सुदामा .... आज एक तलाश है
सुदामा यानि मित्र
मित्र यानि बिना कुछ कहे कहनेवाला
और सुननेवाला
न स्वार्थ,न दंभ ...
न वक्र,न मिथ
कृष्ण को तो बहुत टेरा हमने
अब सुदामा को ढूंढ लाना है
सुदामा - जिसने बाल सखा से कुछ माँगा नहीं
अपनी पोटली में संकुचित होता गया
और कृष्ण .... एक एक चने में अंकुरित होते गए !
विस्फारित ख़ुशी सुदामा की
नतमस्तक मित्रता
कृष्ण को पाना है तो सुदामा को लाओ .राधा,मीरा,रुक्मिणी,सत्यभामा .... इन्हें समझने से पहले सुदामा को जानो,सुदामा को पहचानो
फिर सम्पूर्ण कृष्ण तुम्हारे समक्ष होंगे
कितना भी कह लो - शेष रह ही जाता है . समय बढ़ता रहता है टिक टिक टिक टिक .... मेरा वश चले तो मैं उम्र की अंतिम साँसों तक उत्सव करवाती जाऊं -
मेरी सुबह एहसास
मेरे दिन एहसास
मेरी शाम एहसास
मेरी रात एहसास ........... एहसासों का गुच्छा मेरी कमर से जुड़ा रहता है - अनगिनत तिलस्मी चाभियाँ हैं और भुलभुलैये से कमरे - कोई आवाज़ उधर से कोई इधर से .... मैं हर उस आवाज़ को सुनना चाहती हूँ - जो जीवन देते हैं,जीवन तलाशते हैं . मैं एक दीये की तरह सबके साथ भावनाओं का लंबा सफ़र तय करना चाहती हूँ . अगली सुबह यानि अगले उत्सव से पूर्व कुछ एहसास यूँ ही चलते चलते .............
बचपन ऐसी अलमारी की तरह है जिसके हर खाने मे ढेर सारी बाते जमा होती है ओर कुछ बाते उम्र के एक मोड़ पे जाकर अपना रहस्य खोलती है. तब हम एक ऐसे मोहल्ले मे रहते थे जो लगता था की कभी सोता नही था सड़क के पास एक खिड़की होती थी जो रात भर जागती रहती. रात भर स्कूटर, कार की आवाज आती रहती. बस अड्डो के पास के मोहल्ले उन परिंदों की तरह होते है जो आँख खोल कर सोते है .मैं ओर छोटा दोनों भाई पैदल स्कूल जाते ,जो घर से थोड़ी दूर होता . तब मैं शायद पहली या दूसरी क्लास मे हूँगा अक्सर हम स्कूल जाते जाते बीच- बीच मे कई जगह रुकते
स्कूल जाने के लिए हम शोर्टकट लेते जिसके लिए हमें एक कच्ची गली से होकर गुजरना पड़ता गली के मुहाने पे हलवाई की दूकान थी ओर सुबह -सुबह उसकी भट्टी पर चढी कड़ाई से पूरियों की खुशबू आती ,उसके पास से गुजरते वक़्त मैं अक्सर सोचता की बड़े होने पर ढेर सारी पूरिया खाया करूँगा (जैसे की बड़े होने से ही पैसे अपने आप आ जाते है )
उसी टूटी फूटी गली के दूसरे कोने मे एक कोयले का गोदाम था ,जिसके दरवाजे पे अक्सर आर्मी की वर्दी पहने एक लंबे खुले बालो वाला सरदार जिसकी बड़ी ओर घनी दाढ़ी थी ,अक्सर कोयले को तोड़ता मिलता .कुछ हाथ दूर उसकी बैसखिया पड़ी रहती ,उसके बारे मे तब हम बच्चो के बीच तरह -तरह की अफवाहे थी ओर शायद उनका असर भी हम पर था , उसके पास से गुजरते वक़्त छोटा अक्सर कस-के मेरा हाथ पकड़ लेता ओर मैं भी तेज कदमो से वो दूरी तय करता . हमे देखकर वो अक्सर मुस्करा देता .एक रोज स्कूल की छुट्टी हुई ,गली के उस मुहाने पे उसने हमे आवाज दी ,छोटे का हाथ मेरे हाथ पे कस गया ओर मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा फ़िर भी भय पर जिज्ञासा हावी हुई ओर मैं लगभग छोटे को घसीटता हुआ उसके पास गया उसने हाथ से फर्श पे इशारा किया वहां कुछ अंग्रेजी मे लिखा था
"तुम्हे अंग्रेजी भी आती है ? " मैंने उससे पूछा , मेरे लिए ये बहुत बड़ी बात थी .
