दो बुलबुले आँखों के मुहाने से
बादलों की तरह
ख़्वाबों की दुनिया बनाते हैं ....
ये ख़्वाबों की दुनिया
कितनी अच्छी लगती है !
न कहीं जाना
ना कोई खर्च
सबकुछ पास उतर आता है
बादल , पहाड़, चाँद , सितारे
आकाश, पाताल , धरती , नदी
बस ख्वाहिशों के धागे खोलते जाओ
सपनों की पतंग ऊपर ऊपर बहुत ऊपर
..... मजाल है कोई काटे ...
कैची भी तुम्हारे हाथ !
चाहो और खिलखिलाओ
टप्प से आंसू बहा लो... हल्के हो जाओ
सोच लो- उसकी हथेली सामने
परिधान भी एक से एक - मनचाहे
खूबसूरत से खूबसूरत हसीन वादियाँ
ओह ! वक़्त कम पड़ जाता है ...
गीत आँखों में थिरकते हैं
पैरों में मचलते हैं
सब अपना बस अपना लगता है !
सोओ जागो ... सपना साथ साथ चलता है
प्यार ख़्वाबों में ... बहुत चटकीला होता है
महकता है बहकता है
सावन के गीत गाता है
खुद ही विछोह पैदा कर बिरहा गाता है
तानसेन, बैजू बावरा सबकी हार
एक मटकी के सहारे
कई नदिया पार .....
अपना कैनवस अपनी आकृति अपने रंग
कुछ भी अनछुआ नहीं होता
.... सपनों की कभी हार नहीं होती
अपनी जीत मुट्ठी में होती है !

-रश्मि प्रभा


समय भागता है, रचनाकार रचता जाता है  … चलते चलते कुछ सुनाती जाऊँ, जाने कब समाप्ति की घोषणा हो, उससे पहले कुछ जागे जागे ख्याल बाँट लूँ 


प्रश्नोत्तर

प्रश्नचिन्ह मन-अध्यायों में,
उत्तर मिलने की अभिलाषा ।
जीवन को हूँ ताक रहा पर,
समय लगा पख उड़ा जा रहा ।।१।।

ढूढ़ रहा हूँ, ढूढ़ रहा था,
और प्रक्रिया फिर दोहराता ।
उत्तर अभिलाषित हैं लेकिन,
हर मोड़ों पर प्रश्न आ रहा ।।२।।

काल थपेड़े बिखरा देंगे,
प्रश्नों से घर नहीं सजाना ।
दर्शन की दृढ़ नींव अपेक्षित,
किन्तु व्यथा की रेत पा रहा ।।३।।

पूर्व-प्रतिष्ठित झूठे उत्तर,
मन में बढ़ती और हताशा ।
अनचाहा एक झूठा उत्तर,
मन में सौ सौ प्रश्न ला रहा ।।४।।

संग समय का जीवन में हो,
नभ को छू जाये मन-आशा ।
उलझा हूँ सब कहाँ समेटूँ,
जीवन मुझसे दूर जा रहा ।।५।।

प्रश्न निरर्थक हो जाता है,
बढ़ता यदि परिमाण दुखों का ।
निरुद्देश्य पर उठते ऐसे,
प्रश्नों का जंजाल भा रहा ।।६।।

जीवन छोटा, लक्ष्य हर्ष का,
छोटी हो जीवन-परिभाषा ।
शेष प्रश्न सब त्याज्य,निरर्थक,
जो मन कर्कश राग गा रहा ।।७।।

प्रश्न लिये आनन्द-कल्पना,
प्रश्न हर्ष की आस बढ़ाता ।
प्रश्न लक्ष्य से सम्बन्धित यदि,
उत्तर मन-अह्लाद ला रहा ।।८।।

praveenpandeypp@gmail.com


प्रवीण पाण्डेय 
 


व्यग्रता

जब मौन छटपटाता है
कहना चाहता है वो, जो अक्सर अन्दर सुनता है
एक शब्द जो अंतस में दबा पड़ा है कहीं
दफ़्न पडा है कहीं नियमों में

वो -
जिसे कह देने में मुक्ति
जिसे सोच लेने में सुकून
जी लेने में श्वास
और -
मानने में सम्पूर्णता होगी

कहीं अपने ही अस्तित्व को लडखडाता देख
उठ उठ उभरता है मेरे बनाए शब्दों के जाल में
और मैं वो कहानी कहती हूँ जो मैं बुनती हूँ
ढँकी ढँकी लुकती छिपती सी
उस एक शब्द के इर्दगिर्द
उसे फिर परतों तले दबाते हुए।

और उभर आती है एक स्मित मुस्कान, एक शांत तस्वीर।
[south+trip.jpg]

अपर्णा भागवत 



हत्यारे की आंख का आंसू और तुम्हारा चुंबन


सुनो,
बहुत तेज आंधियां हैं
इतनी तेज कि अगर 
ये जिस्म को छूकर भी गुजर जाएं 
तो जख्मी होना लाजिमी हैं
और वो जिस्मों को ही नहीं 
समूची जिंदगियों को छूकर निकल रही हैं
उन्हें निगल रही हैं

