छीनता हो स्वत्व कोई और तू
पुण्य है विछिन्न कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है .......रामधारी सिंह दिनकर )
......
सोचती हूँ उन नरपशुओं की माताओं से मिलूँ
आज जब दामिनी चली गई है
सब स्तब्ध हैं
नर पशुओं की दरिंदगी से त्रस्त हैं
हर तरफ उनके लिए मौत की मांग है
ऐसे में मेरी भी एक मांग है
कि एक बार मुझे उन नर पशुओं की माताओं से मिलाया जाए
पूछ पाऊँ उनसे
की कौन से अँधेरे की औलादें हैं वो
किस किस ज़हर से पाले हैं वो?
धमनियों में क्या क्या बहता रहा है
कानों में क्या, कौन कहता रहा है ?
दादा, नाना की गोदी भी खेले थे वो
नानी, दादी के सुख-दुःख भी झेले थे वो ?
किसी राखी के धागे भी बांधे थे कभी
रिश्तों को दिए थे काँधे भी कभी ?
भाई के संग कोई रोटी भी बांटी थी
माता कभी क्या उनको भी डांटी थी ?
चाची, भाभी, दादी, नानी, बुआ,
किसी से कभी था मेल हुआ ?
अगर वह सब हुआ, तो यह सब कैसे हो गया
रिश्तों का असर कैसे खो गया
भूल कहाँ, कैसे हो गयी
नर की संतान नराधम हो गयी
आदमी की औलादें
और पशुओं को भी पीछे छोड़ दें
एक कोख से निकले कोखी, दूजी कोख झंझोड़ दें
अगर वह सब हुआ, तो यह सब कैसे हो गया
रिश्तों का असर कैसे खो गया
यह सब जानना बहुत ज़रूरी है
बेहद ज़रूरी है उन हालातों को समझना
और संजीदगी से खन्खालना
जिसने इन को दरिंदगी सिखाई
हैवानियत की ऐसी पाठशाला पढ़ाई
और अब फांसी लगती ही है तो लग ही जाए
देरी की धुंध में दया न रो जाए
हवालातों पर खूब खूब बात हो
पर हालातों पर भी बात हो ही जाए
ध्रुतराष्ट्र की भी तो आँख खुले
गांधारी की आरोपित पट्टिका भी उतर जाए
मिट जाएँ वो राज्सभायें
जहाँ द्रोपदी की लाज न बच पाए
वो नीति मिट जाए राजनीति मिट जाए
मिट जाएँ वो अंधे क़ानून
वो अँधे सिंहासन भी न बचें
मिट जाएँ वो सिरफिरे जनून
कुछ तो अँधियारा छंटे
कुछ तो आये कहीं से प्रकाश
कहीं तो हिले कुछ तो हिले
कहीं तो बने दामिनी को आस
आज जब सब स्तब्ध हैं
नर पशुओं की दरिंदगी से त्रस्त हैं
हर तरफ उनके लिए मौत की मांग है
ऐसे में मेरी भी एक मांग है
कि एक बार मुझे उनकी माताओं से मिलाया जाए
....डा .अमिता तिवारी, वासिंगटन डी .सी
गुस्सा हैं अम्मा--------
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नहीं जलाया कंडे का अलाव
नहीं बनाया गक्कड़ भरता
नहीं बनाये मैथी के लड्डू
नहीं बनाई गुड़ की पट्टी
अम्मा ने इस बार-----
कड़कड़ाती ठंड में भी
नहीं रखी खटिया के पास
आगी की गुरसी
अम्मा ने इस बार------
नहीं गाये
रजाई में दुबककर
खनकदार हंसी के साथ
लोकगीत
नहीं जा रही जल चढाने
खेरमाई
नहीं पढ़ रही
रामचरित मानस-----
जब कभी गुस्सा होती थी अम्मा
छिड़क देती थीं पिताजी को
ठीक उसी तरह
छिड़क रहीं हैं मुझे
अम्मा इस बार-------
मोतियाबिंद वाली आंखों से
टपकते पानी के बावजूद
बस पढ़ रहीं हैं प्रतिदिन
घंटों अखबार
अम्मा इस बार------
दिनभर बड़बड़ाती हैं
अलाव जैसा जल रहा है जीवन
भरते के भटे जैसी
भुंज रही है अस्मिता
जमीन की सतहों से
उठ रही लहरों पर
लिख रही है संवेदनायें
घर घर मातम-----
रोते हुये गुस्से में
कह रहीं हैं अम्मा
यह मेरी त्रासदी है
कि
मैने पुरुष को जन्म दिया
वह जानवर बन गया-------
नहीं खाऊँगी
