दामिनी - स्वत्व अग्नि कुंड 
स्त्रियाँ ही नहीं - 
मर्यादित परम्परा निभानेवाले 
पुरुष भी समिधा बन गए हैं 
संस्कारों की मिटटी से भरी है मुट्ठी 
मौन संकल्प के मशाल जल उठे हैं ..
पर दहलीज के भीतर जो हो रहा है 
उससे निजात कब ??? ........... कोई नहीं आएगा, अपनी प्रतिष्ठा के बारे में स्वयं सोचना होगा - स्त्री हो या पुरुष !



रश्मि प्रभा 
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सड़कों पर आन्दोलन सही पर देहरी के भीतर भी झांकें


दिल्ली में हुए वीभत्स हादसे ने पूरे देश को हिला दिया । इसके बारे में अब तक बहुत कुछ कहा और लिखा गया है । अनशन ,धरने और कैंडल मार्च सब हुआ और हो रहा है । अनगिनत लोग सड़कों पर उतर आये । जनता का आक्रोश उचित भी है  । पर अफ़सोस तो यह है कि इस विरोध के साथ ही ऐसी घटनाओं का होना भी जारी है |

ऐसे में यह प्रश्न उठना वाजिब है कि क्या सड़कों पर उतर आना ही काफी है ? इस घटना के बाद देश भर में लोग घरों से बाहर  निकले । सबने खुलकर विरोध किया । अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की मांग की और आज भी कर रहे हैं । ऐसे में इस ओर भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है कि आन्दोलन कर अपनी आवाज़ उठाने के आलावा हमें अपनी ही देहरी के भीतर भी झांकना होगा ।  यह जानना ही होगा कि आज की पीढ़ी को संस्कारित करने में क्या और कहाँ चूक हो रही है ? क्योंकि दिल्ली में हुआ यह हादसा सिर्फ शरीरिक शोषण और जोर ज़बरदस्ती का केस भर नहीं हैं । यह हमारे ही समाज से निकले मानवीयता की हदें पार करने वाले अमानुषों का उदाहरण है|  जिनको मिलने वाला दंड उनके ही जैसी प्रवृति पाले बैठे लोगों की मानसिकता नहीं बदल पायेगा । ऐसे कृत्यों को रोकने में परिवार की भूमिका ही सबसे बढ़कर हो सकती है । 

ज़रा सोचिये तो हमारे समाज में ऐसी घटनाएँ कैसे रोकी जा सकती जा सकतीं हैं जहाँ  स्वयं परिवार वाले ही ऐसे भयावह कृत्य करने वाले लाडलों को बचाने  निकल पड़ते हैं ?  ऐसे समाज में इस तरह के हादसे क्यों भला थमें, जहाँ  शारीरिक और मानसिक पीड़ा भोगने वाली लड़की को ही  गलत ठहराया जाता है ? कोई आध्यामिक सलाह देकर तो  कोई पहनावे और घर से निकलने के वक़्त को लेकर | इतना ही नहीं, हमारे समाज में जहाँ शारीरिक शोषण के अधिकतर मामलों में परिचित ही पिशाच बन बैठते हैं वहां प्रशासनिक  मुस्तैदी कहाँ तक काम आएगी ?

समाज में आये दिन होने वाली इन वीभत्स घटनाओं को रोकने के लिए हमें ही समग्र रूप से प्रयास करने होंगें ।  ज़रूरी है कि ये प्रयास  सड़कों पर आवाज़ बुलंद करने से लेकर हमारी अपनी देहरी के भीतर तक किये जाएँ । अपने बच्चों को ऐसे आपराधिक कृत्य करने वाली मानसिकता से बचाने के लिए उन्हें संस्कारित करने के साथ ही उनके मन में यह भय भी पैदा किया जाय कि अगर वे जीवन में कभी ऐसे कुकृत्य करते हैं तो सबसे पहले उनका अपना परिवार ही उनका साथ छोड़ देगा । 

