विष तो पीना पड़ता है
रश्मि प्रभा
नीलकंठ नहीं हुए
शिव का त्रिनेत्र खुल चुका है
तीसरे नेत्र की ज्वाला रगों में समाहित है
रश्मि प्रभा
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दामिनी तो माध्यम है स्व का
भूतकाल का शोक
भवि्ष्य का भय
और
वर्तमान का मोह
बस इसी में उलझे रहना ही
नियति बना ली
जब तक ना इससे बाहर आयेंगे
खुद को कहाँ पायेंगे?
और सोच लिया है मैंने इस बार
नही दूंगी खुद की आहुति
बदलना है इस बार नियति
भूतकाल से सीखना है
ना की भय को हावी करना है
और उस सीख का वर्तमान में सदुपयोग करना है
जलानी है एक मशाल क्रांति की
अपने होने की
अपने स्वत्व के लिए एकीकृत करना होगा
मुझे स्वयं मुझमे खोया मेरा मैं
ताकि वर्तमान न हो शर्मिंदा भविष्य से
खींचनी है अब वो रूपरेखा मुझे
जिसके आइनों की तस्वीरें धुंधली न पड़ें
क्योंकि
स्व की आहुति देने का रिवाज़ बंद कर दिया है मैंने
गर हिम्मत हो तो आना मेरे यज्ञ में आहूत होने के लिए
वैसे भी अब यज्ञ की सम्पूर्णता पर ही
गिद्ध दृष्टि रखी है मैंने
क्योंकि
जरूरी नही हर बार अहिल्या या द्रौपदी सी छली जाऊं
और बेगुनाह होते हुए भी सजा पाऊँ
इस बार लौ सुलगा ली है मैंने
जो भेद चुकी है सातों चक्रों को मेरे
और निकल चुकी है ब्रह्माण्ड रोधन के लिए ................
इक अनहोनी घट गयी
इक अनहोनी घट गयी
के सारा आलम सोते से जाग गया
अबला का शारीरिक शोषण
टी.वी. ने दिखाया .
और तब !!! सब को पता चला कि
अभद्रता की सीमा क्या होती है
नेताओं के बिगुल
स्त्री समाज की मुखिया
जिन पर खुद आरोप हैं
शोषण करवाने के
नये नये तरीके के व्याख्यान देने लगे
अरे ! हाँ !
वो क्या हुआ राजस्थान वाले केस का
रोना आता है इस समाज के खोखलेपन पर
जहाँ हर घड़ी
घर के आँगन से शहर के चौक तक
रोज़ ये हो रहा होता है
और समाज आँख खोले
सो रहा होता है,
और जो उबासी आये तो पुलिस को गरिया दिया
… भई ये सब तो शासन ने देखना है ना !!
हम क्या करें ?
… अब इन्तिज़ार है सबको
ऐसा कोई वी.डी.ओ
सामूहिक बलात्कार का भी आ जाये
तो थोड़ा और जागें …
इन्तेज़ार है
(जाओ बेंडिट क्वीन देख लो अगर वयस्क हो गए हो)
किसको बहला रहे हो मियाँ
अंदर जो आत्मा ना मार डाली हो
तो झाँक लेना …
फ़िर सो जाना
सच सुनकर नीद अच्छी आती है
घटिया ओछे नाकारा
भरत तिवारी
कौन सा ख्वाब था वो ?
आसमान नीला था ,
हवा ताज़े खिले फूलों से महकती थी ,
घास पर ओस की बूंदों से पाँव भीगते थे ...
धूप सहलाती थी चेहरे को नर्म हाथों से ...
हाँ बेशक ,
वो कोई ख्वाब ही रहा होगा .
कि हकीकत में तो कुछ और ही मंज़र हैं यहाँ ...
हवा में खून की बू फैली है ...
आबशारों में ये तेज़ाब किसने घोल दिया ,
प्यास तो बुझती नहीं ... होंठ झुलस जाते हैं !
ये कैसी फसल उग रही है लाल मट्टी से
भूख मिटने की जगह बढ़ती चली जाती है !
कहीं साया नहीं दिखता कोई
कि सर पे छांह पड़े ...
ये सब दरख़्त किसने आग के सुपुर्द किये ?
किसने ये नोच दिए पंख सब परिंदों के ?
ये शोर कैसा है ... धुवां कैसा ?
ये दर्द थाम के उंगली कहाँ ले जाता है अब ...
पाँव के आबले अब दुखते हैं ,
रूह का पोर पोर दुखता है ...
आँख अब खून के धब्बों से सिहर उठती है ,
कान अब सुन के शोर दुखता है .
ये जो दुनिया है , ये ऐसी तो नहीं होनी थी .
काश , ये एक बुरा ख्वाब हो ...
मैं जाग जाऊं .
और , एक बार फिर से
आसमान नीला हो !
ये हकीकत है
तो ... इस से निजात कैसे मिले...
लाख कोशिश की
मगर नींद अब नहीं आती .
- मीता .
सुन्दर प्रस्तु्ति ………………विचारोत्तेज़क रचनायें हैं सभी…………मुझे स्थान देने के लिये आभार
जवाब देंहटाएंकाश! जाग जाएँ सभी सोने वाले.......
जवाब देंहटाएं~सादर!!!
इस बार लौ सुलगा ली है मैंने
जवाब देंहटाएंजो भेद चुकी है सातों चक्रों को मेरे
और निकल चुकी है ब्रह्माण्ड रोधन के लिए
आप ज्यादातर दिल से और सच लिखती हैं
और इस रचना में जो आपने चाहा है; उसमे मैं साथ हूँ
सादर भरत
प्रभावशाली ,
जवाब देंहटाएंजारी रहें।
शुभकामना !!!
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