मैं रहती हूँ अपने 'मैं' के साथ
क्योंकि अक्सर
जब हाथ को हाथ नहीं सूझता
यह 'मैं' मेरे साथ मुझे राह बताता है
दुनिया जहान की बातें करता है !
'मैं' का साथ होना उपलब्धि है
अस्तित्व है !
मैं में तुम,हम,ये,वो,आप हैं
'मैं' जब अकेला होता है
तो अहम हो जाता है
और अहम के साथ कुछ भी सहज नहीं रहता
'मैं' भी नहीं …
रश्मि प्रभा
मैं कौन हूं
जब भी अपने बारे में सोचा तो ख़ुद को किसी न किसी किरदार में देखा. किसी ने पूछा- आप कौन हो? जवाब में कई पहचानें थीं. मेरा नाम, रुतबा, मेरा रिश्ता या मेरा लिंग- स्त्री या पुरुष. कभी मैं पिता हूं, कभी मैं किसी कंपनी का चेयरमैन हूं. कभी बेटा हूं तो कभी स़िर्फ नाम. इनके अलावा तो कोई और पहचान है ही नहीं. इतनी सारी पहचानों में मेरी असली पहचान क्या है? कौन हूं मैं? स्वयं के नज़दीक आकर सोचूं तो मेरा तो स़िर्फ शरीर है, लेकिन इसे मेरा कहने वाला कौन है? जैसे मेरा घर, परिवार, कपड़े, कुर्सी, फोन वैसे ही मेरा शरीर. यह सब मेरा है लेकिन मैं कौन हूं? मेरा कहने वाला कौन है और कहां है. इस शरीर के अंदर या बाहर. कई सारे सवाल, जवाब कोई नहीं. जब भी गुरुओं से पूछा, किताबों को प़ढा, लगा कि इस मैं को पहचानना बहुत कठिन है, लेकिन जब जाना कि इस पूरे शरीर को चलाने वाली आत्मा हूं मैं, चेतन्यता हूं, वो जागृत ऊर्जा हूं, तो समझा की मेरी असली पहचान क्या है. मैं वो ऊर्जा हूं जो तीन रूप में काम करती है- मन, बु़द्धि और संस्कार. मैं मन हूं. नए विचार उत्पन्न करता हूं. बुद्धि हूं, तौलता हूं कि क्या सही है और क्या ग़लत. फिर निश्चय करता हूं कि क्या करूं. फिर अपने स्थूल दिमाग़ को कर्म करने का संदेश देता हूं. दिमाग़ शरीर के इस भाग को संदेश देगा कि कर्म करो और वह अपना कर्म करेगा. इस कर्म की याद मुझमें हमेशा रहेगी लेकिन मेरे दिमाग़ में नहीं बल्कि मेरे अंदर यानी मुझ में. ये यादें जो धीरे धीरे आदत बनती हैं मेरे संस्कार बनते जाते हैं. इसके वश में आकर मैं कई विचारों को उत्पन्न करता हूं. मेरे द्वारा किया गया हर कर्म संस्कारों और स्वभाव के रुप में मेरे अंदर संरक्षित रहता है.
इस तरह से मैं अगर स्वयं के अंदर झांकू तो देखता हूं कि मेरी असली पहचान तो वो शाश्वत चैतन्य ऊर्जा और आत्मा है. जो न कभी मरती है, न कभी जन्म लेती है बल्कि मन-बु़द्धि-संस्कार के रूप में सदा जागृत है. आज तक मैंने जितने भी जन्म लिए, उसकी हर याद चेतन और अचेतन अवस्था में हमारे साथ है. लेकिन यह सब यादें अंदर दबी हुई हैं, तभी तो जैसे ही मन शांत होता है जन्मों की बहुत सी बीती बातें याद आ जाती हैं. चाहें तो पिछली जन्म की भी बातें याद कर लें. जब सम्मोहन विधा के द्वारा अवचेतन दिमाग को जागृत किया जाता है.
