एक कविता उन प्रवासियों के लिए , जो अपनी धरती , अपना गांव छोड़कर महज दो आने ज्यादा कमाने की जुगत में खाक छानते हैं सुदूर प्रदेश की , या फिर ग्लैमर की दुनिया में इस क़दर खो जाते हैं कि सुध हीं नहीं रहती अपने -पराये की । जीवन और जीविका के बीच तारतम्य बैठाते- बैठाते गुजर जाते हैं जीवन के ओ सुनहरे पल , जिसे भोगने की चाहत में वेचैन दीखती है तमाम उम्र । चांद को आंखों में उतार लेने की चाहत और सूरज को मुट्ठियों में क़ैद कर लेने की महत्वकांक्षा धरी की धरी रह जाती और माटी के लोथरे की मानिंद खडे दीखते वे भावुकता की चाक पर थाप- दर- थाप टूटते हुये ..... ।

।। तुम लौट आना अपने गांव ।।

जब झूमें घटा घनघोर
और टूटकर बरस जाये
तुम लौट आना अपने गांव
अलाप लेते हुये धानरोपनी गीतों का
कि थ्रेसर - ट्रेक्टर के पीछे खडे बैल
तुम्हारा इन्तजार करते मिलेंगे
कि खेतों में दालानों में मिलेंगे
पेंड़ होने के लिए करवट लेते बीज
अमृत लुटाती -
बागमती की मन्द- मन्द मुस्कराहट
माटी में लोटा-लोटाकर
मौसम की मानिंद
जवान होती लडकियां
पनपियायी लेकर प्रतीक्षारत घरनी
और गाते हुये नंग- धरंग बच्चे
'' काल- कलवती-पीअर -धोती
मेघा सारे पानी दे .... ।''

जब किसी की कोमल आहट पाकर
मन का पोर - पोर झनझना जाये
और डराने लगे स्वप्न
तुम लौट आना अपने गांव
कि नहीं मिलेंगे मायानगरी में
झाल- मजीरा / गीत- जोगीरा / सारंगा -
सदाबरीक्ष/ सोरठी- बिरज़ाभार / आल्हा -
उदल / कज़री आदि की गूँज
मिलेंगे तो बस -
भीड़ में गायव होते आदमी
गायब होती परम्पराएं
पॉप की धून पर
संगीत के नए- नए प्रयोग
हाथ का एकतारा छोड़कर
बंदूक उठा लेने को आतुर लोकगायक
वातानुकुलित कक्ष में बैठकर
मेघ का वर्णन करते कालीदास
और बाबा तुलसी गाते हुये
'' चुम्मा-चुम्मा ....... ।''


तुम लौट आना अपने गांव
कि जैसे लौट आते हैं पंछी
अपने घोसले में
गोधूलि के वक़्त
मालिक के भय से / महाजन की धमकी से
बनिए के तकादों से
कब तक भागोगे
कि नहीं छोड़ते पंछी अपना डाल
घोंसला गिर जाने के बावजूद भी ....... ।


तुम लौट आना अपने गांव
कि तुम्हारे भी लौटेंगे सुख के दिन
अनवरत जूझने के बाद
कि तुम भी करोगे अपनी अस्मिता की रक्षा
सदियों तक निर्विकार
जारी रखोगे लडाई
आखरी समय तक
मुस्तैद रहोगे हर मोर्चे पर
किसी न किसी
बेवास- लाचार की आंखों में
पुतलियों के नीचे रक्तिम रेखा बनकर....... ।


तुम लौट आना अपने गांव
कि नहीं छोड़ती चीटियां
पहाडों पर चढ़ना
दम तोड़ने की हद तक ।
() रवीन्द्र प्रभात



8 comments:

  1. अच्छा लिखते हैं आप...अच्छा सोचते हैं आप...कविताएँ तो बहुत लिखी जा रही हैं, रोना विचारों की कमी का हे।
    देव प्रकाश

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  2. भाई साहब, दिक्कत सिर्फ़ इतनी है कि अब गांव मे भी वे चीजे नही मिलती जिन चीजो का जिक्र आपने किया है. अब तो गांव के भी लडके राक पांप के धुन पर नाच रहे है और बुद्धू बक्से को निहार रहे है . बात कविता के हिसाब से अच्छी है. साधुवाद

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  3. आपकी कविता भावपूर्ण है।
    दीपक भारतदीप

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  4. अच्छे भाव हैं मगर क्या गांव में भी अब ऐसा कुछ बचा भी है. सब तरफ तो बदलाव है. है भी अच्छाई और विकास की तरफ. अब तो बस उन दिनों को मिस ही कर सकते हैं ऐसा लगता है.

    तुम लौट आना अपने गांव
    कि नहीं छोड़ती चीटियां
    पहाडों पर चढ़ना
    दम तोड़ने की हद तक ।

    -सुन्दर भाव और सुन्दर अभिव्यक्ति.

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  5. अच्छा, हम अपने आप में लौटें तो भी शायद कविता का अर्थ सार्थक हो जायेगा. हमारा अपनापन भी तो खो गया है, समय के साथ साथ!

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  6. प्रिय रवीन्द्र जी,
    सच तो ये है कि हमारा गाँव आज तेज़ी से शहरी संस्कृति के नाम पर ग़लत दिशा में बदलता जा रहा है, लेकिन
    आज भी गाँव की संस्कृति उतना ही पवित्र है जितना कि गंगाजल. बहुत अच्छी कविता के लिए दिल से बधाईयाँ.../

    आपका-
    मयन्क

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  7. क्या सचमुच ऐसा गाँव बचा है हिंदुस्तान में? वैसे कविता में गहराई है यह स्वीकार करने में
    मुझे कोई आपत्ति नहीं.

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  8. रवींद्र जी..अच्छा लगा आपके पर कविताएं देखकर..कवि कुलवंत
    http://kavikulwant.blogspot.com

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