इस विशेष परिचर्चा के नौवें दिन का समापन एक ऐसे चिट्ठाकार से कर जो राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए पिछले 14 वर्षों से सरकारी कार्यालयों में कार्य कर हैं । ये अब तक दो बडी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में राजभाषा के साथ जुड़े रहे हैं । कई पत्रिकाओं में इनके राजभाषा संबंधी लेख प्रकाशित हुए हैं। राजभाषा से जुड़ी कई पत्रिकाओं के प्रकाशन से जुड़े रहे हैं , वर्तमान में बैंक आफ इंडिया के प्रधान कार्यालय, मुंबई में अपने लक्ष्‍य को लेकर आगे बढ रहे हैं ।
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15 अगस्त, 2010 को देश का स्‍वतंत्रता दिवस है। उस देश का जिसके लिए कभी हजारों अरमानों ने सुंदर सपने संजोए थे। यह कटु सत्य है कि हमने स्‍वतंत्रता का स्वाद बहुत ही कड़वे रूप से चखा है। देश में स्‍वतंत्रता के साथ ही खून की होली खेली गई और इस स्व‍तंत्रता के वास्ताविक मायने पहले की दिवस से खत्म हो गए। हमने आंसूओं के साथ ही सही लेकिन स्वतंत्रता की खुशी मनाई। देश की बागढोर संभाली गई और हमने रियासतों को इकठ्ठा किया और भारत को एक देश का रूप मिला। हम अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुए लेकिन विडंबना यही रही कि हम मानसिक रूप से उनकी गुलामी नहीं छोड़ पाए। हमें देश को चलाने के लिए जिस सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी वो भी आपसी राजनीतिक लड़ाई के कारण कभी ऊभर के सामने नहीं आ पाया। स्वतंत्रता से लेकर आज तक जब भी हमने कोई निर्णय लिए वो कागजी घोडे दौड़ाने जैसे ही रहे। हमने कभी भी सशक्त निर्णय लेने का साहस नहीं किया हमेशा बीच का रास्ता अपनाया। मसलन हमारे पास अर्थव्यनवस्था के संबंध में दो रास्ते थे कि या तो हम समाजवाद को या फिर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अपनाएं हमने बीच का रास्ता अपनाया और मिश्रित अर्थव्यवस्था चुनी। हमारे पास अमेरिका और रूस दोनों में से एक के साथ जाने का रास्ता था हमने किसी भी गुट में शामिल न होने का निर्णय लिया और गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई,देश का बंटवारा हुआ और यह कहा गया कि जो भारत में रहना चाहते हैं यहीं रहो और जो पाकिस्तापन जाना चाहते हैं वहां जाओ। हमारा संविधान कटोर रहे या लचीला तो हमने लिखा कटोर भी लचीला भी, देश कृषि को ज्याहदा बढावा दे या औद्योगिक विकास को तो निर्णय हुआ दोनो को, शिक्षा की पद्धति देशी हो या विदेशी, भाषा देशी हो या विदेशी तमाम इस तरह उदाहरण है जो यह स्पष्ट करते हैं कि आज तक हमारे निर्णयों में सशक्तता किसी भी स्तर पर अर्थात पूर्ण प्रणाली के रूप में दिखाई ही नहीं देती और इसका असर आज हम देश के प्रशासन के प्रत्येक स्तर पर भी देख सकते हैं। स्वतंत्रता से लेकर आज तक हमारे लचीले निर्णयों ने हमें इस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां आज देश भ्रष्ट नेताओं, अफसरशाहों और घूसखोरों का देश लगता है और निरंकुशता अपने चरम से भी आगे पहुंच गई है। कई बार तो मुझे प्रतीत होने लगता है कि देश अनचाहे रूप में ही सही परंतु ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि जहां अब मुठठी भर लोग इस प्रयास में लगे हैं कि लोग हमेशा गुलामी की जिन्दगी जिएं और अमीरों के लिए काम करते रहें।

