आज ....हमेशा कल हो जाता है - जो बीत जाता है
बीता कल लौटता नहीं - आनेवाला कल आता नहीं
आज की उठापटक में परिभाषाएं बदल जाती हैं
पर परम्परा बोलती है
खंडहरों से भी अपना वजूद बतलाती है
समझाती है कि दहलीज,गुम्बद,आँगन .....
सबके मायने थे
मटियामेट करना उसकी गरिमा को नहीं मिटाता
एक चिड़िया तक उसे याद करती है
पर तुम सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक,मर्या दित ...परिवर्तन के बीच
सबकुछ खो चुके हो
कानून के अंधेपन का नाजायज फायदा ले रहे हो
याद रखना - तुम रावण की तरह जलाये भी नहीं जाओगे
गिद्ध भी तुम्हें खाने से कतरायेंगे
एक आज तुम्हें बेमौत मार डालेगा - याद रखो ...
स्त्री,पुरुष - दोनों घर के बंदनवार हैं
किसी एक को तोड़ना - !!
तुममें से कोई भी किसी एक का हिसाब किताब कैसे कर सकता है ?!
वहशी पुरुष,वहशी स्त्रियाँ - दोनों कलंक हैं
एक ही पलड़े पर हर वारदातें नहीं होतीं !
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रेखा श्रीवास्तव http://hindigen.blogspot.com
आज के समाज के लिए इतने सारे प्रश्न चिह्न खड़े हैं की चिंतन कहाँ से शुरू किया जाय , यह भी एक प्रश्न बन चूका है। यहाँ नैतिक मूल्यों के पतन का सबसे बड़ा प्रश्न है और यही जड़ है जिसके दूषित होने से समाज का हर तबका किसी न किसी सामाजिक विकृति का शिकार बन चूका है। फिर से घर से लेकर बाहर तक नैतिक मूल्यों को स्थापित करने से ही समाज को एक स्वस्थ वातावरण मिल पायेगा . इसके लिए मानस को मानवीय मूल्यों से फिर से अवगत करने की जरूरत है। आत्म संयम , सम्मान की भावना , संतुष्टि और मानवता को अंतर में स्थापित करने की जरूरत है।
मीनाक्षी मिश्रा तिवारी http://meenakshimishra1985. blogspot.in
सामजिक कुरीतियों के चलते हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति बहुत ही चिंताजनक है
मेरा सोचना है कि आज हर घर में आवश्यकता है- स्त्रियों को बराबरी का अधिकार मिले और हर घर में पुरुषों को स्त्रियों के प्रति आदर और सम्मान का भाव रखना सिखाया जाये ....
देवेन्द्र शर्मा http://csdevendrapagal.
वर्तमान दौर में अक्सर देखा जा रहा है कि लोग समाज की बुराइयाँ गिनाते रहते हैं। कोई पुरुष प्रधान होने की बुराई गिनाता है कोई स्त्री केन्द्रित होने की, और कोई भाषा, वेशभूषा, रहन - सहन, में आते बदलाओं की। परन्तु सिर्फ बुराइयां देखने के साथ साथ समय के अनुसार जरुरी बदलाओं पर भी गौर किया जाना चाहिए। अठारवीं सदी के विचारों पर ही बढे चले जाना किसी भी स्थिति में उपादेय नहीं है। निश्चित रूप से इक्कीसवीं सदी के भारत में समाज में आमूल चूल बदलाव आये हैं जहां स्त्रियों ने अपनी क्षमताओं को सिद्ध किया है। वहीं कुछ बदलाव प्रशंसनीय नहीं रहे विशेष तौर पर पहनावे में बदलाव और डिस्क जाना आदि। परन्तु इसे भी पूरी तरह से गलत नहीं कहा जा सकता क्यूंकि किसी न किसी परिवेश में इसे स्वीकार भी किया जाता है। निश्चित रूप से पाश्चात्य संस्कृति को ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं है बशर्ते वो नैतिक मूल्यों को बनाये रखे। दुनिया में कुछ भी बुरा नहीं है अगर हम उसे अच्छी नज़र से देखें। सबकी नज़र अच्छी रहे इसके लिए पुरुष हो या स्त्री समय और परिवेश के अनुसार उसे ढाल लेना चाहिए। यह भी सत्य है की युवा सिर्फ वही करना चाहते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, इसमें भी कोई बुराई नहीं है परन्तु इस बिंदु पर बहुत अधिक सावधान और मर्यादित होने की आवश्यकता है। मर्यादाएं निर्धारित करने का भी कोई मापदंड नहीं है और जहा कोई पैमाना न हो वहाँ वह किया जाना चाहिए जो समाज में व्यापक रूप से स्वीकार्य हो और अपनी संस्कृति के अनुसार हो। वर्तमान परिदृश्य में समाज को सही दिशा में ले जाने के लिए हमे सार्थक चिंतन की आवश्यकता है। ऐसे विचार अपनाये जाने चाहिए जो समाज को बिना भटकाए सही दिशा में ले जाये। जो कुछ खुलापन हो, मर्यादित हो। नैतिक मूल्य बढ़ें। आवश्यकता है की युवा और सम्मान नीय अनुभवी व्यक्तित्व मिलकर वैचारिक क्रांति लायें। समाज में शिक्षा का प्रसार किया जाये। लोगो की मानसिकता बदलने का प्रयास किया जाए। वैचारिक क्रांति ही समाज का उत्थान कर सकती है , कोई संगठन या आन्दोलन नहीं।
