लोग क्या कहेंगे?"
यह एक बेड़ी है - 
जिसे सब कहीं न कहीं पहन लेते हैं 
और मूक हो जाते हैं !
सत्य आग्नेय स्वर में चीखता है 
रोता है 
तड़पता है 
फिर कमजोर बेबस निढाल 
सबको देखता है 
और या तो मर जाता है 
या इन बेड़ियों से दूर चला जाता है !

लोग  .... !
तथाकथित समाज है 
जिसकी एक इकाई हम भी हैं 
जो पर उपदेश 
पर नियम में अपनी शान समझता है,
जो जीने के सहज तरीकों को मटियामेट कर देता है,
सतयुग के उदाहरण रखता है 
बिना किसी गहरे अध्ययन के 
बड़ी बड़ी दलीलें रखता है 
.... 
लोग !
सभी लोग इस लोग से त्रस्त हैं !!!

रश्मि प्रभा 


"सब से बड़ा रोग.... क्या कहेंगे लोग...."
बादशाह खान
[Me.jpg]

सोच रहा हूँ क्या लिखू....?? सोचते हुए एक घंटे से ज्यादा हो चूका है पर अब तक इस बात का फैसला नहीं हो पाया है के लिखना किस विषय पर है... अब जब पूरा एक घंटा निकल ही गया है या बर्बाद हो ही गया है तो कुछ न कुछ तो लिखना ही पड़ेगा वर्ना आज रात भर नींद नहीं आएगी और फिर खुद की शकल भी तो देखनी है आईने में.....  तो फिर अचानक एक मेसेज आया मोबाइल पे.... और मुझे लगा के बॉस मिल गया अपना आज का सब्जेक्ट. उस मेसेज का मोरल था "सब से बड़ा रोग.... क्या कहेंगे लोग...." मुझे लगा की वाह क्या सब्जेक्ट मिला है लिखने के लिए... औए वाकई... ये सब्जेक्ट अच्छा भी है लिखने के लिए... सबसे बड़ा रोग... क्या कहेंगे लोग.... हम अपनी ज़िन्दगी में हर काम वही करते हैं जिससे हमे लोगो की तारीफ़ मिले... लोग हमारे काम को पसंद करें... अपनी पसंद और नापसंद तो बाद में तय करते हैं... पहले लोगों के बारे में सोचते हैं... . हमारा हर काम सिर्फ इसी बात पे निर्भर करता है की  लोग क्या कहेंगे.... आखिर क्यों हमें लोगों की इतनी परवाह होती है हमेशा... के हम खुद को दुःख में रखकर भी वही काम करते हैं जो दुसरो को खुश रख सकें.... और सच तो ये है के हम चाहे जो भी काम करें....   वो अच्छा हो या बुरा... अपनी ख़ुशी से... या दूसरों की ख़ुशी के लिए..... लोगों के पास हमेशा कुछ न कुछ होता ही है हमारे खिलाफ कहने को.... तो आखिर क्यों हम दुसरों की इतनी परवाह करते हैं.... क्यों हमारा हर काम सिर्फ और सिर्फ उनकी संतुष्टि के लिए होता है जिनके पास हमेशा हमारे खिलाफ हमेशा कुछ न कुछ होता ही है कहने को.... मुझे हमेशा से राजेश खन्ना की फिल्म अमर प्रेम का वो गाना याद आता है " कुछ तो लोग कहेंगे... लोगों का काम है कहना.." सच है.... ये हमेशा से होता आया है... बड़ी बात तो ये है के हमें ये सब पता होने के बाद भी हम सारे काम दुसरों के हिसाब से ही करते हैं.... पता नहीं ये ठीक है या नहीं... सही है या गलत... अच्छा है या बुरा.... पर जो भी है.... होता ऐसा ही है... हमारी ज़िन्दगी के एडी से छोटी तक के सारे काम दुसरों के हिसाब से ही किये जाते हैं... ऐसा क्या है इस दुनिया में .... हर बन्दा अपनी ख़ुशी के अलावा दुनिया की ख़ुशी पहले सोचता है.... काश के ऐसा होता.... अगर ऐसा होता तो दुनिया जिस रस्ते पर चल रही है ठीक उसकी विपरीत दिशा में जाती होती.... मगर ऐसा कुछ भी नहीं है हकीकत में.... सच तो ये है के हर इंसान के अन्दर एक अलग तरह का डर बैठा हुआ है के अगर मैंने ये काम किया तो दुनिया वाले क्या कहेंगे.... इंसान को दुनिया वालो की ख़ुशी की परवाह भले ही न हो... लेकिन दुनिया वालो की गालियों की परवाह ज़रूर है.... उससे हर बात पे इस बात का डर होता है की दुनिया वाले क्या कहेंगे....  मैं पूछना चाहता हूँ हर उस इंसान से जो दुनिया वालो की बातों से डरता है की "क्या दुनिया वालो को और कोई काम नहीं है सिवाय इसके के वो तुमसे आ के सवाल जवाब करें...???? " इस बात का जवाब है हां भी.... और नहीं भी.... क्युकि दुनिया के आधे लोगो में इतना साहस नहीं की वो आ कर तुमसे सवाल करे..... और बचे आधे लोग जो सवाल करते हैं.... हम में इतना साहस होना चाहिए के हम उनके सारे सवालो का ताबड़तोड़ जवाब दे सकें.... वैसे भी पीठ पीछे तो हर कोई बुराई करता है.... सामने से बोलने वाले कम ही मिलते हैं.... शर्मा जी ने सिर्फ इसलिए ह्युंदै की "वर्ना" खरीद ली क्योंकि वर्मा जी के पास भी वही गाडी है... और वो इसको ही सबसे अच्छी गाडी मानते हैं... रमा ने किटी पार्टी जाना सिर्फ इसलिए शुरू कर दिया क्योंकि सोसाइटी की बाकी महिलाये उनसे सौतेला व्यवहार करती थी... किटी पार्टी शुरू हुई... तो जुआ खेलना भी शुरू हो गया और ड्रिंक्स होना तो लाज़मी ही था.... प्रीति को शादी की शौपिंग बॉम्बे से करनी थी.... वर्ना सहेलियां क्या कहती.... इस तरह के ढेरो उदहारण हम रोज़ अपने आस पास में देख सकते हैं.... और हमे आस पास देखने की भी क्या ज़रूरत है.... हम खुद अपने आप को ही देख ले.... के हम क्या क्या करते हैं.. और क्यों और किसके लिए करते हैं.... जवाब अपने आप मिल जाएगा.... कारण सिर्फ एक ही है इसका... के हम डरपोक हैं... हम कमज़ोर हैं.... जो दुनिया से डरते हैं.... जो दुनिया के बनाये हुए इन रीति रिवाजों के हिसाब से चलते हैं..... हम में इतना साहस नहीं है के हम अपने किये गए हर काम को एक दृढ मत से सही साबित कर सकें... यही कारण है के हम हमेशा से वही करते आये हैं... जो दुसरों को संतुष्टि देता है.... और हम कमजोरों की तरह दूसरों की संतुष्टि में ही खुद की संतुष्टि समझने लगते हैं... इसके अलावा और कर भी क्या सकते हैं....
हमें अपना हर काम अपनी संतुष्टि के लिए ही करना चाहिए... दुनिया जो सोचे वो सोचे.... हम में इतनी शक्ति होना चाहिए के हम खुद को सही साबित कर दुनिया को अपने पदचिन्हों पर चलने को मजबूर कर दें.... मुझे पूरा विश्वास है के एक न एक दिन ज़रूर ऐसा आएगा जब हम सब सिर्फ अपनी संतुष्टि के लिए ही सारे काम करेंगे....