अब आते हैं आत्मा पर जो हमेशा अलग-अलग किरदारों में दिखाई देती है. अगर ख़ुद को देखूं तो पिता के रूप में मैं ही मन, बु़द्धि, संस्कार यानी विचार, निर्णय और यादों के दम पर ही इस किरदार को निभाता हूं. अब तक की हर पहचान मैं यानी आत्मा है. स़िर्फ मैं इसके प्रति अनभिज्ञ हूं. इसीलिए इन किरदारों को ही सच मान दर्द या ख़ुशी का अनुभव करता हूं. अगर आप कहीं नौकरी करते हैं तो हर वक़्त विचार उत्पन्न होते हैं. अगर अपका बॉस आपसे कुछ आकर कह देता है तो मन में विचार आएगा कि इसने मेरी बेइज़्ज़ती की, वो होते कौन हैं ऐसा कहने वाले, क्या मेरी कोई इज़्ज़त ही नहीं, मैं कब तक यह सब बर्दाश्त करूंगा, मैं इस जगह नहीं रह सकता. अगर विचारों का यह सिलसिला अधिक दिनों तक चला तो आवेश में या इन विचारों के बोझ तले दबकर नौकरी छोड़ने का निर्णय लेंगे और फिर इस्ती़फा देने का काम करेंगे और इसकी याद संस्कार रूप में मेरी आत्मा में रहेगी. नतीजतन आप को दूसरी नौकरी तलाशनी होगी. कुछ निराशा भी होगी, मनमाफिक नौकरी मिलने में व़क्त लग सकता है, दूसरी तऱफ नौकरी छोड़ने के मेरे इस निर्णय से घर परिवार में भी हलचल और परेशानी हो सकती है. नई नौकरी में एडजस्ट करने में समय लगेगा और अनुभव बताता है कि खुदा न खास्ता यहां भी अगर बॉस से अनबन रही तो वही सिलसिला फिर चलेगा. जैसे ही थोड़ा सा ऊपर नीचे हुए, लगेगा फिर वही हो रहा है. चूंकि इस्ती़फे की याद ताज़ा है. संस्कार बन रहा है, यहां भी इस्ती़फा देने में हिचकिचाएंगे नहीं, संस्कार गहरा हो जाएगा. यहीं पर अगर नौकरी को एक रोल समझें तो पाएंगे कि यह डांट इस रोल को पड़ रही थी मुझे नहीं. हो सकता है बॉस का मूड ख़राब हो या शायद इस रोल को मैं सही से निभा नहीं पा रहा हूं. जब ग़लती मेरी यानी शाश्वत चैतन्य शक्ति की नहीं बल्कि इस रोल की होगी तो दर्द उत्पन्न नहीं होगा. दर्द कम होगा तो नाराज़गी भी कम होगी. फिर हम सही तरह से सोच पाएंगे. फिर शायद नौकरी छूटे ना और धीरे धीरे न स़िर्फ बॉस बल्कि हर एक को संभालना आ जाएगा. स़िर्फ एक चैतन्यता अपनी पहचान की और एक अलग भाग्य. निर्णय हमें लेना है. ओम साईं राम
मैं कौन हूं?
एक मंदिर में बोलने गया था। बोलने के बाद एक युवक ने कहा, 'क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूं? यह प्रश्न मैं बहुतों से पूछ चुका हूं; पर जो उत्तर मिले, उनसे तृप्ति नहीं होती है। समस्त दर्शन कहते हैं : अपने को जानों। मैं भी अपने को जानना चाहता हूं। यही मेरा प्रश्न है। 'मैं कौन हूं?,' इसका उत्तर चाहता हूं।'
मैंने कहा, 'अभी आपने प्रश्न पूछा ही नहीं है, तो उत्तर कैसे पाते? प्रश्न पूछना उतना आसान नहीं है।'
उस युवक ने एक क्षण हैरानी से मुझे देखा। प्रकट था कि मेरी बात का अर्थ उसे नहीं दिखा था। वह बोला, 'यह आप क्या कहते हैं? मैंने प्रश्न ही नहीं पूछा है।'
मैंने कहा, 'रात्रि आ जायें।' वह रात्रि में आया भी। सोचा होगा, मैं कोई उत्तर दूंगा। उत्तर मैंने दिया भी, पर जो उत्तर दिया वह उसने नहीं सोचा था।
वह आया। बैठते ही मैंने प्रकाश बुझा दिया। वह बोला, 'यह क्या कर रहे हैं? क्या उत्तर आप अंधेरे में देते हैं?'
मैंने कहा, 'उत्तर नहीं देता, केवल प्रश्न पूछना सिखाता हूं। आत्मिक जीवन और सत्य के संबंध में कोई उत्तर बाहर नहीं है। ज्ञान बाह्य तथ्य नहीं है। वह सूचना नहीं है, अत: उसे आप में डाला नहीं जा सकता है। जैसे कुएं से पानी निकालते हैं, ऐसे ही उसे भी भीतर से ही निकालना होता है। वह नित्य। उसकी सतत् उपस्थिति है, केवल घड़ा उस तक पहुंचाना है। इस प्रक्रिया में एक ही बात स्मरणीय है कि घड़ा खाली हो। घड़ा खाली हो, तो भरकर लौट आता है और प्राप्ति हो जाती है।'
अंधेरे में थोड़ा- सा समय चुपचाप सरका। वह बोला,'अब मैं क्या करूं?' मैंने कहा, 'घड़ा खाली कर लें, शांत हो जाएं और पूछें : 'मैं कौन हूं?' एक बार, दो बार, तीन बार पूछें। समग्र शक्ति से पूछें : 'मैं कौन हूं?'ं प्रश्न पूरे व्यक्तित्व में गूंज उठे और तब शांत हो जाएं और मौन, विचार शून्य प्रतीक्षा करें। प्रश्न और फिर खामोशी, शून्य प्रतीक्षा। यही विधि है।'
वह थोड़ी देर बाद बोला, 'लेकिन मैं चुप नहीं हो पा रहा हूं। प्रश्न तो पूछ लिया पर शून्य प्रतीक्षा असंभव है और अब मैं देख पा रहा हूं कि मैंने वस्तुत: आज तक प्रश्न पूछा ही नहीं था।'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
राजेंद्र त्यागी
मै कौन हूँ ...???
