विगत १५ अगस्त से जारी है परिकल्पना पर एक महत्वपूर्ण परिचर्चा : आपके लिए आज़ादी के क्या मायने है ?
इस विषय पर आपने अभी तक श्री समीर लाल, श्री सरस्वती प्रसाद, श्रीमती रश्मि प्रभा, श्री मनोज कुमार, श्री मति शिखा वार्ष्णेय, श्री अविनाश वाचस्पति और श्री दीपक मशाल के विचारों से रूबरू हुए .....आज परिचर्चा के चौथे दिन की शुरुआत हम करने जा रहे हैं प्रख्यात साहित्यकार श्री गिरीश पंकज से -

बहत पहले मैंने एक गीत लिखा था, आज यह आलेख लिखते हुए याद आ गया. एक अंश ही रख रहा हूँ,
ऐसा लोकतंत्र ले कर के आये कोई,
निर्भय हो कर मन की पीड़ा गाए कोई
पुलिस यहाँ सत्ता का हुकुम बजाती है,
जब देखो लाठी-गोली बरसाती है.
दुश्मन को भी बढ़ कर गले लगाए कोई.
ऐसा लोकतंत्र ले कर के आये कोई....
आजादी मेरे लिये एक शब्द नहीं, यह आराधना है, उपासना है. शिल्प है. यह एक गीत है, जिसे मैं नित्य गुनगुनाना चाहता हूँ. आज़ादी मेरे लिये जीने का सामान है. ईश्वर का वरदान है. आज़ादी मनुष्यता की पहली शर्त है. जो समाज या राष्ट्र आजादी को छीन लेनाचाहता है, वह कायर है, बुजदिल है. सबको बोलने की स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिए. अगर हम (सही मायने में) मनुष्य है, तो हममें प्रतिरोध सहने की क्षमता होनी ही चाहिए. लेकिन दुर्भाग्यवश, आज हर लोकतान्त्रिक सत्ता प्रतिरोध को बर्दाश्त नहीं कर पाती. प्रतिरोध करने वाले को दबाना, उसे नष्ट करना राजशाही प्रवृत्ति का परिचायक है. और अपने देश में यह प्रवृत्ति जोर मार रही है इसीलिये मुझे दुखी हो कर कहना पड़ता है
लोकतंत्र शर्मिन्दा है,
राजा अब तक ज़िंदा है.
हमने अपनी बात रखी
वे समझे यह निंदा है.
तो...यह परिदृश्य है. इसलिए मैं चाहता हूँ ,कि अपना लोकतंत्र ईमानदार बने. यहाँ सही अर्थों में आजादी का आस्वादन मिल सके. अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले की जान सलामत रहे. विरोध मे जो लोग सड़कों पर उतरते है, उन पर लाठियां क्यों बरसती हैं..? गोलियाँ क्यों दागी जाती है. आजादी का मेरे लिये यही अर्थ है, कि जो सत्ता के किसी निर्णय का विरोध कर रहे हैं, उन्हें बर्दाश्त किया जाये, और आत्म-मंथन कर सोचाजाये कि ऐसी क्या बात है, कि लोग सडकों पर उतर आए हैं. इस देश में प्रतिरोधों के लिये उठे स्वरों को दबाने की कोशिशें लगातार होती रही है, आज़ाद भारत में गोलीचालन की घटनाये, ग़ुलाम भारत के दौर से ज्यादा हुई है,यह शर्मनाक बात है. चालीस साल पहले दिल्ली में गो वध पर रोक लगाने के लिये हजारों लोगों ने प्रदर्शन किया था. तब उन पर गोलियाँ चलायी गयी थे. तब अनगिनत लोग मारे गए थे. उसके बाद किसी ने प्रतिरोध की हिम्मत ही नहीं की. और नतीजा सामने है- गोवंश कटता जा रहा है. यह लोकतंत्र की निशानी नहीं है.मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, कि अभी हमारा लोकतंत्र नकलीपन को जी रहाहै. अभी भी आजादी यहाँ आज़ादी के साथ नहीं टहल पा रही है. अभी भी बंधन है,अभिव्यक्ति पर सौ-सौ पहरे हैं, फिर काहे की आजादी? आप दहेज़ प्रथा का विरोध करे, अंधश्रद्धा का विरोध करे, भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद करे, अमरीका कुछ गलत कर रहा है, तो चीखे -चिल्लाएं, दाउद इब्राहीम की निंदा करते बैठे रहे. लेकिन खामोश, पुलिस कि निंदा मत करना, सरकार के खिलाफ सडकों पर मत उतरना, नारे मत लगाना, पुतले मत जलाना, वरनाखैर नहीं. सर फूट सकता है, गोली मरी जा सकती है. आजादी के बाद से नागरिकों पर अत्याचार बढ़ाते ही जा रहे है. इसलिए अगर आज इस बात पर विमर्श किया जा रहा है, कि आज़ादी का मेरे लिये या किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिये क्या मायने है, तो सही दिशा में सोचा जा रहा है.
लेकिन एक दूसरे पहलू पर भी बात कहना चाहता हूँ, और यह पहलू भी ज़रूरी है. आजादी का मेरे लिये मायने यह भी है कि हम एक आदर्शनागरिक बन आज़ादी का रचनात्मक उपयोग करे. आजादी का अर्थ यह नहीं,कि हम राष्ट्र की संपत्ति को नष्ट करने की बहादुरी दिखाएँ. आज़ादी के नामपर हम नक्सली बन कर लोगों कि हत्याएं करते फिरे. आजादी का अर्थ यह भी नहीं कि हम देश विरोधी बयान दे. तिरंगे का अपमान करे, राष्ट्रगान का अनादर करें. संविधान को ही न मानें.वन्देमातरम का विरोध करे. साम्प्रदायिकता फैलाये. आजादी का अर्थ यह भी न हो कि हम खुले आम अपने देश को गलियाँ दें. आजादी एक नैतिक सौगात है. इसे संभालकर रखने की ज़रुरत है. मेरे लिये आजादी का यही मायने है.इसे हम एक प्रसाद की तरह ग्रहण करें. इसे बचने के लिये संघर्ष के लिये भी तैयार रहे. बलिदान के लिये भी तैयार रहे. लेकिन यह ध्यान में रखें कि आजादी अनमोल है. लाखों लोगों ने कुर्बानियां दी है, तब यह आजादी हमें मिली है. इसे बचा कर रखना हमारा धर्म है, कर्तव्य है. जिम्मेदारी के साथ प्रतिरोध करना लोकतंत्र की, आजादी की पहलीनिशानी है. यह निशानी सलामत रहे, आज़ादी का मेरे लिये यही मायने है.
गिरीश पंकज
(वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग विचारक)
http://sadbhawanadarpan.blogspot.com/

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परिकल्पना पर जारी है यह परिचर्चा मिलते हैं सुबह ११ बजे फिर किसी चिट्ठाकार के विचारों के साथ ......

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