एक शब्द .... दिनोंदिन मिलकर कई शब्द 
मेरी प्रार्थना के वक़्त में भी 
मेरे दिलोदिमाग को मथते हुए 
मुझे शून्य में ले जाते हैं 
मैं तलाशने लगती हूँ अपनी जिंदा लाश 
जो दफ़न है कई सालों से 
अपने सुनहरे सपनों के आँगन में !
जब जब गुजरती हूँ उस आँगन से 
मैं थाम लेती हूँ बसंत की डालियों को 
पतझड़ से शब्द निःशब्द बहते हैं ...
मैंने तो बसंत को जी भरके जीना चाहा था 
पर आँधियों ने ऋतुराज को स्तब्ध कर दिया 
और आतंक के काँटों ने गुलमर्ग सी चाह को 
लहुलुहान कर दिया !
रक्तरंजित पांव के निशाँ 
शब्द बन उगते हैं 
मन की घाटियों में चीखें गूंजती हैं 
.....
तब जाकर एक सुबह जीने लायक बनती है !!!

मात्र एक 'शब्द' की
घनघोर टंकार ने
उसकी समस्त चेतना को
My Photoसंज्ञाशून्य कर दिया है !
उस एक शब्द का अंगार
सदियों से उसकी
अन्तरात्मा को
पल-पल झुलसा कर
राख कर रहा है !
चकित हूँ कि
बस एक शब्द 
कैसे किसी
प्रबुद्ध स्त्री के
चारों ओर
अदृश्य तीर से
हिमालय से भी ऊँची
और सागर से भी गहरी
अलंघ्य लक्षमण रेखाएं
खींच सकता है 
और कैसे किसी
शिक्षित, परिपक्व
नारी की सोच को
इस तरह से पंगु
बना सकता है कि
उसका स्वयं पर से
समस्त आत्मविश्वास,
पल भर में ही डगमगा
जाये और एक
आत्मबल से छलछलाती,
सबल, साहसी,
शिक्षित नारी की
सारी तार्किकता को
अनायास ही
पाला मार जाये !
आश्चर्य होता है की
कैसे वह स्त्री
एक निरीह बेजुबान
सधे हुए
पशु की तरह
खूँटे तक ले जाये
जाने के लिए
स्वयं ही
उस व्यक्ति के पास जा
खड़ी होती है
जिसका नाम ‘पति’ है
और जिसने
‘पति’ होने के नाते
केवल उस पर अपना
आधिपत्य और स्वामित्व
तो सदा जताया
लेकिन ना तो वह
उसके मन की भाषा
को कभी पढ़ पाया,
ना उसके नैनों में पलते   
सुकुमार सपने साकार
करने के लिए
चंद रातों की  
निश्चिन्त नींदे  
उसके लिये जुटा पाया
और ना ही उसके
सहमे ठिठके  
मन विहग की
स्वच्छंद उड़ान के लिए
आसमान का एक
छोटा सा टुकड़ा ही
उसे दे पाया !
बस उसकी एक यही
अदम्य अभिलाषा रही कि
चाहे सच हो या झूठ,
सही हो या गलत  
येन केन प्रकारेण
उसे संसार के
सबसे सबल,
सबसे समर्थ और
सबसे आदर्श ’पति’
होने का तमगा
ज़रूर मिल जाये
क्योंकि वह एक
सनातन ‘पति’ है !  
नर्म लहज़े में
मैं  अनुलता .. आपकी नज़र  सेशफ़क ने कहा
उठो
दिन तुम्हारे इंतज़ार में है
और मोहब्बत है तुमसे
इस नारंगी सूरज को....
इसका गुनगुना लम्स
तुम्हें देगा जीने की एक वजह
सिर्फ  तुम्हारे अपने लिए...

सुनो न ! किरणों की पाजेब
कैसे खनक रही है
तुम्हारे आँगन में.
मानों मना रही हो कमल को
खिल जाने के लिए
सिर्फ तुम्हारे लिए.....

चहक  रहा है गुलमोहर
बिखेर कर सुर्ख फूल
तुम्हारे क़दमों के लिए....

जानती हो
ये मोगरा भी महका है
तुम्हारी साँसों में बस जाने को...

सारी कायनात इंतज़ार में है
तुम्हारी आँखें खुलने के...
जिंदगी बाहें पसारे खड़ी है
तुम्हें  आलिंगन में भरने को....