यह एक ऐसा अटल सवाल है,जिसका जवाब पल-पल बदलता है और हमें सोचने पर मजबूर करता है |जिंदगी के हर सफर पर...हर मोड़ पर यह ओट बनकर जवाब माँगता है जो अब-तक के जवाबों से शायद संतुष्ट नही |
हम देखते हैं कि कभी-कभी किसी बात के अंत में यही जिंदगी हमसे कुछ दूर पर खड़ी होकर,हमारी नादानी पर मुस्कुरा रहीं होती है,जिससे इस सच का पता चलता है कि हमने आज-तक इस सवाल के जवाब देने में कहीं ना कहीं झूठ का सहारा लिया है | जिंदगी सही मायने में आगे बढ़े तो इसके लिए सच्चाई को आगे आना ही पड़ेगा और इसका फैसला हमारे हाथों में है |
हम खुद के नज़रिए में अपने-आप को काबिल मानकर मन को तसल्ली दिला सकते हैं पर जिंदगी केवल अपने खुद से नही चलती,इससे जुड़े हैं कई और जिनकी नज़र में हमारे वजूद का एहसास काफी हद तक मायने रखता है...यहीं जीवन का सच है...थोड़ा अजीब है पर सच है |
मेरे जिंदगी से भी जुड़े है कई ऐसे शख्स जिनकों,मुझसे उम्मीद है...शायद मै नही जानता कि वे मेरे बारे में क्या नज़रिया रखते हैं पर इतना जानता हूँ कि मेरी जिंदगी में सच्चे मन से इनका होना...सबकुछ बयां कर देता है(शायद)...
मै कौन हूँ ???
मै हूँ...
उस पिता का बेटा..." जो यह सोचकर आश लगाए बैठा है कि जो सपने मै नहीं देख सका वो अपने बेटे को हर नामुमकिन कोशिश करके जरुर दिखाऊँगा...जो कसक अधूरी रह गई वो बेटे के सहारे पूरा करूँगा "
मै हूँ...
उस माँ का बेटा..." जो दरवाजे पर बाट जोहे खड़ी रहती है...अपने सच्चे बेटे के इंतजार में जो दुनिया के नज़र में कैसा भी हों...जो जी भर के देखना चाहती है...जो फिर से गले लगाना चाहती है...चूमना चाहती है...फिर से दुलारना चाहती है "
मै हूँ...
उस बहन का भाई..."जो मजबूरन वो ना कर सकीं,मुझसे चाहती है...जिसके आँखों तले एक कामयाब भाई का
सपना पल रहा है...जिसको इंतजार है एक मजबूत कलाई पर राखी बाँधने को "
मै हूँ...
उस भाई का भाई..."जिसको विश्वास है मुझपर...हर एक फैसले पर...जो उन्हीं राहों को पीछा करता हुआ चला
आ रहा है,जहाँ मेरे कदमों के निशान मौजूद है "
मै हूँ...
उस दोस्त का दोस्त..."जिसने हर हालात में..हर पल..हर दम..मुझे जिंदगी को जीना सिखाया...जो आज मेरे पास नही पर दिल के बहुत करीब है "
मै हूँ...
किसी पराए के लिए अपना..." जो अनजान..बेखबर है...जिसको किसी अपने की तलाश है,इस छोटी सी दुनिया में "
मै हूँ...
एक आम आदमी जैसा दिखने वाला प्राणी...जो जिंदगी के हर पहलू को स्वीकारता आया है...जो जिंदगी के हर रंग को जीना चाहता है...जो इस बात में विश्वास रखता है कि दूसरों की खुशी में ही अपनी खुशी है...जिसने सिखा है हर एक को अहमियत देना...जिसको कुछ पाने की ललक है और खोना भी बखूबी जानता है "
मै तो इतना सा जानता हूँ कि जब कोई किसी से उम्मीद रखता है,तो सामने वाले को भी चाहिए कि वह उसके उम्मीदों पर खरा उतरे...क्यूंकि अगर उम्मीद पूरी ना हों तो बहुत दुःख होता है |
मन्टू कुमार
इसके साथ ही आज का कार्यक्रम संपन्न, मिलती हूँ परिकल्पना ब्लॉगोत्सव-२०१४ के समापन समारोह में परसो यानि 5 जुलाई को सुबह 10 बजे परिकल्पना पर.... आना मत भूलिएगा.....
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जवाब देंहटाएंमैं की भूलभुलइया आज वाह :)
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जवाब देंहटाएं'मैं' हर पल साथ रहता है
जीवन के सफ़र में
उसकी जब़ान को
पता होता है
स्वाद इस 'मैं' का
जहाँ सब साथ छोड़ देते हैं
वहाँ भी ये गीत
गुनगुना लेता है खुशियों के
....
सभी रचनाओं का चयन एवं प्रस्तुति अति-उत्तम
सादर
bahut sunder.......
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