फ़िर उसने मुझे बहुत कुछ लिख कर बताया . कुछ पलो मे मेरा सारा डर जाता रहा , फ़िर ये हमारी रोज की दिनचर्या मे शामिल हो गया , रोज मैं लौटते वक़्त उसके पास कुछ देर रुकता , रोज छोटा मुझे माँ को बताने की धमकी देता , रोज माँ पूछती की देर क्यों हुई ? न छोटे ने कभी बताया न मैंने उसकी धमकी मानी.
एक रोज उसने कुछ लिखा जो मेरी समझ नही आया पर आज लगता है शायद उसने कोई अंग्रेजी की कविता लिखी थी वो रोज कोई एक मन्त्र मेरे कानो मे फूंकता "अपनी शक्ल पे कभी गरूर मत करना क्यूंकि इसके ऐसा होने मे तेरा कोई हाथ नही है " ,बड़े होके भी छोटे का हाथ ऐसे ही पकड़ना ओर
न जाने कितने!
मैं नही जानता वो कौन था ? उसका परिवार कहाँ था? किस हादसे मे उसकी टाँगे गयी? मुझे याद है पापा का ट्रांसफर देहरादून हुआ तो मैं उससे मिलने गया छोटे ने छुपा के रोटी सब्जी मुझे दी , जब मैंने उसे देनी चाही तो उसने मना कर दिया भरे गले से बोला " आदते ख़राब नही करनी ,वो भट्टी ही अपनी रसोई है "उसने हलवाई की ओर इशारा किया .फ़िर मेरे सर पे हाथ रख के बोला
"बड़ा होके भी ऐसे ही बने रहना "
.वो हमारी आखिरी मुलाकात थी ,उसके बाद वो कहाँ है ,नही जानता ? जिंदा भी है या नही ?
बड़ा तो हो गया पर शायद मन उतना बड़ा नही रहा जरूरतों ओर ख्वाहिशों ने इसे मैला कर दिया है
Pasand: एहसास(पल्लवी सक्सेना)
कभी कभी यह ज़िंदगी इतनी तन्हा लगती है की जैसे इसे किसी की आरज़ू ही नहीं
यूं लगता है कि जैसे किसी को मेरी जरूरत ही नहीं
न दोस्तों के पास समय है ना अपनों के पास कोई विषय, बात करने के लिए
सब अपनी ही दुनिया में मस्त है किसी को किसी की जरूरत ही नहीं
ढलते हुए सूरज की लालिमा के साथ तन्हा होने का एक अंधकार सा पसर जाता है
मन के किसी कोने में कहीं, और यकायक यह एहसास होने लगता है
जैसे समय का चक्र पल-पल कोई न कोई परीक्षा ले रहा हो मेरी
जिसमें न कोई आस है, ना प्यास है,गर कुछ है तो वो है मैं और मेरी तनहाई
यूं तो इस भागती दौड़ती ज़िंदगी में कभी-कभी तनहाई भी अपनी सी लगती है
मगर कभी-कभी खुद को इस कदर तन्हा पाती हूँ मैं
कि यूं लगता है कि किसी को मेरी जरूरत ही नहीं,
यूं तो तुम्हारे साथ होते हुए भी कई बार खुद को तन्हा महसूस किया है मैंने
क्यूंकि न जाने क्यूँ एक औपचारिक सा भाव है या स्वभाव है तुम्हारी बातों में
मगर अपने पन का वो खिचाव नहीं,
जिसकी तलाश में शायद ना जाने कितने ही घुमावदार रस्तों पर भटकता है मन
आतित की परछाइयों का पीछा करते हुए वापस
उस दौर में लौट जाने को व्याकुल हो उठता है मन
जहां तनहाई के लिए वक्त ही नहीं था मेरे पास, कि यह सोच भी सकूँ मैं,
कि क्या होता है तन्हा होना लेकिन फिर तालश वही आकर ख़त्म होती है मेरी,
