
लोग सोचते हैं, हरेक को आज़ादी है, जो चाहे करें ! यह व्यक्तिवादी विचार है। समाज में ऐसी परिस्थितियाँ नहीं हैं जो व्यक्ति को मनोवांछित करने का मौका देती हों। जन्म लेते ही जिन्दा रहने, स्वस्थ रहने के लिए पैसा लगता है। शिक्षा के द्वार पर खड़े होने से पहले अपनी जेब टटोलनी पड़ती है। पेट भरने, तन ढकने और सर पर एक अदद छत का इंतज़ाम करने के लिए इफरात पैसा लगता है। जिसके पास पैसा नहीं है वह आज़ाद तो है मगर एक आज़ाद मुल्क में उसके लिए कुछ भी नहीं है। हाँ, आपको किसी भी तरह से पैसा कमाने की आज़ादी है, परन्तु इसके लिए छिना-झपटी, चोरी-डकैती, ठगी, दलाली या वैश्यावृति तक करना पड़ सकता है, यह आज़ादी आप को है। लेकिन जब आप सामूहिक आज़ादी की बात करते हैं तो कोई भी समाज, कोई भी देश, कोई भी राष्ट्र, अपने नागरिकों को इस तरह भगवान भरोसे नहीं छोड़ सकता जैसा हमारे देश में देखा जा सकता है। आज़ादी का फल भोगने की आज़ादी हरेक को होना चाहिए। मगर जब तंत्र पर वर्ग विशेष का कब्ज़ा हो तो शोषितों की किसी भी तथाकथित आज़ादी को कोई अर्थ नहीं रह जाता।

( वर्ष के श्रेष्ठ लेखक : हिंदी चिट्ठाकारी )
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जारी है परिचर्चा, मिलते हैं एक अल्पविराम के बाद..........
nice
जवाब देंहटाएंसही बात.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति
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