देश की शिक्षा व्यवस्था, स्वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍था, लोगों का जीवनस्‍तर की स्‍थिति सभी चरमराई हुई हैं। सरकारों ने हाथ खड़े कर दिए हैं इसलिए तो शिक्षा,स्वास्‍थ्‍य और रोजगार जैसी जरूरतों के लिए सरकार कुछ अमीर लोगों का मुंह ताकती है। हमारे गरीब और भूखे लोगों को शायद यह भी पता नहीं कि हम स्वतंत्र हो गए हैं और हमारा अनाज निर्यात होता है, वो तो आज भी भूखमरी से स्वतंत्रता चाहते है। जिस लोकतंत्र के बड़े होने की बात हम विश्व भर में अपना गुणगान करने के लिए करते हैं उस लोकतंत्र में अब केवल तंत्र की ही बात चलती है, लोक इस तंत्र से बाहर हो चुके हैं। लोक तो आज भी गुलाम ही है, नेताओं के, बडे रसूक वाले लोगों के,उद्योगपतियों के और भ्रष्टाचारियों के। देश का हर कानून इन्हीं लोगों की उगूलियों पर चलता है और यदाकदा कुछ मीडिया के माध्यम से मिले उदाहरणों के अलावा हमेशा गरीब ही मारा जाता है।

आइए स्वतंत्रता के मायने देखें, भ्रष्टाचार में विश्व में भारत का पहला स्थान है अर्थात् हम भ्रष्टाचार के गुलाम हैं। हम अपनी ईमानदार आवाज उठाने के लिए आगे बढें तो गोलियों रोकती है यानि हम लूटखारों के गुलाम हैं। महंगाई को कम करने की बात पर सड़क पर उतरते हैं क्‍योंकि सरकार ही मुनाफाखोरों की गुलाम है। हमारे यहां बड़ी दुर्घटनाओं और त्रासदियों जैसे बाढ़, भोपाल गैस लीकेज, 1961, 1971 की लड़ाई, 1984 दंगे, 2002 गुजरात दंगे और न जाने ऐसी कितनी ही गलत घटनाओं में जो लोग मारे गए, हम उनकी कुर्बानी का कर्ज न चुका सकने वाले गुलाम हैं। आज भी हम यदाकदा देश के कई राज्यों की अलग-अलग घटनाओं में देखते हैं कि लोग स्वतंत्रता से जीवनसाथी नहीं चुन सकते, विरोध के डर से किताबें नहीं लिख सकते, संस्कृति को बचाने के नाम पर लोग डराते हैं कहीं-कहीं तो भावी जीवनसाथियों के साथ घूम नहीं पाते यदि संक्षेप में कहें तो हम तमाम असमाजिक तत्वों के गुलाम है। इस देश में गुलामी के इतने उदाहरण हैं कि यहां लिखता रहूंगा और जिंदगी बीत जाएगी। देश की व्यवस्था आज नेताओं, भ्रष्ट अफसरों, भ्रष्टाचारियों, मुनाफाखोरों और उनके बच्चों तक सीमित है और और यह गिनती में देश की जनसंख्या का 1 प्रतिशत भी नहीं है अर्थात 1 प्रतिशत लोग स्वतंत्र हैं और बाकि सब इनके गुलाम। अभिनेताओं को छोड़ दिया जाए तो बाकि पूरा तंत्र दोनों हाथों से देश को लूट रहा है।

अब बताएं हम किसी भी मायने में कही से भी स्वतंत्र है कहां? मैं तो यही मानूंगा कि अंग्रेजो से चाहे ही हमने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली लेकिन काले अंग्रेजों के खिलाफ एक अंतिम युद्ध लड़ने के लिए देश की जनता को फिर तैयार होना है। देश में हर तरफ से हो रहे शोषण को रोकने के लिए हमें स्वतंत्रता की लड़ाई पुन: लडने होगी और यह लडाई तमाम उन लोगों के खिलाफ होगी जिनका उल्‍लेख मैने लेख में किया है। आज एक देश में दो देश की बात कही जाने लगी है और इन देशों में एक गरीबी और भूखमरी का शिकार देश है और दूसरे देश में गुलाम लोग कुछ अमीर लोगों के लिए काम कर रहे हैं। जिन शहीदों को हम स्वतंत्रता दिवस समारोहों में याद करते हैं उनके स्मारकों और विचारों की देश में क्या दुर्दशा हो रही है यह लिखने की आवश्यकता नहीं।
यही है हमारी स्वतंत्रता के 62 वर्ष के मायने।
()शकील खान
http://swatantravani.blogspot.com/

जारी है परिचर्चा, मिलते हैं कल फिर किसी चिट्ठाकार के विचारों के साथ....

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