झूठ .... एक के बाद एक झूठ का सिलसिला
और फिर झूठ पुख्ता सच हो जाता है 
सवाल गलत से उठते ही नहीं 
सवाल तो कर्मठ विद्यार्थी से होते हैं 
जो चाक़ू लेकर बैठता है 
उसे हल बता दिए जाते हैं ................... समाज की इस स्थिति का ज़िम्मेदार समाज ही है, वह मार खानेवालों की स्थिति के साथ अपना मनोरंजन करता है और यदि बचाव में विरोध हुआ तो भाग जाता है !!! 
समाज के इस चेहरे को बदलना होगा -

  रश्मि प्रभा 

साधना वैद  http://sudhinama.blogspot.in/

मन में गहरी उथल-पुथल है ! असुरक्षा, आत्मवंचना, और हिलते हुए आत्म विश्वास से लगातार जूझने की स्थितियां सोने नहीं देतीं ! जब तक खुद या घर परिवार के सदस्य घर से बाहर हैं दुश्चिंताएं भयाक्रांत करती रहती हैं ! सडकों पर इतना ट्रैफिक और रश होता है कहीं कोई दुर्घटना ना हो जाए, कहीं कोई आतंकी हमला न हो जाए, कहीं कोई बच्चों को अगवा ना कर ले, कहीं गुंडे बदमाश बच्चियों के साथ बदसलूकी ना करें, कहीं चोर लुटेरे चेन, पर्स, लैप टॉप या कोई कीमती सामान ना लूट लें !   मंहगाई ने जीना मुहाल कर रखा है ! मेवा मिष्ठान की तो बात छोड़िये फल दूध साग सब्जी भी  थाली से घटते जा रहे हैं ! पेट्रोल डीज़ल के हर रोज़ बढ़ते दाम शायद अब जीवन की रफ़्तार पर भी लगाम लगाने वाले हैं ! साइकिल या चरण रथ पर सवार होकर ही बाहर निकलना होगा ! इससे ज्यादह बदहाली के लक्षण और क्या हो सकते हैं ! समय की पटरियों पर हमारे देश और समाज की विकास की गाड़ी विपरीत दिशा में जा रही है और हम आक्रोश का ज्वालामुखी मन में दबाये बैठे हैं ! और क्या कहूँ !

पंक्तियाँ लयबद्ध नहीं है, परन्तु जो कहना चाहता हूँ वो यही है कि हमें अपनी संवेदनहीनता से लड़ना है, ताकि चीज़ें बस न्यूज़-item या गॉसिप तक सीमित न रह जाएं। 
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कैसा समाज बना डाला है हमने?
कि दर्दनाक हादसों को महज़
न्यूज़-आइटम समझ लेते हैं।
क्या नहीं हो गया है हमारी
संवेदनशीलता का ही बलात्कार?
कि सब मुद्दे भूल कर हम
हर रात चैन से सो लेते हैं,
और नहीं गूँजती हमारे कानों में
किसी और की चीत्कार!

