भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा,
रवि ने किया दूर ,जग का दुःख भरा अन्धकार ;
किरणों ने बिछाया जाल ,स्वर्णिम और मधुर
अश्व खींच रहें है रविरथ को अपनी मंजिल की ओर ;
तू भी हे मानव , जीवन रूपी रथ का सार्थ बन जा
!
भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!
सुंदर सुबह का स्वागत ,पक्षिगण ये कर रहे
रही कोयल कूक बागों में और भौंरें मस्त तान गुंजा रहे ,
स्वर निकले जो पक्षी-कंठ से ,मधुर वे मन को हर रहे ;
तू भी हे मानव , जीवन रूपी गगन का पक्षी बन जा
!
भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!
खिलकर कलियों ने खोले ,सुंदर होंठ अपने ,
फूलों ने मुस्कराकर सजाये जीवन के नए सपने ,
पर्णों पर पड़ी ओस ,लगी मोतियों सी चमकने ,
तू भी हे मानव ,जीवन रूपी मधुबन का माली बन
जा !
भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!
प्रभात की ये रुपहली किरने ,प्रभु की अर्चना कर रही
साथ ही इसके ; घंटियाँ मंदिरों की एक मधुर
धुन दे रही ,
मन्त्र और श्लोक प्राचीन , देवताओं को पुकार रही,
तू भी हे मानव ,जीवन रूपी देवालय का पुजारी
बन जा !
भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!
प्रक्रति ,जीवन के इस नए भोर का स्वागत कर रही
प्रभु की सारी सृष्टि ,इस भोर का अभिनन्दन कर रही ,
और वसुंधरा पर ,एक नए युग ,एक नये जीवन का आव्हान कर रही
,
तू भी हे मानव ,इस जीवन रूपी सृष्टि का एक
अंग बन जा !
भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!
भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!
फोटोग्राफी और कविता © विजय
कुमार
http://poemsofvijay.blogspot.in/2013/01/blog-post.html
अप्रतिम रचना
जवाब देंहटाएंसादर
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता , भाव और तुकबंदी दोनों लिहाज से | कुछ उस किस्म का एहसास कराती कि 'उठ जाग मुसाफिर भोर भयी' |
जवाब देंहटाएंसादर