जो झूठ बोलते हैं वे कसम ... अपने बच्चों की कसम बहुत जल्दी खाते हैं
जो सच बोलते हैं,उनको अपने सच पर भरोसा होता है
किसी भी यकीन के लिए वे बच्चों को बीच में नहीं लाते !
कोर्ट में भी अत्यधिक भक्तिभाव से गीता की कसम वही दुहराते हैं
जिनके घर में अनहोनी घटती है
वे बस गीता को मूक भाव से देखते हैं !!!....................... इस बात से समाज में कौन अनभिज्ञ है,फिर भी ........................ !!! दुखद है,पर यही है . मज़े की बात जनता जो सब जानती है,वह झूठ के पीछे गवाह की शक्ल लिए खड़ी हो जाती है . फिर दुःख का क्या मूल्य ???
समाज के विभिन्न नज़रियों से आपकी मुलाक़ात करवाती हूँ ताकि आप जान सकें - सामाजिक स्थिति और चिंतन को .......... रश्मि प्रभा
समाज को पहल करने की आवश्यकता ...
आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी विकास के बावजूद हमारा देश मानसिक रूप से अभी भी पिछड़ा है, वह अभी भी पुरुष प्रधान होने के दंभ में जकड़ा हुआ जबकि प्राचीन काल से यहाँ तक की हमारे पौराणिक ग्रंथों में भी स्त्री को प्रथम पूज्य माना गया है. वर्तमान में घट रही अपराधिक घटनाएँ इसका सबसे बड़ा सबूत हैं, इस रोकने के लिए समाज और प्रशासन के साथ-साथ समाज को पहल करने की अत्यंत आवश्यकता है...
क्या हम सच में सभ्य हो रहे हैं ?
हम कितने सभ्य हो गये हैं ..आज हमे आज़ाद हुए कितने बरस बीत गये हैं और हमारे सभ्यता के कारनामो से तो आज के पेपर भरे रहते हैं नमूना देखिए बस में बाज़ार में किसी की जेब कट गयी है ,मामूली बात पर कहसुनी हो गयी .सड़क दुर्घटना का कोई शिकार हो गया जिसे तुरंत हस्पिटल पहुंचाना है पर हम लोग देखा अनदेखा कर के निकल जाते हैं .क्या करे कैसे करें दफ़्तर के लिए देर हो रही है ..कौन पुलिस के चक्कर में पड़े आदि आदि ..यही सोचते हुए हम वहाँ से आँख चुरा के भाग जाते हैं ..सच में कितने सभ्य हो गये हैं ना ....हर वक़्त वक़्त से आँख चुराने कि कोशिश करते रहते हैं ...
हमारा जीवन दर्शन बदल चुका है वह भी उस देश में जहाँ पड़ोसी की इज़्ज़त हमारी इज़्ज़त गावं की बेटी अपनी बेटी .अतिथि देवो भावा ,सदा जीवन उच्च विचार .रूखा सूखा चाहे जो भी खाओ मिल बाँट के खाओ ...........जैसे वाक्य हमारे जीवन दर्शन के अंग रहे हैं ॥आज आपके पड़ोसी के साथ कुछ भी हो जाए पर आपको पता ही नही चलता है ..सबको अपनी अपनी पड़ी है यहाँ आज कल ..कोई किसी मुसीबत में पड़ना ही नही चाहता है ,चाहे उस व्यक्ति को अपने जीवन से हाथ धोने पड़े ..पर हम तो सभ्य लोग हैं क्यों सोचे किसी के बारे में ..??? काश कि हम अपनी जीवन के पुराने दर्शन को फिर से वापस ला पाते और सच में सभ्य कहलाते ..अभी भी वक़्त नही बीता है यदि समाज़ के कुछ लोग भी अपने साथ रहने वालो के बारे सोचे तो शायद बाक़ी बचे लोगो की विचारधारा यह देख के कुछ तो बदलेगी ॥सिर्फ़ ज़रूरत है कुछ साहसी लोगो के आने की आगे बढ़ के पहल करने की ..अपनी सोई आत्मा को जगाने की ..तब यह वक़्त बदलेगा तब हम सचमुच में ही सभ्य कहलाएँगे !!..
अजब फिजा (कविता )
कुछ अजब फ़िज़ा हो गयी है
मेरे देश की
कुछ जहरीली विषेली हवाएं
शहर गांव सीमा हर जगह
पर अपना असर छोड़ रही है
इस से पहले की
भारतीय परम्परा
संस्कृति की दुहाई देने वाले
और धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले
हमारे देश के कई टुकड़े हो जाए
और यह विष उगलती हवा
कई बलिदान अपने साथ ले
जाए
थाम लो ख़ुद के हाथों में
विश्वास की डोर अब तुम ही
अमन ,प्यार का वही माहौल
और चैन की हवा फ़िर से
हर दिल पर बरस जाए !