इस घटना के बाद हमें ऐसा पारिवारिक और सामाजिक माहौल तैयार करना होगा कि इस तरह के अमानवीय अपराध करने  वाले अगर लचर सरकारी व्यव्स्था के चलते सजा पाने से बच भी जाएँ तो भी समाज और परिवार उन्हें निश्चित रूप से दंडित करेगा ।ऐसे अपराधियों को यह आभास होना चाहिए कि ऐसे कुकृत्य करने बाद न परिवार उनका रहा न समाज अब जियें भी तो क्यों? उनका सामाजिक और पारिवारिक बहिष्कार हो । इस सीमा तक कि वे दंड से बचने की तरकीबें न खोजें बल्कि स्वयं अपने लिए सजा मांगें । 

My Photoयह सब सिर्फ हम कर सकते हैं । परिवार और समाज कर सकता है । क्योंकि सरकार ऐसे अपराधियों को सिर्फ सजा दे सकती है | निश्चित रूप से कठोर से कठोर सजा देनी  चाहिए भी ।  पर परिवार संस्कार देकर बच्चों को मानवीयता का पाठ पढ़ा सकते हैं । उन्हें अपराधी बनने  से ही रोक सकते हैं,  सुनागरिक बना सकते हैं 

डॉ मोनिका शर्मा 
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दावानल

बन चुकी वह आग दावानल जिसे 
रोक न पाओगे कर लो कोशिशें 
'राज '  हो राहों में , या 'सत्ता ' कोई 
दूर तक सबको जलाती जाएगी 

जल उठीं हैं अब मशालें हर तरफ 
हर तरफ धिक्कार ही धिक्कार है 
इल्म न दौरे-फिजां का गर हुआ 
सोच लो फिर खाक ही रह जाएगी !

.........???

प्रश्नों की बौछार लगी है 
और मैं -
इनके बीच खड़ी
खोज रहीं हूँ उनके जवाब ...
' जो होता है क्यों होता है '?
शायद ईश्वर की मर्ज़ी ..
'क्या ईश्वर इतने निष्ठुर हैं '?
नहीं 
जो होता है, अच्छे के लिए होता है...
शायद यह भी उसी अच्छे होने की 
पहली कड़ी है ...
किसी भी ईमारत को बनाने के लिए -
'पहली ईंट' को नींव की ईंट बनना होता है -
वही उस ईमारत को 
मजबूती , ताक़त और स्थिरता देती है -
लेकिन 'उसे'
अपनी आहुति देनी होती है ...
'तो क्या इश्वर ने उसकी आहुति ली '?
नहीं आहुति नहीं ...
बलिदान माँगा -
जो जला सके उस आग को -
जिला दे मानवता को -
My Photoजो जंगल की आग सा -
ध्वंस कर -
नेस्तनाबूत कर दे हैवानियत को ...!
दामिनी ......
आज उस ईंट पर 
एक बुलंद इमारत की नींव पड़ चुकी है -
शायद यही इसमें छिपी अच्छाई हो ...
शायद यही ईश्वर की मंशा हो ...!

सरस दरबारी 
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केवल एक युक्ति है ...

मैंने अब धारा की
उस प्रचंडता को पहचान लिया है
व अपने अनुरूप ही
हर ढाल का भी निर्माण किया है...
ये भी माना कि
प्रवाह-शक्ति बड़ी मद से भरी है
पर सामने भी तो
कई भीमकाय बाधाएँ भी खड़ी है... 
जहाँ निषेध है
वहाँ उद्रेकता में उछल जाती हूँ
और मूल से ही
हर पाषाण को रेत-रेत कर जाती हूँ...
ऐसे न बहूँ तो
ये जो तृषा है शांत कैसे होगी ?
कुछ कमल व हंसों में
मानसरोवर की गति जैसे होगी...
गर्जन-तर्जन करके
सारी वर्जनाओं को तोड़ देना है
पोखरों में ही सिमटी हुई
अन्य धाराओं को भी जोड़ लेना है...
सच! बहने में ही
हम सबों की अंतिम मुक्ति है
यही नियति है और
यही एक और केवल एक युक्ति है .
My Photo


अमृता तन्मय 
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फैसला

तुम्हारी चाह मेरी सांस पर भारी पड़ी
सांसें त्याग दीं मैंने
बता दूँ फिर भी मै जिंदा रहूँगी
जियूँगी आग बनकर ,प्रश्न बनकर ,चेतना मे चोट बनकर ,