तुम्हारे हाथ से दवाई
नहीं पियूंगी
तुम्हारे हाथ का पानी
तुम मर गये हो
इस बार,हर बार---------
"ज्योति खरे"
न्याय की प्रतीक्षा में
पेड़ ने शोक न मनाया
जबएक एक कर
पत्ते साथ छोड़ गए
दुखी न हुआ तब भी
जब गिलहरियों ने चिड़ियों ने
उस पर फुदकना छोड़ दिया
कुछ न कहा उसने
जब सूरज की किरण
जो थामे रहती थी
हर वख्त
उसका दामन
छोड़ उसे
धुन्ध की गोद में समा गई
चुप रहा वो
जब ठूठ हुए बदन को
बर्फ के फूलों की चादर
ने ढक लिया
ठंढ की लहर
उसको अन्दर तक छिल गई थी
पर आज
तो वृक्ष चिटक गया था
दर्द का एक दरिया
फुनगी से जड़ों तक बह रहा था
और उसकी उदासी से पूरा मौसम उदास था
आज उसने शायद न्यूज़ देखी ली थी
संस्कारों के देश में
दरिंदो का तांडव देखा था
और महसूस किया था उस चीख को
जिसको वो अमानुष
न महसूस कर पाए
उदास था वो दरख़्त
क्योंकी न्याय की प्रतीक्षा में
आज भी झाँख रहीं थी अम्बर से
रचना श्रीवास्तव
निर्णय ... शून्य होकर भी अडिग कैसे ???
निर्णय शून्य है
हर तरफ एक रिक्तता का अहसास है
सन्नाटा भयाक्रांत अपने आप से
तोहमतो का बाज़ार गर्म है
कुछ तोहमतें लटकी हैं सलीब पर
बहते लहू के साथ
बड़ा ही भयावह दृश्य है
अंतर्रात्मा चीत्कार करती है
हर बार इक नई कसौटी पर
कब तक आखिर कब तक
वह अपने अधिकारों के लिये
आहुति देगी अपने स्वाभिमान की
...
निर्णय .. आखिर कब लिया जाएगा ???
या किया जाएगा ...
ये सवाल आज भी अटल है
हर शख़्स के कांधे पर
हर माँ की आँखो में, हर बेटी की जुबान पर
तारीख गवाह होती है हर बार
कानून की नज़र में
जुर्म बड़े ही शातिर तरीके
बड़े ही सुनियोजित ढंग से
अंजाम दे दिया जाता है
फरियादी सुनवाई के लिये
आत्मा की पैरवी करते-करते
एक दिन खुद-ब-खुद तारीख बन जाता है !!!
...
निर्णय .. खुद कैद में है जब
कहो कैसे वह जिरह करे अपनी आजादी की
मुझे बुलंदी का ताज़ पहनाओ
हर सोई हुई आत्मा को जगाओ
व्यथित है हर भाव मन का
पर फिर सोचती हूँ
ये निर्णय ... शून्य होकर भी
अडिग कैसे है
जरूर रूह इसकी भी छटपटा रही होगी
तभी तो इसने अपने जैसी रूहों को
एक नाम दिया है संकल्प का
...
सीमा 'सदा'
एक पुरानी रचना
भेड़ की खाल में कुछ भेड़िये भी बैठे है
लिबासे इंसान में कुछ जानवर भी बैठे है
शर्मो ह्या को बेच आये है जा के बाज़ार में
और कुटिल मुस्कान चेहरे पर सजा कर बैठे है
घर की बहन बेटियों को भी आती होगी शर्म इन पर
जो दिखावे को , कई राखियाँ बंधा कर बैठे है
जायेगे जब दुनिया से ये, लेगी राहत की साँसे धरती भी
जाने कब से उस के आंचल को, ये पाँव तले दबा कर बैठे है
अवन्ती सिंह
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक और सशक्त लिनक्स
सभी रचनायें मर्म को छूती हुई।
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली ,
जवाब देंहटाएंजारी रहें।
शुभकामना !!!
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सुंदर कविताएं
जवाब देंहटाएंऐसे में मेरी भी एक मांग है
जवाब देंहटाएंकि एक बार मुझे उन नर पशुओं की माताओं से मिलाया जाए
दिनभर बड़बड़ाती हैं
अलाव जैसा जल रहा है जीवन
और उसकी उदासी से पूरा मौसम उदास था
आज उसने शायद न्यूज़ देखी ली थी
तोहमतो का बाज़ार गर्म है
कुछ तोहमतें लटकी हैं सलीब पर ....