बांधल सब हो जाई। बस काकी, तू हमरा खातिर जामा बनवा द।''
''चार महीने में? क्यों रे बिसेसरा बो? तुझे पहले पता नहीं चला क्या? अभी बता रही है। पता नहीं पिछले दिनों कितना भारी-भारी काम करवाया तुझसे। तेरे बच्चे को कुछ हुआ तो पाप हमें लगेगा।''
बिसेसरा बो ने दांत से जीभ काटी। ''ना काकी, हम सब क लेब। कुछ ना होई। तू देखत जा बस।''
मालिकों के घर में तो सबको समझा दिया बिसेसरा बो ने, लेकिन अपने पति को ना समझा पाई। लात-जूते-घूंसे बरसने का क्रम फिर भी चालू रहा। पता नहीं किस मिट्टी की बनी थी बिसेसरा बो कि अपने साथ-साथ अपने बच्चे को भी संभाले रखा।
बेटी हुई थी बिसेसरा को। रंग मां जैसा ही सांवला, लेकिन आंखे गोल-गोल कजरारी। बाल साईं बाबा से थे, ऐसे घूंघराले कि खींचो तो स्प्रिंग जैसे वापस लौट जाएं। दिन भर आंगन में लेटी-लेटी बिंदिया (मां ने उसे यही नाम दिया था) किलकारियां मार-मार कर सबको बुलाती रहती। ऐसी प्यारी थी कि पत्थर भी पिघल जाए, अनजान लोगों का भी दिल जीत ले।
बिंदिया छह-साढ़े छह महीने की हुई होगी। बिसेसर पर एक रात फिर भूत सवार हुआ। नशा था कि उसपर हावी होते ही दरिंदा बना छोड़ता था। जो हाथ में मिला, उसने अपनी घरवाली को उसी से पिटना शुरू कर दिया। बिसेसरा बो पिटती रही, लुढ़ककर कभी इस कोने गिरे, कभी उस कोने। तभी बिसेसर को जाने क्या सूझी कि उसने बालों से अपनी नन्हीं-सी बेटी को पकड़ा और उसे मां के ऊपर फेंक दिया। बिसेसर बो के तो जैसे होश ही उड़ गए। या बल्कि तब होश में आई वो। उसने बेटी को संभाला, रो-रोकर नीली पड़ती बेटी को चुप कराने के लिए कमरे से बाहर निकल गई। बेटी चुप हुई तो वो वापस कमरे में लौट आई। खटिया पर बेटी को लिटाया और अचानक उसका रूप ही बदल गया। अब बिसेसरा बो पर चंडी सवार थी। अपने पति की लाठी से ही उसने जीभर को उसकी मरम्मत की। सात सालों के ब्याह में जो उसने ना किया, आज कर रही थी। पति चीखता-चिल्लाता, धमकियां देता। लेकिन बिसेसरा बो की लाठी ना रुकी। अपने अधमरे पति को उसने घर से निकाल बाहर खेत में डाल दिया।
अगली सुबह वो घर आई तो लोग उसे देखते रह गए। कसकर पीछे बंधे बालों पर नीली पगड़ी, पति का झूलता कुर्ता, लाल पाढ़ वाली मटमैली धोती और हाथ में लाठी - बिसेसरा बो को ये क्या हो गया था?
आजी ने चिढ़कर पूछा, ''का हो गइल बा तहरा हो बाबू? इ का रंग-रूप ह?''
उसका जवाब था, ''अब इहे रूप रही आजी। हम हो बाबू हो गइनी। अपन बेटी के माई भी हम, बाप भी हम। कहब त राउर दुआर छोड़ देब लेकिन इन रूप ना छोड़ब।''
कुछ दिनों तक तो सबने सोचा, पति से नाराज़गी है, उतर जाएगी। गांववाले किस्म-किस्म की बातें करते रहे, कई अफवाहें भी उड़ीं। लेकिन हो बाबू टस से मस ना हुई। दिन-दर-दिन बेटी को बगल में दबाए वो काम पर उसी वेशभूषा में लौटती रही। सोनहुला गांव की हो बाबू के चर्चे दूर-दूर तक पहुंचे। लेकिन किवंदती बनी हो बाबू के अंदर की मां को किसी ने नहीं सराहा। जो पत्नी पिटती रही, वो मां ज़ुल्म बर्दाश्त ना कर सकी। अपनी बेटी के जहां की कोई खुशी उसे गवारा ना थी।
सुनती हूं कि उस बेटी को हो बाबू ने गोपालगंज पढ़ने भेजा, और आज वो किसी हाई स्कूल में पढ़ाती है। हो बाबू का आंगन नवासों से गुलज़ार है, लेकिन उनका रूप नहीं बदला। पगड़ी के नीचे के बाल चांदी हो गए, लेकिन पगड़ी का रंग फीका ना पड़ा। आज भी हो बाबू कलफ वाला कुर्ता और लाल किनारे वाली धोती के साथ खादी का गमछा लटकाए घूमती हैं।
अंजू सिंह चौधरी
समय है एक विराम का, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद.......
वाह बहुत खूब ब्लागोत्सव के इस पहर का नया कलेवर बहुत उम्दा है :)
जवाब देंहटाएंवाह! इतनी जबरदस्त कहानी और अभी तक नहीं पढ़ी, इसी बात का मलाल है | बहुत ही अच्छी कहानी | धन्यवाद आपका |
जवाब देंहटाएंक्या बात है .......... 28 घंटे इतनी रोचकता के साथ
जवाब देंहटाएंकमाल का प्रस्तुतिकरण