बहुत पहले-
लिखे जाते थे मौसमो के गीत जब
रची जाती थी प्रणय कीकथाऔर -
कविगण करते थे
देश-काल की घटनाओं पर चर्चा
तब कविताओं मेंढका होता था युवतियों का ज़िस्म....!


सुंदर दिखती थी लड़कियाँ

करते थे लोग

सच्चे मन से प्रेम

और जानते थे प्रेम की परिभाषा....!


बहुत पहले-
सामाजिक सरांध फैलाने वाले ख़ाटमलों की
नहीं उतारी जाती थी आरती
अपने कुकर्मों पर बहाने के लिए
शेष थे कुछ आँसू
तब ज़िंदा थी नैतिकता
और हाशिए पर कुछ गिने - चुने रक़्तपात....!

तब साधुओं के भेष में
नहीं घूमते थे चोर-उचक्के
सड़कों पर रक़्त बहाकर
नहीं किया जाता था धमनियों का अपमान
तब कोई सम्वन्ध भी नहीं था
बेहयाई का वेशर्मी के साथ....!

बहुत पहले-
शाम होत
सुनसान नहीं हो जाती थी सड़कें
गली-मोहल्ले/ गाँव- गिरांव आदि
असमय बंद नहीं हो जाती थी खिड़कियाँ
माँगने पर भी नहीं मिलता था
आगज़ला सौगात
तब दर्द उठने पर
सिसकने की पूरी छूट तीब
और सन्नाटे में भी
प्रसारित होते थे वक़्तव्य
खुलेयाम दर्ज़ा दिया जाता था कश्मीर को
धरती के स्वर्ग का.....!

अब तो टूटने लगा हैं मिथक
चटखने लगी है आस्थाएं
और दरकने लगी हैं
हमारी बची- खुची तहजीव......!

दरअसल आदमी
नहीं रह गया है आदमी अब
उसीप्रकार जैसे-
ख़त्म हो गयी समाज से सादगी
आदमी भी ख़त्म हो गया
और आदमीअत भी.....!

() रवीन्द्र प्रभात

5 comments:

  1. दरअसल आदमी
    नहीं रह गया है आदमी अब
    उसीप्रकार जैसे-
    ख़त्म हो गयी समाज से सादगी
    आदमी भी ख़त्म हो गया
    और आदमीअत भी.....!

    सत्य को कहने का एक सराहनीय प्रयास है आपका
    ...

    जवाब देंहटाएं
  2. पढ़कर अच्छा लगा,

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रिय रवीन्द्र, यदा कदा ही इस प्रकार का काव्यत्मक विश्लेषन दिख पाता है -- कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ !!



    -- शास्त्री जे सी फिलिप



    प्रोत्साहन की जरूरत हरेक् को होती है. ऐसा कोई आभूषण
    नहीं है जिसे चमकाने पर शोभा न बढे. चिट्ठाकार भी
    ऐसे ही है. आपका एक वाक्य, एक टिप्पणी, एक छोटा
    सा प्रोत्साहन, उसके चिट्ठाजीवन की एक बहुत बडी कडी
    बन सकती है.

    आप ने आज कम से कम दस हिन्दी चिट्ठाकरों को
    प्रोत्साहित किया क्या ? यदि नहीं तो क्यो नहीं ??

    जवाब देंहटाएं
  4. आपने कम शव्दो मे अधिक बात की है. आपका प्रयास सराहनीय है. मेरी तरफ़ से शुभकामनाये

    जवाब देंहटाएं

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