ना....रोशनी का एक टुकड़ा भी
धरती तक नहीं पहुंच रहा
सिसकती धरती के आंचल पर सूरज की रोशनी का 
एक छींटा भी नहीं गिरता

मायूसियों के पहाड़ ज्यादा बड़े हैं 
या जंगल ज्यादा घने कहना मुश्किल है

जिंदगी के पांव में पड़ी बिंवाइयों ने रिस-रिस कर
धरती का सीना लाल कर दिया है 
और उम्मीदों की पीठ पर पड़ी दरारें 
अब मखमली कुर्ती में छुपती ही नहीं 

हत्यारे का जुनून और उसकी आंखों की चमक
बढ़ती ही जा रही है
इन दिनों उसने अपनी आंखों में 
आंसू पहनना शुरू कर दिया है
आंसुओं की पीछे वाले आले में वो अपने अट्टहास रखता है
और होठों पर चंद भीगे हुए शब्दों के फाहे
जिन्हें वो अपने खंजर से किये घावों पर 
बेशर्मी से रखता है 

सुनो, तुम्हें अजीब लगेगा सुनकर
लेकिन कुछ दिनों से भ्रूण हत्याएं 
सुखकर लगने लगी हैं 
जी चाहता है ताकीद कर दूं तमाम कोखों को 
कि मत जनना कोई शिशु जब तक 
हत्यारों का अट्टहास विलाप न बन जाए
जब तक रात के अंधेरों में इंसानियत के उजाले न घुल जाएं
बेटियों, तुम सुरक्षित हो मांओं की ख्वाबगाह में ही
तुम्हारी चीखों के जन्म लेने से पहले 
तुम्हें मार देने का फैसला, उफफ.... 

सुनो, तुम तो कहते थे कि हम बर्बर समाज का अंत करेंगे
अंधेरों के आगे उजालों को घुटने नहीं टेकने देंगे

प्रिय, तुम तो कहते थे कि एक रोज यह धरती
हमारे ख्वाबों की ताबीर होगी
हमारी बेटियां ठठाकर मुस्कुराएंगी,,,,
इतनी तेज कि हत्यारे की आंखों के झूठे आंसू झर जायेंगे
और उसके कांपते हाथों से गिर पड़ेंगे हथियार

एक रोज तेज आंधियों के सीने पर हम
उम्मीदों का दिया रोशन करेंगे...
और आंधियां खुद बेकल हो उठेंगी 
उस दिये को बचाने के लिए

प्रिय, आज जब हवाओं का रुख इस कदर टेढ़ा है
तुम कहां हो
इस बुरे वक्त में सिर्फ हमारा प्र्रेम ही तो एक उम्मीद है

आओ मेरी हथेलियों को अपनी चौड़ी हथेलियों में ढांप लो
आओ मेरा माथा अपने चुम्बनों से भर दो
तुम्हारा वो चुंबन 
इस काले वक्त और भद्दे समाज का प्रतिरोध होगा
तुम्हारा वो चुंबन हत्यारे के अट्टास को पिघलायेगा
वो जिंदगी के पांव की बिंवाइयों का मरहम होगा
और धरती के नम आंचल में रोशनी का टुकड़ा

सुनो, सिर्फ मुझे नहीं
समूची कायनात को तुम्हारा इंतजार है
कहां हो तुम....

[01.JPG]



प्रतिभा कटियार 









समय है एक विराम का, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद...... 

7 comments:

  1. ब्लागोत्सव जाते जाते निखार के शिखर पर । उत्तम रचनाऐं।

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  2. जिसे कह देने में मुक्ति
    जिसे सोच लेने में सुकून
    जी लेने में श्वास
    और -
    मानने में सम्पूर्णता होगी
    बहुत सुंदर

    जवाब देंहटाएं
  3. परिकल्पना ने ब्लॉग-उत्सव के लिए अपना रोल बखूबी अदा किया

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  4. अपना कैनवस अपनी आकृति अपने रंग
    कुछ भी अनछुआ नहीं होता
    .... सपनों की कभी हार नहीं होती -----अपनी जीत मुट्ठी में होती है !अत्यंत प्रेरणा देती पंक्तियाँ रश्मि जी
    उभर आती है एक स्मित मुस्कान, एक शांत तस्वीर।अर्पणा जी की सुन्दर रचना और प्रतिभा कटियार जी की रचना मर्म स्पर्शी है --मायूसियों के पहाड़ ज्यादा बड़े हैं --
    या जंगल ज्यादा घने कहना मुश्किल है,बधाई सभी रचनाकारों को ,

    रश्मि जी को बधाई शुभ कामनाएं ,परिकल्पना को सुन्दर सवरूप देने के लिए .मंजुल भटनागर .

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  5. अपना कैनवस अपनी आकृति अपने रंग
    कुछ भी अनछुआ नहीं होता
    .... सपनों की कभी हार नहीं होती
    अपनी जीत मुट्ठी में होती है ! .....................

    रात आँखें खुली रख देखे सपने और बनी तस्वीर दिन के उजाले में पूरी करने के लिए ही तो होती है !!! बहुत ही सुन्दर !

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