भरत तिवारी  सियासी भंवर  http://www.shabdankan.com/

जनसत्ता 28 दिसंबर, 2012: आज लोगों को अजीब राजनीतिक माहौल में रहना पड़ रहा है। हमें लगता था कि कद्दावर नेताओं से शुरू होकर, बीच में धार्मिक आदि रास्तों से होते हुए यह बात छुटभैए नेताओं पर खत्म हो जाती है। हमने अपनी वैचारिकता के मुताबिक इससे निपटना भी सीख लिया और इसे ‘राजनीतिक समझ’ का नाम दे दिया। इस समझ का पढ़ाई से कोई सरोकार नहीं है, यह हमें बचपन में ही इतिहास के अध्यापक ने अकबर के बारे में पढ़ाते हुए समझा दिया था। लेकिन हमने इसे पूरी तरह सच नहीं माना। 
फिर हमें वे मिले, जो हमारी राजनीतिक समझ बढ़ाने के लिए आए, जिन्होंने हमें बताया कि देखिए अमुख जिसे आप ऐसा नहीं मानते हैं वह भी राजनीति कर रहा है। वे साक्ष्यों को सामने रखते गए और हम इस बात को लेकर खुश हुए कि कोई रहनुमा मिला। अलग-अलग क्षेत्रों में हमें नए-नए रहनुमा मिलते रहे और हमें उस क्षेत्र में होने वाली राजनीति से अवगत कराते रहे। समय-समय पर ये रहनुमा प्रकट होते और हमारी समझ को दुरुस्त करते रहे। 
मगर हम अब
तक नहीं समझ पाए कि ये विलुप्त क्यों हो जाते हैं? दरअसल, हमें इतना वक्त ही नहीं दिया जाता कि यह सवाल पूछ सकें। अब सवाल है कि हमारा वक्त हमारा सोच (राजनीतिक-समझ) कौन नियंत्रित कर रहा है! 
तमाम देश जब दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार से दुखी होकर, इंडिया गेट पर पुलिस की लाठियां खा रहा था, उस समय ये सारे रहनुमा नदारद थे। हमने अपनी समझ का प्रयोग (शायद पहली बार) किया और किसी भी मोड़ पर हमें इनकी कमी महसूस नहीं हुई। और बड़े प्रश्न का उत्तर तब मिला, जब इनके परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होते ही, हम करोड़ों की समझ को गलत ठहराया गया। 
यहां हमारा इन रहनुमाओं की बात न सुनना और इन्हें दरकिनार करना बता रहा है कि इनकी पोल खुल गई है, कि हमारे सोच पर इनका नियंत्रण था, कि यह भी उसी गंदी राजनीति का हिस्सा है, जिनको सिर्फ कुर्सी और पैसे का लालच है। 
उम्मीद है कि अब अपनी समझ को हम, रहनुमाओं की बात सुन कर, बगैर सोचे-समझे नहीं बदलेंगे। 


 डॉ नूतन गैरोला . http://amritras.blogspot.in/

      बाजारीकरण के इस युग में ....जब आज सब कुछ बिकने के लिए बाजारू हो गया ...  क्या नेता, क्या अभिनेता,....क्या प्रसिद्धि क्या यश ....क्या देह क्या नजर ... क्या धर्म, क्या कर्म, ...  क्या  मिडिया,क्या आदमी, ... क्या नैतिकता, क्या सोच ..... सोच को संचालित करती हुई ताकत  .. और ताकत भी बिक जाती है पैसों के हाथ ...और जहाँ ताकत गलत हो जाती है वहां जन्म लेते हैं अपराध, बलात , भेदभाव, अत्याचार,भ्रष्टाचार , अन्याय... और न्याय के लिए उठती आवाजों का  साथ देने वाली भ्रामक आवाजे पीछे पीछे उन आवाजों को दबाने की कूटनीति  खेलती हैं ...आन्दोलनों को दबा लिया जाता है , स्तिथि ज्यूँ की त्यूं बल्कि और भी बदतर  ....  तो समाज को दिशा देती हुई मुद्राएं  ...फिर  जिसकी लाठी उसकी भेंस .. जिसके हाथ मुद्रा उसके हाथ ताकत और उसकी आवाज सुनी जाती है  .... समाज को दिशा देती हुई मुद्राएँ,  उत्थान की और कम और पतन की और ज्यादा ले जा रही हैं....... और हमें इनके बीच बचाना है अपने अन्दर का इंसान और उसकी इंसानियत ताकि चतुर होने के बाद भी  कल इंसान एक विलुप्त प्रजाति न हो जाये ...... 
                       फिर भी समाज की स्तिथि देख कर यह लिखा था मैंने   

नहीं लिखना मुझे अब 
गरीबी पर 
न भूख पर 
महामारी पर 
व्याधियो पर 
लाचारियों पर 
युद्ध की भयानकता पर

शिकार और शिकारी पर 



बलात और बलात्कारी पर  
सड़ी राजनीती पर
या वहसी समाज पर.......


