ऋषि मुनियों के आर्षवचन और वेद उपनिषदों सी पावन हमारी देवभूमि पर छलप्रपंच का जाल बिछाकर फिरंगियों ने अपना सिक्का जामा लिया था . भारत माँ का बंदिनी रूप हमें सालता रहा -क्योंकि ,
"बड़ा ही गहरा दाग है यारों जिसका गुलामी नाम है
उसका जीना भी क्या जीना जिसका देश गुलाम है "

माँ के वीर सपूतों के सामने जीवन का एक ही लक्ष्य था - माँ को मुक्त करके उनके मस्तक पर आजादी का ताज पहनना ।

गुलामी के कफ़स में घुटती साँसों के लिए आजादी का सपना शीतल हवा का ऐसा सुखद स्पर्श था , जो रोम-रोम को उर्जावान कर दे . गुलामी के जलते मरू में चलनेवालों ने आजादी का जो सपना देखा , उसे पूरा करने के लिए बेख़ौफ़ होकर आजादी की बलिवेदी पर मरण त्योहार मनाया . जीवन की इस उपलब्धि के लिए फांसी के फंदे को चूमा . और इन्कलाब जिंदाबाद का नारा बुलंद करते हुए मौत के पैगाम को अपना लिया. क्या जोश था और क्या जज्बा ! कैसे कोई उनदिनों को भुला पायेगा -
" कट तो गई पर झुकी न गर्दन, ये थी शान तुम्हारी
हाथ कटा पर गिरा न झंडा
दिलवालों के काम, शहीदों तुमको मेरा सलाम !"

आखिरकार फिरंगियों ने अपना जाल समेटकर बोरिया बिस्तर बाँधा और सात समंदर पार लौट जाने की तैयारी कर ली . वह १४ अगस्त , १९४७ की शाम थी - लोग अपने -अपने घरों से निकलकर जश्ने बहारा में शामिल होने के लिए जा रहे थे . आजादी विधाता के अनुपम वरदान-सी आनेवाली है , कुछेक घंटों बाद आनेवाली है . मेरे पाँव भी बाहर जाने को मचले , पर तब हमें बाहर निकलने की मनाही थी .
मैंने ग्रामोफोन पर ये गीत लगा दिया ---
" आहें ना भरी शिकवे न किये कुछ भी न जुबां से काम लिया
फिर भी ये मुहब्बत छुप ना सकी जब तेरा किसी ने नाम लिया "
मुहब्बत थी आजादी , जिसकी सतरंगी चादर धरती आकाश को मिलाने जा रही थी , आजादी का बिगुल बजने ही वाला था . सारा शहर उन्मत्त होकर झूम रहा था . सड़कें अबीरी हो रही थीं , सितारों की दुनिया में उड़ता गुलाल आजादी के तराने लिख रहा था . घड़ी की सुइयां १२ पर जाते ही चदुर्दिक दिशाएं गा उठीं -
" वन्दे मातरम् सुजलाम सुफलाम मलयज शीतलाम
शश्य श्यामलं मातरम् .........."
आतिशबाजी होने लगी , हवा जलतरंग बजाने लगी , मंदिरों में शंख-घड़ियाल बजने लगे . रंगबिरंगी मिठाइयां बाँटने लगीं . शहीदों की कुर्बानी रंग लाई. अब अपनी धरती , अपना आकाश था. प्रत्येक मन में उम्मीदों ने नई करवट ली. नई आशाओं के दीप जगमगा उठे अपनों का राज्य हुआ, अपने लोग देश के कर्णधार बने . और अब आजादी को ६३ साल बीत चुके हैं . लोग बदलते गए, रहन-सहन, संस्कार बदले . राजे रजवाड़े ख़त्म हुए , देश के कर्णधारों ने उनकी जगह ले ली. स्थिति यह हुई - कल गैरों के आगे रोते थे , 'आज अपनों के आगे रोते और अपमान का घूंट पीते हैं . ' एक आम आदमी से पूछकर देखिये तो वह यही कहेगा -
"यहाँ पर ज़िन्दगी भी मौत सी सुनसान होती है
यहाँ किस दोस्त की किस मेहरबां की बात करते हो
अमां तुम किस वतन के हो कहाँ की बात करते हो !"

सरस्वती प्रसाद
(वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका, संस्मरण )
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आपके लिए आज़ादी के क्या मायने है? विषय पर आधारित इस परिचर्चा में सरस्वती जी के विचारों से रूबरू होने के बाद आगे बढ़ें अन्य चिट्ठाकारों के विचार जानने के लिए उससे पहले लेते हैं एक अल्प विराम .......कहीं मत जाईयेगा हम अभी गए और अभी आये ....!

11 comments:

  1. सही कहा ...गुलामी एक दाग ही है ...लेकिन आज हम अपनों के आगे रोते हैं यह भी सच है ..और जब अपनों कि वजह से रोते हैं तो ज्यादा तकलीफ होती है ...
    सार्थक लेख

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  2. अम्मा जी!

    सुन्दर, सार्थक, व सामायिक लेख.......

    प्रणाम स्वीकार करें.

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  3. कल गैरों के आगे रोते थे ...आज अपनों की आगे ..
    यही निर्मम सत्य है ....

    सामायिक चिंतन ...
    आभार ..!

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  4. jo usa gulami se mukt hone ke liye lade , ve aaj bhi apani aatma se dukhi honge ki unaki kurbani ka kya sila diya isa desh ke in netaon ne.
    ham aajad kahin se bhi nahin hain.
    us samay videshi sarakar thee aur aaj hamari hi chuni hui. hamari ajadi ka majak uda rahi hai.

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  5. desh ki aazadi aur batwaare ka dansh ek sath mila. waqt beeta par zakham na bhara aur na bharne diya gaya, jo rah rah kar teesta rahta hai. bahut sach kaha...

    कल गैरों के आगे रोते थे , 'आज अपनों के आगे रोते और अपमान का घूंट पीते हैं .

    achhi prastooti, shubhkaamnaayen.

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  6. बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति

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