जहां से चले थे हम कदम दर कदम एक-एक करके सात वादों के साथ
शायद इसलिए तुम्हारे आने का इंतज़ार रहा करता है मेरी रूह में कहीं,
क्यूंकि जब साथ होते हो तुम तो गुज़र ही जाती है इस ज़िंदगी की हर एक श्याम
लेकिन जब साथ नहीं होते तुम तो खुद को और भी तन्हा पाती हूँ मैं,
और धीमे-धीमें सुलगा करता है मेरा मन, एक जलती हुई अगरबत्ती की तरह
क्यूंकि यूं तो साथ होते हुए भी तन्हा हुआ जा सकता है मेरे हमदम, मगर
बशर्ते कि जिसके साथ आप हैं उसे तनहाई की हिफाजत करने का हुनर आता हो
तो क्या हुआ अगर तुम्हें अपनेपन का एहसास दिलाना
या मेरे प्रति अपना प्यार जताना नहीं आता
बहुत से ऐसे लोग हैं इस दुनिया में जिन्हें प्यार तो है मगर प्यार जताना नहीं आता
बावजूद इसके, बहुत अच्छे से जानती हूँ मैं,कि प्यार तुमको भी है, प्यार हमको भी है,
और सोचो तो ज़रा वो प्यार ही क्या जिसे महसूस करवाना पड़े,या जताना पड़े
वो भला प्यार कहाँ रहा, वो तो दिखावा हुआ प्यार नहीं,
प्यार तो बिन कहे, बिन बोले ही समझने वाला और रूह से महसूस करने वाला एहसास है ना
इसलिए शायद अब भी, नदी के दो किनारे से स्वभाव के बावजूद भी,
एक ही छत के नीचे जी पा रहे हैं हम क्यूंकि स्वभाव भले ही न मिले हों कभी हमारे एक दूजे से
मगर प्यार होने का एक एहसास ही काफी है, ज़िंदगी गुज़ार देने के लिए ....
मेरे विचार मेरी अनुभूति: मैं एक अपूर्ण शिक्षक हूँ !(कालीपद प्रसाद)
शिक्षक हूँ गणित का
कक्षा में जाता हूँ ,
किन प्रश्नों को हल करूँ ?
टेक्स बुक में लिखे हुए
कुछ सीमित अपदार्थ पश्नों को
या अंतिम कतार में, फटे पुराने कपड़ों में
जीवन जिग्घासा में , मौलिक प्रश्नों के साथ
अनेक भारों से लदकर
बने हुए उस प्रश्न वाचक चिन्ह को ?
पढ़ाना है वृत्त ,
वृत्त का परिभाषा मैं क्या दूँ ?
किस वृत्त को मैं महान वृत्त कहूँ ?
और किसको लघु वृत्त ?
मुझे तो सब दीखता है एक समान।
दनों ही सीमित है ,दोनों ही असीमित है ,
दोनों का शुरू वही है , अन्त भी वही है ,
केवल अन्तर है पथ का
आपके और मेरे मत का ,
आप शायद दोनों प्रश्नों को हल कर दें ,
पर मैं ???
मैं एक अपूर्ण शिक्षक हूँ
क्योंकि दोनों में से
मैं एक प्रश्न का जबाब दे सकता हूँ।
दूसरा प्रश्न सामने आते ही
अपने अधूरे ज्ञान को छुपाने के लिए
उसे डांट कर बैठा देता हूँ।
शिक्षक हूँ !
इसलिए एक ही प्रश्न का जबाब जनता हूँ।
अगर नेता होता .............
सभी प्रश्नों का हल निकल लेता।
प्रश्न तथा प्रश्न वाचक चिन्ह
दोनों को एक साथ मिटा देता।
पहले उसके मुहँ पर कुछ दाना फेंक कर
उसका मुहँ बन्द कर देता,
फिर आश्वाशन की झड़ी लगाकर
उसकी गरीबी मिटाने की भरोषा देता ,
इसपर भी यदि वह नहीं मानता
तो गरीब को ही मिटा देता।
इत्तेफ़ाक से यदि कोई
गरीब बच जाते........