थक चुकी हूँ अब
पक चुकी हूँ अब ...........
कहीं तो कोई बदलाव नजर आये
कहीं से तो कोई अच्छी खबर आये 
कही से तो लिखने का कुछ जज्बा जाग जाए ...........


अरुण रॉय http://www.aruncroy.blogspot.in/


मैं एक ही मैकेनिक की दुकान पर अपनी बाईक ठीक करवाता हूँ। मेरे घर से निकलते ही सड़क पर उसका ठीया है। वहां दस साल एक लड़का काम करता है। उसे मैं पिछले चार साल से देख रहा हूँ। कई बार वह मेरे घर पर भी आ गया है मोटरसाइकिल लेने। वह घर आकर मोटर साइकिल ले जाता है और सर्विसिंग करके पंहुचा जाता है। मेरे बेटे की उम्र का है वह। लेकिन जिस माहौल में वह काम करता है, जिस तरह की भाषा वह इस्तेमाल करने लगा है , दस साल में वह जवान हो गया है। कालोनी से निकलने वाली लड़कियों को घूरना, अकेले पाकर फब्तियां कसना शुरू कर दिया है जबकि जब वह दूकान पर आया था बेहद मासूम लड़का था वह। पढाई नहीं की है, पहले पढने की चाहत थी लेकिन अब बात करने पर पता चला की वह चाहत नहीं रही। पैसे कम या अधिक कमा लेता है। मोबाइल भी खरीद लिया है। मोबाइल पर वह गंदे गंदे विडिओ क्लिपिंग देखता है।
दिल्ली हादसे में जिस तरह के लोग शामिल थे, उसी माहौल में यह लड़का भी रहता है . सो मेरी इच्छा हुई कि इस से थोडा बात करलें। पूछने पर इसने बताया कि इधर उसका उस्ताद बताता है कि ये लड़कियां चालू होती हैं, इनके कई कई दोस्त होते हैं और जिनमे शारीरिक सम्बन्ध भी होते हैं। यानी दस साल में उसके दिमाग को पूरी तरह गन्दा बना दिया गया है। यह इकलौता मामला नहीं है बल्कि देश के होटलों, ढाबों, दुकानों, गराजों में काम करने वाले हजारों बच्चे इसी तरह गन्दा हो रहे हैं। वे पहले यौन शोषण के शिकार होते हैं और बाद में कहीं न कहीं अपराध की ओर रुख कर लेते हैं। इसलिए सोचने की जरुरत है कि अपराधी बनाने वाले कारणों से लड़ें न कि अपराध से।
और यह इण्डिया और भारत दोनों जगह एक सामान मौजूद हैं।

4 comments:

  1. इसलिए सोचने की जरुरत है कि अपराधी बनाने वाले कारणों से लड़ें न कि अपराध से।
    और यह इण्डिया और भारत दोनों जगह एक सामान मौजूद हैं।
    सार्थक अभिव्यक्ति !!

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  2. सामाजिक स्थिति की सही नब्ज़ पकड़ी है आपने ! दुःख इसी बात का है कि आम जनता नाकारा, निकम्मे, ना लायक एवं निरंकुश नीति नियंताओं के नेतृत्व के हवाले है और निरुपाय कसमसा रही है ! जिस दिन जनता के आक्रोश का ज्वालामुखी फूट पड़ेगा वह दिन सबके लिए बहुत भारी होगा ! मेरे विचारों को सम्मिलित करने के लिए आभार रश्मिप्रभा जी ! गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !

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  3. बहुत सुंदर विचारणीय प्रस्तुति,,,,

    गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,
    recent post: गुलामी का असर,,,

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  4. इस विषय पर अपनी टिपण्णी के साथ अन्य साथी लेखकों की तिपानी भी पढ़ी ...और उनका अनुभव भी ... समाज की सामयिक हालत पर सटीक

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