कल दीपावली का त्यौहार था, मैंने अपनी बड़ी बिटिया उर्विजा से पूछा कि पटाखे नहीं फोड़ने हैं क्या ? उसने तपाक से कहा पापा ! पटाखे फोड़कर रुपयों में आग क्यूँ लगाऊँ , सोच रही हूँ कि मिटटी के दीयों को से घर को ऐसा सजाऊ कि लोग दाँतों तले उंगली काट ले , कैसा रहेगा ?

मैंने कहा - बड़ी हो गयी हो , इसीलिए अच्छी-अच्छी बातें करने लगी हो .....ठीक है तुम वही करो जो तुम्हे अच्छा लगे , इतना कहकर मैं वहां से उठा और विस्तर पर लेट गया ! पर नींद कहाँ आने वाली थी , उसकी बातें जेहन में मतले का रूप ले चुकी थी - " पटाखे फोड़कर क्यों नोट जलाएं , माटी के दीयों से घर सजाएं "

फिर क्या था चंद घंटों के जद्दोजहद के बाद आखिर जेहन की कोख से फूट पडी एक खुबसूरत ग़ज़ल, जिसे मैं आपसे शेयर कर रहा हूँ -

(ग़ज़ल )
पटाखे फोड़कर क्यूं नोट जलाएं बाबू जी
मिटटी के दीयों से घर सजाएं बाबू जी ।

हमारे गाँव की पगडंडियाँ मासूम है-
इसे न राजपथ से आप मिलाएं बाबू जी ।

दिखाबों के भयाबह से हमें लगता है डर-
मुआं मंहगाई यह आंसू रुलाए बाबू जी ।

गरीबों को मिले दो जून की रोटी बहुत है-
उन्हें बस आप कर्जों से बचाएं बाबू जी ।

जहां पर टूटते संबंध प्यालों की तरह-
वहां हम किसकी रोएं, किसकी गाएं बाबू जी ।

प्रभात के किस्से सुनाये स्याह पन्नों पर-
ऐसे हमदर्द को ना आजमाएं बाबू जी ।
() रवीन्द्र प्रभात

11 comments:

  1. यह ग़ज़ल शानदार ही नहीं जानदार भी है, बहुत-बहुत बधाई एक खुबसूरत ग़ज़ल के लिए !

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  2. दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

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  3. बहुत ही सुन्‍दर पंक्तियों को समेटे बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  4. सार्थक अभिव्‍यक्ति ...दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ

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  5. वाह , वाह , वाह ! क्या सार्थक बात कही है बिटिया ने ।

    काश कि सभी बच्चे ऐसा सोच सकें । बच्चे क्या , यहाँ तो बाप भी नहीं सोचते ।
    बहुत सुन्दर ग़ज़ल बना दी है आपने इस विषय पर । दिल से बधाई ।

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  6. जहां पर टूटते संबंध प्यालों की तरह-
    वहां हम किसकी रोएं, किसकी गाएं बाबू जी ।
    satya hai!
    bahut sundar rachna!!!

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  7. अपने परिवेश में मौजूद अंतर्विरोधों के झंझावातों से जूझते संवेदनशील मन की एक बेहद संवेदनशील और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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