तो
उस से कहते , आओ
हमारे साथ मिल जाओ
कांग्रेस या जनता ,
अकाली या भजपा ,
किसी से भी हाथ मिलाओ
और काली कमाई से धनवान बन जाओ,
संसद में चाहे हम किसी के
कितने भी करें खिचाई
और पार्टी चाहे कोई भी हो
हम सब हैं मौसेरे भाई।
मेरी कृति: अभिव्यक्ति की असमर्थता(सीमा कुमार)
अंत और अनंत क्या,
उर की अभिलाषा क्या ?
मन क्यों स्थिर नहीं,
प्रश्न भी अनंत हैं
अनकहे हैं
जवाब कभी हैं ही नहीं,
कहीं अधूरे हैं ।
मौन लगता अचल है ।
बस अपनी
अंतर्रात्मा का
साथ ही चिरंतन है,
बाकी या तो इच्छा है
लालसा है
या न मिटने वाली चाह है ।
मोह क्या है,
माया है क्या ?
सत्य क्या है,
साया है क्या ?
फिर अनगिनत सवाल,
या तो असंख्य जवाब,
या फिर कोई भी नहीं
कहीं सिर्फ़ गति है
कोई ठहराव नहीं
और कहीं बस
ठहराव ही है
कोई गति, कोई हलचल नहीं ।
यह शब्द हैं
या भाव ?
या उलझन ?
अभिव्यक्ति की असमर्थता ?
नदी का सपना...
नदी को पाना
अब जैसे कुछ भी करना...
नीम बेहोशी खुशियां...
जागते सोते गलतफहमिया....
एक अंजुरि नदी मेरे भीतर ......
हर पल कुछ कहती है,,,
सुबह अब हर रोज़ होती है....
हर पीछे छूटी रात की तरह...
और नदी भी आवेग देती है...
मेरे भीतर बहते प्रवाह की तरह.....
नदी को पाकर.....क्या ........
तलाश खत्म....फिक्र खत्म....
जैसे जिंदगी भी खत्म
किसी की जिद नही ....
कोई कसमसाहट नहीं...
बस एक खिलखिलाहट ..
कल...कल
मेरे भीतर....!!
समापन सत्र की प्रस्तुतियाँ चरम पर है और मैं चाहती हूँ कि ज्यादा से ज्यादा समेत लूँ सृजन के कुछ महत्वपूर्ण क्षण .....तो चलिये फिर रुख कराते हैं वटवृक्ष की ओर जहां रेखा जी को पीड़ा न बाँट पाने का अहसास हो रहा है ....यहाँ किलिक करें
समापन सत्र की प्रस्तुतियाँ चरम पर है और मैं चाहती हूँ कि ज्यादा से ज्यादा समेत लूँ सृजन के कुछ महत्वपूर्ण क्षण .....तो चलिये फिर रुख कराते हैं वटवृक्ष की ओर जहां रेखा जी को पीड़ा न बाँट पाने का अहसास हो रहा है ....यहाँ किलिक करें
हम कृष्ण की तलाश में सुदामा को भूल गए हैं..उत्कृष्ट रचनाओं के चयन के लिए आभार..
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जवाब देंहटाएंमित्र यानि बिना कुछ कहे कहनेवाला
और सुननेवाला
न स्वार्थ,न दंभ ...
न वक्र,न मिथ
कृष्ण को तो बहुत टेरा हमने
अब सुदामा को ढूंढ लाना है
नि:शब्द करते इन पंक्तियों के भाव ...
सभी रचनाओं का चयन एवं प्रस्तुति अनुपम ...
आभार सहित सादर
नए के आगाज़ के लिए शेष का रहना जरुरी है
जवाब देंहटाएंकैलाश जी के कमेन्ट से पूरा इत्तेफाक रखता हूँ , कृष्ण की तलाश में सुदामा को भूल गए |
जवाब देंहटाएंसादर