मुझमे ज़हर भर चुका है और वो भी इतना कि अब संभालना मुश्किल हो रहा है इसलिए आखिरी हथियार के तौर पर मैंने विष वमन करने का रास्ता अख्तियार किया . क्योंकि यहाँ तो चारों तरफ विष का नाला बह रहा है . दुनिया में सिवाय विष के और कुछ दिख ही नहीं रहा . हर चेहरे पर एक जलती आग है , हर मन में एक उबलता तूफ़ान है , चारों तरफ मचा हाहाकार है , जिसने जितना मंथन किया उतना ही विष निकला और उसे उगल दिया फिर चाहे व्यवस्था से नाराज़गी हो या घर से मिली उपेक्षा हो , फिर चाहे अपनी पहचान बनाने के लिए जुटाए गए हथकंडे हों या खुद को पाक साफ़ दिखाने की कवायद में दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश , या फिर बेरोजगारी , भ्रष्टाचार , दरिंदगी, व्यभिचार , घोटालों से घिरा आम आदमी हो या उच्च पदासीन या उच्च वर्ग को देख खुद को कमजोर समझने की लिप्सा हो विष ने जकड लिया है चारों तरफ से ........सभी को चाहे नेता हो या राजनेता या आम आदमी , उच्च वर्गीय या माध्यम या निम्न वर्गीय सबकी अपनी अपनी परेशानियों से उपजी अव्यवस्था विष का कारण बनी ...............और मैं कैसे अछूता रह सकता था ..........नाम कमाने की लिप्सा ने मुझे भी आंदोलित किया , जल्द से जल्द अपनी पहचान बनाने की चाह में मैंने न जाने कितने सह्रदयों के ह्रदयों को दुख दिया , अवांछित हस्तक्षेप किया उनकी ज़िन्दगी में , सिर्फ खुद की पहचान बनाने के लिए ........उनके खिलाफ विष वमन किया और हल्का हो गया .................और मुझे एक स्थान मिल गया ....... और आज मैं खुश हो गया बिना परवाह किये कि जिसके खिलाफ विष वमन किया उसकी ज़िन्दगी में या उस पर क्या प्रभाव पड़ा ..............बस इस सोच ने ही आज ये स्थिति ला खडी की है और हम ना जाने क्यों चिंतित नहीं हैं …………खुश हैं व्यवस्था की असमाजिकता से,इस अव्यवस्था से………आदत हो चुकी है और जो आदतें पक जाती हैं वो जल्दी बदली नहीं जातीं फिर चाहे मानसिक गुलामी हो या शारीरिक …………फिर क्या फ़र्क पडता है समाजिक व्यवस्था सुधरे ही या नहीं ………अब कौन करे चिन्तन या मनन।
समाज के प्रति सकारात्मक चिंतन और राजनीति में उस चिंतन को कार्यरूप में परिणित करना ..दोनों के मध्य बहुत बड़ा विरोधाभास है ..परिवर्तन की प्रक्रिया इतनी धीमी होती है ..नहीं के बराबर /
समाज हो या राजनीतिग्य ..अन्तत: चिंतन का परिणाम व्योक्तिओ के आचरण पर जा टिकता हैं /
जाति प्रथा हो ,धार्मिक उन्माद हो ,या नारी उत्पीडन हो ..सभी समाज की ईकाई "परिवार के व्यवहार पर" आधारित हैं ,परिवार अपने कुसंस्कारों को त्यागने पर बरसों लगा देते हैं
उदाहरण के लिए वर्तमान परिवेश में नारियों पर होने वाले अन्याय के प्रति उपेक्षा का भाव भी जैसे ठीक नहीं हैं /
आज समाज की स्थिति चिंतन नहीं बल्कि चिंता करने योंग्य है.
सब कुछ बिखर रहा है और सम्हालने के लिए दो हाथ भी नहीं.
आज दृढ़ मानसिक शक्ति के साथ एक जुट होकर परिवर्तन लाने की आवश्यकता है वो भी किसी कुशल एवं सक्षम नेतृत्व में.
बिना नकेल के छुट्टे सांड की तरह भागती भीड़ समाज में कभी बदलाव नहीं ला सकती.हाँ कुछ देर के लिए ऐसा भ्रम ज़रूर पैदा किया जा सकता है,जैसे सब बदल जाएगा.
ज़रूरी है कि हम पहले स्वयं को बदलें.देखें ,परखें खुद को.एक सवाल खुद से किया जाय कि क्या हम हर तरह से सही हैं और क्या समाज के लिए अपना योगदान दे रहे हैं??
सामजिक चिंतन आत्म चिंतन के बाद ही हो.
बिना नकेल के छुट्टे सांड की तरह भागती भीड़ समाज में कभी बदलाव नहीं ला सकती.हाँ कुछ देर के लिए ऐसा भ्रम ज़रूर पैदा किया जा सकता है,जैसे सब बदल जाएगा.true ..
जवाब देंहटाएंस्थिति तो चिंतनीय है ही …………बस जरूरत है गहन चिन्तन के बाद अमल करने की…………आभार
जवाब देंहटाएंसभी के विचारों का स्वागत है....
जवाब देंहटाएंआभार रश्मि दी,हमारी भावनाओं को यहाँ स्थान देने के लिए.
सादर
अनु
Prashansniye vichar sajha kie aapne...mere vicharo ko b hi kadr dene k liye aabhar
जवाब देंहटाएंसराहनीय विचार है , आवश्यकता है उपयोगी विचारों पर अमल करने की .
जवाब देंहटाएंNew post कृष्ण तुम मोडर्न बन जाओ !