पूरी हुई परिक्रमा  … अब बारी है कुछ अपनी कह सुनाने की 
नहीं कहना मैंने नहीं सीखा 
हाँ, कहने से पहले सोचती हूँ 
कुछ वक़्त को वक़्त देती हूँ 
कुछ अपने आप को !
किसी का दिल दुखे - मैं चाहती नहीं 
पर न दुखाओ तो कुछ भी कह जाते हैं 
तो कलम का अंकुश रखना पड़ता है 
गाहे-बगाहे नर्म शब्दों को कोड़ा बनाना होता है  … 

 ........................................... आज इस उत्सवी मंच के समापन पर मेरी कलम मेरी कलम को लेकर आई है, 
एक बार - कुछ पल के लिए 
देखो,पढ़ो,सोचो 
कोई मसला हल हो जायेगा  .... ऐसा मुझे लगता है !!!

मेरी कलम से मेरी कलम

मेरी कलम ने आज उठाया है 
मेरी कलम को 
विरासत में मिली 
संगतराश - मेरे माँ-पापा की उपलब्धि !
कभी लगा था - यह भी क्या विरासत हुई 
इससे क्या खरीद पाऊँगी भला 
अमीरों के बीच गरीब ही नज़र आऊँगी !
पर असमंजसता की बोझिल स्थिति में भी 
इसके ह्रदय से अपने ह्रदय को लिखा 
कई बार पढ़ा 
कई बार काटा 
कई पन्ने भी फाड़े  … 
कौन पढ़कर क्या कहेगा 
सोचा  !
शब्दों की आलोचना होगी 
इसका डर हुआ  ! … 
पर डर से आगे 
एहसासों का हौसला था 
भावनाओं का विस्तृत आकाश था 
सिरहाने स्मृतियों की खिलखिलाहट 
कुछ सिसकियाँ 
सुबह की किरणों में मकसद 
चाँदनी में धैर्य 
अमावस्या में उम्मीद 
झपकती पलकों के भीतर विश्वास  … 
तो मैंने वो सब लिखा 
जो अक्सर अनकहा रह जाता है !
एक समूह खुद को मेरे लिखे में जीने लगा 
उसके ठहरे, बंधे,कमजोर हो गए कदम 
आगे बढ़ने लगे  
मैंने शब्दों की मर्यादा में 
दर्द की हर तासीर को उभारा 
आस-पास बिखरी ज़िन्दगी को 
सिर्फ देखा नहीं 
अंतस्थ से जीने की कोशिश की !
मैंने राम को पूजा 
कृष्ण की आराधना की 
बुद्ध को पढ़ा 
कर्ण को जाना 
दुर्योधन को जाना 
भीष्म पितामह,विदुर,द्रोण के गुणों से वाकिफ हुई 
सिक्के के दो पहलू होते हैं 
तो व्यक्ति के भी 
(मेरे भी दो पहलू हैं)!
मैंने दोनों पहलुओं की शिनाख्त की 
यह सत्य है 
कि कोई भी अच्छा न पूरी तरह अच्छा होता है 
न पूरी तरह बुरा  … 
अच्छे के आलोचक 
और बुरे के समर्थक इसके उदहारण हैं !
मैंने जाना 
तर्क का सरल अर्थ कुतर्क है 
क्योंकि तर्क देनेवाला हार नहीं मानता 
अपनी बात सिद्ध कर ही लेता है 
…। 
मेरी कलम गंगा के जल से भी मुखातिब हुई 
उसके सूखे गातों से भी मिली 
सोचा -
गंगा ने आज अपनी दिशा बदल दी 
.... तो पहले क्या क्षमा किया ?
या सहती गई पाप का बोझ ?
अति को बढ़ावा देने से पहले निगल क्यूँ नहीं गई ?
रातों रात शिव जटा में सूख क्यूँ नहीं गई ?
ईश्वर के आगे नतमस्तक मेरी कलम 
सोचती रही  
पत्थरों में तो यज्ञ अग्नि के साथ 
पूरे मंत्रोच्चार के साथ 
प्राणप्रतिष्ठा हुई 
फिर जब कोई हादसा हुआ 
नाग शिव कंठ से निकला क्यूँ नहीं ?
कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से 
अन्यायी का मस्तक क्यूँ नहीं धड़ से अलग किया ?
मानती है कलम 
यह कलयुग है 
पर प्रभु तो कलयुगी नहीं 
उनको तो हर युग में अवतार लेना होता है 
फिर ?
दिल से पुकारनेवालों की कमी नहीं 
फिर !
यदि क्रोध है पूजा और आह्वान पर 
तो सर्वविनाश ही सही 
अन्यथा -
मेरी कलम कहती है 
कि किसी कलम, 
किसी इंसान,
किसी स्त्री,
किसी बालक के 
सारथि क्यूँ नहीं बनते प्रभु !!!
मेरी कलम ने गर्भ में भयभीत कन्या को देखा
तो अवाक उन बालकों को भी देखा 
जिनके लिए मार्ग रक्तरंजित किये जा रहे थे 
.... 
देखा उन माओं को 
जो सास की बात पर ईश्वर के आगे निराहार बैठी थी 
'बहू, कुलदीपक ही देना 
वरना अपने बेटे के लिए दूसरी बहू ले आऊँगी !"
विडंबनाओं के आगे 
अहिंसक ही हिंसक है 
आस्तिक हो गया है नास्तिक !
.... 
मैंने खुद को लिखा है 
तो पाठकों से अधिक 
खुद को पढ़ा भी है  … 
जब भी किसी की टिप्पणी मिली 
मैंने उसकी नज़र से खुद को पढ़ा 
अपने ही लिखे के कई मायने मिले 
और मायने के हर कोण 
मुझे सार्थक लगे !
… 
मेरी कलम 
समालोचक है तो आलोचक भी 
अपने लिखे को रेखांकित करती है 
मील का पत्थर बनाती है 
तो मीलों की लिखित दूरी तयकर 
कई अद्भुत कलम की तलाश करती है 
उन्हें अपनी कलम में पिरोती है 
गाँव-गाँव 
शहर-शहर 
देश-देश की परिक्रमा करती है 
साहित्य की बुनियाद पर 
साहित्य का सिंचन करती है 
कोपलें निकलें 
अस्तित्व वृक्ष बने - मेरी कलम की यही पूजा है
और इसीमें उसकी छोटी सी सार्थकता है 
…………… 


रश्मि प्रभा 







अरे॥रे...कहाँ चले.....अभी .....झलकियाँ  बाकी है ....मिलती हूँ एक विराम के बाद। 

4 comments:

  1. बहुत खूब आपकी कलम से हमारी कलम तक भी है बहुत कुछ इसके बीच में :)
    बस समापन नहीं पच रहा है । जारी है नहीं हो सकता क्या ?

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  2. देश-देश की परिक्रमा करती है
    साहित्य की बुनियाद पर
    साहित्य का सिंचन करती है
    कोपलें निकलें
    अस्तित्व वृक्ष बने -वाह अद्भुत .मंजुल भटनागर

    जवाब देंहटाएं

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