उठो न तुम...
और  कहो कुछ, इंतज़ार करती  इस सुबह से....
जवाब दो मेरे सवालों का...
सीली आँखें लेकर सोने वाले क्या उठते नहीं?
बातों का ज़हर भी क्या जानलेवा होता है ??
भावनाओं  में यूँ बहा जाता है क्या ???
कितनी गहरी नींद में हो तुम लड़की ????

जिंदगी  के दिये इन सुन्दर प्रलोभनों के सामने
कहीं मौत का दिया
मुक्ति का प्रलोभन भारी तो नहीं पड़ गया !!!

तुम 
अबूझ पहेली थे 
मेरे लिए ..
My Photoजिसे बूझने का प्रयास 
दे गया अनेक सवाल ------

और अब 
बूझ कर भी 
उन सवालों के बीच 
'मैं 'खुद बन गई 
एक अबूझ पहेली 
तुम्हारे साथ .------

मैंने यूँ ही खोलने चाहे 
कुछ दरवाज़े 
कुछ जंग लगी खिड़कियाँ 
और लकड़ी के कुछ रोशनदान 
अपनी भारी भरकम 
जिंदगी को कुछ हल्का बनाने। 
रखना चाहा पूरा घर 
तुम्हारे चूल्हे पर आकर
गिरवी।
My Photo
हम दोनों ने एक दूसरे की धूल को 
झाड़ने की बजाय
कोर दिए 
अपने अपने आकार के 
नए घर। 

अब तुम बीन लाती हो 
हर शाम ताज़ी हवा के कुछ तिनके 
और मैं जला लेता हूँ 
दिन भर की धूप से नहाया
फिर वही चूल्हा।

व्यथित हूँ...'Restless', I am... - Snehil's world(स्नेहिल श्रीवास्तव)

इन श्रृंखलाओं से व्यथित हूँ मैं
आस की, प्रहास की-
हर वक़्त मिटटी सांस की
सोचता हूँ अब रख छोड़ू
अपने तरकश के सारे तीर
तोड़ दूँ इन प्रभंजनो को
सारी वर्जनाओं को,
My Photoइन लहरों में उठती गिरती कामनाओं को
गहरी नींद से यकायक उठना
अब कोमल नहीं लगता
तब बात और थी-
जब मुस्कुरा उठता था
उस चमक को देखकर
उन शब्दों का मखमली एहसास
कानों में शहद की भांति घुला हुआ है
जो अब रक्तिम हो चला है
एक टीस सी है-
गहरी, बहुत गहरी
ये युद्ध नीति किसी काम की नहीं
स्वयं से लड़ना इतना आसन भी नहीं
सहस्त्र शब्दों के भंवर में फंसा हुआ
ये अशस्त्र शब्द, डरा सहमा सा
टकटकी बांधें शुन्य की ओर 
सत्य की छाँव टटोल रहा है
वास्तविकता को झुठलाता
इसका ह्रदय स्वयं को तोल रहा है
अंधकार में बढ़ना, रौशनी के बिना
अनवरत अशांत,
विकल विफलता का द्योतक है
धैर्यशील मनुष्य की भांति
ये शब्द अपने यथार्थ पाना चाहता है
अंत तक ही सही

इन प्रस्तुतियों के साथ परिकल्पना उत्सव के समापन सत्र की शुरुआत हम कराते हैं और अब हम आपको ले चलते हैं वटवृक्ष पर जहां पिछले जाड़े की याद ताज़ा करा रही हैं शैफाली गुप्ता ....यहाँ किलिक करें 

5 comments:

  1. सभी रचनाओं का चयन एवं प्रस्‍तुति अनुपम ...
    आभार इस प्रस्‍तुति के लिये
    सादर

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  2. जिंदगी के दिये इन सुन्दर प्रलोभनों के सामने
    कहीं मौत का दिया
    मुक्ति का प्रलोभन भारी तो नहीं पड़ गया !!!

    दिल को छूते शब्द और सारे लिंक्स भी ......

    शुभकामनायें !!

    जवाब देंहटाएं
  3. इतनी खूबसूरत रचनाओं के बीच अपनी रचना देख कर पुलकित हूँ रश्मिप्रभा जी ! आभार एवं धन्यवाद आपका मुझे याद रखने के लिए ! नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएं !

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  4. बहुत सुन्दर रचनाएं और अनु दीदी की लेखनी का तो मैं हमेशा से प्रशंसक रहा हूँ |

    सादर

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