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प्रिय दोस्तों,
संसार में, मानव के अलावा सभी प्राणीओ के व्यवहार के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है,किंतु जब कोई मानव, प्रेम जैसे नाज़ुक और पवित्र बंधन को निभाने के बजाय, हर अंग को जलाने वाली तेज़ धूप बनकर, अपना भाग्य विधाता खुद बनने की कोशिश करता है, तब ऐसे इन्सान को खुद ईश्वर भी सहायता नहीं कर सकता ।
तत पश्चात, सुलग कर राख के ढेर समान, अवशेष प्रेम को बचाने के लिये, उस मानव के सारे प्रयत्न ऐसे लगते हैं जैसे कि..!!
समूलं वृक्षं उत्पाट्य शखां उच्छेत्तुं कुतः श्रमः।
अर्थातः- जड़ के साथ पेड़ को काटने के पश्चात, शाखाएँ काटने की जहेमत क्यों उठाना?
वैसे अगर कोई सच्चा प्रेमी, चाहे तो राख से, फिर से फीनिक्स पंखी कि भांति प्रेम भी सजीवन हो सकता है, मगर यह शक्ति प्राप्त करने से पहले प्रेम क्या है, यह जानना अति आवश्यक है।
वास्तव में प्रेम क्या है?
प्रेम इच्छा है - प्रेम महेच्छा है ।
प्रेम बिंब है - प्रेम प्रतिबिंब है ।
प्रेम पुकार है - प्रेम स्वीकार है ।
प्रेम मदहोश है -प्रेम बेहोश है ।
प्रेम हार है -प्रेम जीत है ।
प्रेम धड़कन है -प्रेम तड़पन है।
प्रेम घटा है -प्रेम बिजली है।
प्रेम सावन है -प्रेम पावन है ।
प्रेम चमन है - प्रेम वसंत है।
प्रेम शर्म है -प्रेम वहम है।
प्रेम शराब है -प्रेम शबाब है।
प्रेम निकट है -प्रेम विकट है ।
प्रेम मिलन है -प्रेम विरह है ।
प्रेम बंदगी है -प्रेम जिंदगी है ।
प्रेम नित है -प्रेम सत्य है ।
प्रेम शिव है प्रेम सुंदर है ।
प्रेम ईश्वर है -प्रेम ही परमेश्वर है ।
जब ईश्वर कि कृपा होती है तब प्रेम का बीज अंकुरित होता है । आशा के पुष्प खिलते हैं और लगता है जैसे पपिहे की हर एक बोली के साथ वसंत पूर्ण रुप में खिल उठी है , किसी को प्यार करने की ऋत छा गई है ।
हे प्रीतम, स्वर्ग से भी सुंदर चमन सजायेंगे ।
देखो देखो हरी-भरी वसंत छा रही है ।
हे प्रीतम, प्रेमांकुर अंकुरित होते ही, आशा का संचार हुआ है ।
क्या कहूं,तुमसे प्यार करने की ऋत छा गई है ।
यह सितारे, ये नक्षत्र स्थानांतरित होंगे फिर से ।
विधाता भी लेख लिखें फिर से ।
विधाता को भी ये ज्ञात हो गया है ।
क्या कहूं, तुमसे प्यार करने की ऋत छा गई है ।
प्रेम की धारा बहेगीं यहाँ फिर से ।
ये पुष्प भ्रमर को मनायेंगे फिर से ।
फूलों को भी ये ज्ञात हो गया है ।
क्या कहूं, तुमसे प्यार करने की ऋत छा गई है ।
ये धरती ये अंबर एक हो जायेंगे फिर से ।
मेरे दिल में चूपके से कोई आयेगा फिर से ।
हवा गुनगुना रही कानों में धीरे से ।
क्या कहूं, तुमसे प्यार करने की ऋत छा गई है ।
प्यार ही पूजा । प्यार ही परमात्मा । प्यार ही बंदगी । यह तीनों का सुलभ समन्वय, इसी का नाम है जिंदगी ।
प्रिय दोस्तों, आपका अनुभव क्या कहता है ?
इसी प्यार को सुरों की माला में पिरोकर, पेश है, उस्ताद श्री बड़े ग़ुलाम अली साहब की एक रचना,"भोर भयी ।"
आप इस लिंक पर, इसे डाउनलोड भी कर सकते हैं ।
http://goo.gl/EIEoa
मार्कण्ड दवे. दिनांकः ०७ -मार्च - २०११.
Badhiya hai jee!
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