हँसने में पैसा नहीं लगता 
बल्कि चेहरा खिले गुलाब सा होता है 
खिले चेहरे को देख सबका दिन खिलता है 
साधारण चेहरा भी तराशा हुआ हीरा लगता है 
....
फिर ख़ुशी मिले या ग़म 
मुस्कुराइए,हँसिये 
जो आपको रोते देखना चाहते हैं 
उनके सीने कर एकलव्य के बाण की तरह उतरिये 
.... 
हँसने की कला आंतरिक होती है 
किसी द्रोण की ज़रूरत नहीं 
एक मुस्कान,एक खिलखिलाहट 
बच्चों को निर्भय होना सिखलाती है 
विपरीत परिस्थितियों में जीने का सूत्र दे जाती है  … 
.... 
मुस्कान हो चेहरे पर 
तो समझो तुम्हारी असली पूजा हो गई 
क्योंकि हँसते हुए चेहरे की लकीरों में 
प्रार्थना के बोल होते हैं 
.... 
ईश्वर बिना कोई फर्क किये 
सबके दरवाज़े 
हर रात हँसी का दीया जला जाता है 
उसके अलौकिक प्रकाश में 
रास्तों की पहचान दे जाता है 
………… 
………… 
………… 
तो हँसो न  … 

पर ध्यान रहे- हंसी सार्थक हो,किसी का मज़ाक नहीं - हँसने पर भी निगाहें हैं :)

( अनिल रघुराज )

स्कूलों-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के लिए हमारे कोर्स बनाने वाले वाकई धन्य हैं। उन्हें यकीन है कि वो अब भी इमरजेंसी जैसे माहौल में रह रहे हैं और सरकार के खिलाफ लगनेवाली कोई सामग्री कोर्स में शामिल कर लेंगे तो उनकी मिट्टी पलीद कर दी जाएगी। इसलिए वो राजनीतिक कविता पर भी बड़ा निरामिष-सा, तटस्थ-सा मुलम्मा लगा देते हैं। नहीं तो क्या तुक है कि दिल्ली में 12वीं के हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल रघुवीर सहाय की इस कविता की भूमिका में लिखा गया है कि कवि यहां हँसने की सलाह दे रहा है क्योंकि हँसना स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होता है। तो चलिए आप भी थोड़ा ‘हँस’ लीजिए और पढ़िए यह कविता...

हँसो कि तुम पर निगाह रखी जा रही है
हँसो, मगर अपने पर मत हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट
पकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो, वरना शक होगा कि
यह शख्स शर्म में शामिल नहीं है और मारे जाओगे

हँसते-हँसते किसी को जानने मत दो कि किस पर हँसते हो
सबको मानने दो कि तुम सबकी तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाय

जितनी देर ऊंचा गोल गुंबद गूंजता रहे, उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से, गूंज थमते-थमते फिस हँसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फंसे
अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे
हँसो, पर चुटकुलों से बचो क्योंकि उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हों जो किसी ने सौ साल पहले दिए हों

बेहतर है कि जब कोई बात करो, तब हँसो 
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हँसो जो कि अनिवार्य हों
जैसे गरीब पर किसी ताकतवर की मार
जहां कोई कुछ नहीं कर सकता
उस गरीब के सिवाय
और वह भी अक्सर हँसता है

हँसो हँसो जल्दी हँसो
इससे पहले कि वह चले जाएं
उनसे हाथ मिलाते हुए, नज़रें नीची किए
उनको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी हँसे थे...


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(डॉ टी एस दराल)
नोट: ऐसा प्रतीत होता है कि आजकल के भाग दौड़ और तनावपूर्ण जीवन में लोग हँसना ही भूल गए हैं। तभी तो अधिकतर लोगों के माथे पर भ्रकुटी तनी हुई और चेहरा गंभीर व ग़मगीन नज़र आता है। विशेष रूप से व्यावासिक जीवन में जो जितना सफल होता है, वह उतना ही ज्यादा गंभीरता का मुखोटा ओढे रहता है। इसीलिए आजकल भारत जैसे विकासशील देश में भी हृदय रोग , मधुमेह व उच्च रक्तचाप जैसी भयंकर बीमारियाँ पनपने लगी हैं।

हँसना स्वास्थ्य के लिए कितना लाभदायक है , यह बात हमारे धार्मिक गुरुओं के अलावा डॉक्टरों से बेहतर और कौन समझ सकता है। ठहाका लगाकर हँसना एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे न सिर्फ़ शरीर का प्रत्येक अंग आनंदविभोर होकर कम्पन करने लगता है, बल्कि दिमाग भी कुछ देर के लिए सभी अवांछित विचारों से शून्य हो जाता है। इसीलिए हंसने को एक अच्छा मैडिटेशन माना गया है।

लेकिन आज के युग में हँसना भी एक कृत्रिम प्रक्रिया बन गया है। ठहाका लगाकर हंसने के लिए आवश्यकता होती है एक सौहार्दपूर्ण वातावरण की , जो केवल व्यक्तिगत मित्रों के साथ ही उपलब्ध हो पाता है। और आज के स्वयम्भू समाज में अच्छे मित्र भला कहाँ मिल पाते हैं। इसीलिए आजकल खुलकर हँसना दुर्लभ होता जा रहा है।

देखिये ये कैसी विडम्बना है कि---

वहां गाँव की उन्मुक्त हवा में , किसानों के ठहाके गूंजते हैं ,
यहाँ शहर में लोग हंसने के लिए भी, कलब ढूँढ़ते हैं।

आजकल शहरों में जगह जगह लाफ्टर कलब बन गए हैं ,जहाँ लाफ्टर मैडिटेशन कराया जाता है। लेकिन मुझे तो लगता है कि इस तरह की कृत्रिम हँसी सिर्फ़ मन बहलाने का एक साधन मात्र है। वास्तविक हँसी तो नदारद होती है। जरा गौर कीजिये , एक पार्क में २०-३० लोगों का समूह , एक घेरे में खड़े होकर , झुककर ऊपर उठते हैं , हाथ उठाते हैं, और मुहँ से जोरदार आवाज निकलते हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि वे लाफ्टर मैडिटेशन नहीं, बल्कि बाबा रामदेव का बताया हुआ कब्ज़ दूर करने का आसन कर रहे हों। उसमे आवाज तो होती है, मगर हँसी नही होती।
मित्रो, हंसने के लिए स्वाभाविक होना अति आवश्यक है , साथ ही जिंदगी के प्रति अपना रवैया बदलना भी जरुरी है। जीवन की छोटी छोटी बातों से , घटनाओं से, कुछ न कुछ हास्य निकल आता है, जिसे फ़ौरन पकड़ लेना चाहिए और उसे हँसी में तब्दील कर देना चाहिए। ऐसा करके न सोर्फ़ आप हंस सकते हैं बल्कि दूसरों को भी हंसा सकते हैं। याद रखिये जो लोग हँसते हैं , वो अपना तनाव हटाते हैं, लेकिन जो हंसाते हैं वो दूसरों के तनाव भगाते हैं। यानी हँसाना एक परोपकारिक कार्य है। तो क्या आप यह सवोप्कार एव्म परोपकार नही करना चाहेंगे? 

जिंदगी का मंत्र --

हर हाल में जिंदगी का साथ निभाते चले जाओ, 
किंतु हर ग़म , हर फ़िक्र को , धुएँ में नही ,हँसी में उडाते जाओ। 

आप पिछली बार दिल खोलकर कब हँसे थे , जरा सोचियेगा जरूर!



(काजल कुमार)
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव पर आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी समय परिकल्पना पर...तबतक के लिए शुभ विदा।

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