और हर तरह के
भय से देश हमारा
मुक्त हो जाए !!
रंजना (रंजू) भाटिया
..सामाजिक मूल्यों का निर्माण तो हम अवश्य करतें है पर...उन मूल्यों को जीवन में अपनाने के लिए हम स्वयं को बाध्य नहीं समझतें!...हम हंमेशा दूसरों से अच्छे वर्ताव की अपेक्षा करतें है; क्यों कि दूसरों के प्रति स्वयं का वर्ताव हम अच्छा ही समझतें है!..समाज के आईने पर नजर डालने पर क्या हमें अपनी छबी नजर नहीं आती?

Surinder Ratti (http://surinderratti. blogspot.in/) ..
बात समाज की वर्तमान दशा की हो या फिर समाज को दिशा देने की जब तक रूढ़ी-प्रथाओं और सामाजिक मूल्यों में वर्तमान की अपेक्षाओं के हिसाब से 'फ्लेक्सिबिलिटी' नहीं होगी तो परिवर्तन के लिए स्पेस नहीं मिलेगा। इसलिए सामंती संस्थाओं की सार्थकता पर पुनः मंथन होना चाहिए।परिवर्तन का प्रथम सोपान हमारा अपना घर-परिवार है और समाज उसी का बाई-प्रोडक्ट है;इसलिए संस्कारों की पोथी रटाने की बजाय कर्म और उसकी संवेदनशीलता पर ध्यान दिया जाए तो सकारात्मक परिवर्तन की संभावना कुछ अधिक होगी।बच्चों में शिक्षा, सेक्स और कैरिअर को लेकर भय पैदा करने की जगह यदि हम उन्हें सजग रहना सिखाएं तो बेहतर होगा।

और कुछ इस तरह एक सुबह वह भी आएगी जब चेतना का एक-एक बिंदु मिलकर एक रेखा बन जाएगा .
चंद्रकांता http:// chandrakantack.blogspot.in/
स्थिति चिन्तनीय है और हम चिन्तन मे लगे हैं वो भी सिर्फ़ दूसरों के …………खुद का चिन्तन जिस दिन करेंगे समाज स्वंय सुधर जायेगा
जवाब देंहटाएंवंदना जी से सहमत हूँ ...... !
जवाब देंहटाएंदेश बदलने के पहले समाज और समाज से पहले परिवार तथा परिवार से पहले खुद की सोच बदलने की जरुरत होती है ..... !!
सोच बदले ..नजरिया बदले ..तभी सब संभव है ..अच्छा प्रयास लफ़्ज़ों से इस बात को कहने का .शुक्रिया रश्मि जी
जवाब देंहटाएंमोमबत्ती जला कर शांतिपूर्ण विरोध दर्ज कराना अच्छी बात है लेकिन यह सड़ चुकी व्यवस्था का विकल्प नहीं;विकल्प है राजनीति के प्रति उदासीन हो रहे युवाओं की सत्ता-व्यवस्था में भागीदारी।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ बहुत अच्छी व अर्थपूर्ण हैं!
जवाब देंहटाएंगहराई से सोचें...तो ये समस्या महज़ पुरुष और स्त्री के बीच तुलना की नहीं है, बल्कि ये ओछी सोच वाली, गिरी हुई, अनैतिक, असंतुलित मानसिक विकार की समस्या है....! हर उस स्त्री या पुरुष को रास्ते पर लाने की सोचना चाहिए जो ऐसी सोच रखते हैं! आपसी संतुलन बना रहना रहना चाहिए, हरेक को उसका हक़ व कर्तव्य पता होना चाहिए व उसका निर्वाह भी होना चाहिए ! तभी एक मकान घर बन सकता है, एक अच्छे समाज का निर्माण हो सकता है... एक सफल, मज़बूत देश का निर्माण हो सकता है!
और एक बात... बुज़ुर्ग सम्मान के अधिकारी हैं ...इससे मैं शत प्रतिशत सहमत हूँ ! मगर सिर्फ़ घूँघट करने से ही किसी के प्रति आदर भाव आ जाता है...ये बात नहीं समझ आती -आदर भाव दिल के भीतर से आता है!
~सादर!!!
.सार्थक भावनात्मक अभिव्यक्ति करें अभिनन्दन आगे बढ़कर जब वह समक्ष उपस्थित हो .
जवाब देंहटाएंआप भी जाने कई ब्लोगर्स भी फंस सकते हैं मानहानि में .......
सभी रचनाएं अच्छी हैं...सामाजिक मूल्यों में कमी भी एक बड़ा कारण है इन सब घटनाओं का। सोच बदलनी होगी...दुनिया बदलने के लिए..
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