चुभूंगी मै तुम्हें भी उम्र भर नश्तर सरीखी
जलूँगी मै तुम्हारे पाप की हर इक परत मे
तुम्हारी राखियों पे स्याह बूंदें मै बनूँगी
किसी की झुर्रियों मे भी रहूँगी शर्म बनकर
ये पश्चाताप सा जीवन है अब खैरात तुमको ,

नहीं जिंदा हूँ मै देने गवाही उस कहर की
नहीं बख्शूंगी पर तुमको किसी भी मूल्य पर
ये जान लो तुम
करेंगी याद तुमको पीढ़ियाँ भी इस घृणा से
की मांगोगे फिर तुम भी मौत अपनी हर दुआ मे
घृणा वो भी (मौत ) करेगी ,

कयामत तुम थे पर अब फैसला ये मै करूंगी
भले जिंदा नहीं मै
हर सांस मे अब तुम मरोगे !!!


 अर्चना राज
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* नेताओं की चाल*


सोचो-देखो ,समझो-परखो
ये है राजनीती का खेल .....

दामनी के आगे हो गई रेल ....
इन नेताओं की चाल .....
गैस को बना लिया ढाल .... 
जिसे हमने निर्भया, दामिनी ,अमानत , ज्योति जैसे नामों से पुकारा .... 
उसके जीने का संकल्प , सुस्त पड़ी तरुनाई को अन्दर तक झकझोरा .....

निश्चित था ,अभी ये परखा जाना ....
निश्चित था ,अभी ये परखा जाना ....
जनाक्रोश के दबाब में ,सरकार के वादे का पूरा होना .....
सरकारी लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी का अहसास करना ....
त्वरित करवाई के लिए बाध्य किया जाना ....
लेकिन अभी बजट-सत्र के पहले ,सभी चीजों का दाम बढ़ाना ....
मकसद है सब का ध्यान मुख्य मुद्दे से हटाना .....
मुश्किल नहीं इसका अंदाज लगाना ......
बेटे हो शहीद अपुन का क्या ........ 
हम बने रहेगें मुरीद,पाक का , क्या ....

सब कह रहे हैं , उन सपूतों ने शहादत दी है .......... लेकिन मैं कह रही हूँ , उनकी हत्या इस देश के नेता और उन्हें समर्थन देने वालों(मेरा समर्थन नहीं है , क्यों कि मैं कभी vote नहीं दी , क्यों कि , नगरवधू सरीखे नेता मुझे कभी भाये नहीं) ने की है ......... गलत निती का नतीजा भी गलत ही होता है ........

दूध मागोगे खीर दूँगा , देश मागोगे चीर दूँगा ,
कहने वाले सपूत कहीं इन नेता को ही न चीर दें ....
नेताओं ने कल देश बाँटा ,
आज ,वे ढाका बाँटने वाले सपूत , लाहौर बाँटने की कुव्वत रखते हैं .....

जग जाओ वो नेताओं , हो जाओ शर्मशार ....
नहीं तो , बच्चे जग गए ,तो हो जाओगे संगसार .... 
व्याकुल हो बिसरा दें ,बेटी की आहुति .... 
विरोध ना हो स्त्रिद्रोही तन्त्र का ,
प्रजातंत्र की रणनीति दे रही चुनौती ..... 
जो जनता अड़ी रही ,सीना ताने ,
सामने पानी-बौछार , अश्रु-गैस और बन्दुक-गोली के ...
वो क्या अडिग नहीं रहेगी ???????
डर जायेगी ???????????
महंगी हुई समान के बढ़ती दामों के बोली से .... 
बना लो ,लगा लो अंधा कानून ,जितना भी हो जोर-जबरदस्ती ....
हमने अंग्रेजो को उखाड़ फेका ,  तेरी क्या है हस्ती ....
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विभा रानी श्रीवास्तव 

5 comments:

  1. संकल्प का मशाल ऐसे जलता रहे कि नकारात्मकता पनप ही न पाए ..

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  2. सबको एक जुट करने के लिए आभार आपका !!

    शुभकामनायें !!

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  3. शुरुआत घर से करनी होंगी ....बिलकुल .....

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  4. ..... कोई नहीं आएगा, अपनी प्रतिष्ठा के बारे में स्वयं सोचना होगा - स्त्री हो या पुरुष!
    सहमत हूँ आपकी इस बात से ...
    सादर

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  5. आभार इस सार्थक मुद्दे पर मेरे विचारों को शामिल करने का,

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