''लोग क्या कहेंगे?''(लघुकथा)--------------दीपक 'मशाल'

 मेरा फोटो

'अ' एक लड़की थी और 'ब' एक लड़का. बचपन से ही दोनों के बीच एक स्वाभाविक आकर्षण था, जिसे बढ़ती उम्र और मेलजोल ने प्रेम के रूप में निखार दिया. दोनों साथ में पढ़ते, घूमते-फिरते, कॉलेज जाते और कला-संगीत के कार्यक्रमों में रुचियाँ लेते. एक दूसरे की रुचियों में समानताएं होने से प्यार सघन होता गया. उनके अटूट से दिखते प्रेम को देख लोगों के दिलों से निकली ईर्ष्या के उबलते ज़हर की गर्मी उनके आसपास के वातावरण को जितना उष्ण करती उनके प्रेम की शीतलता उन्हें उतना ही करीब ले आती.  
पढ़ाई ख़त्म होते-होते दोनों के परिवारवालों को अपने-अपने बच्चों की शादी की चिंता सताने लगी. ये तो याद नहीं पड़ता कि कौन, किससे,  कैसे और कितना ज्यादा अमीर था लेकिन दोनों के परिवारों के बीच के पद-प्रतिष्ठा, धन और शोहरत के इसी अंतर ने उनके प्रेम के पिटारे में झाँकने की ज़हमत ना उठाई, चारों तरफ सवाल उठे- ''लोग क्या कहेंगे?'' और अ या ब किसी एक के घरवालों ने उनके प्रेम को परिवार की इज्ज़त को डंस सकने वाले ज़हरीले नाग का खिताब दे उस पिटारे को वहीँ दफ़नाने का हुक्म सुना दिया. दोनों के रिश्ते अलग-अलग परिवारों में अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक कर दिए गए. किसी से कहे बगैर मन ही मन दोनों ने अपने-अपने बच्चों के साथ ऐसा ज़ुल्म ना करने की ठान नियति के आगे सर झुका दिया.

सालों बीत गए.. अ और ब दोनों ने अपनी मेहनत और लगन से समाज में अच्छा रुतबा, धन-दौलत और वो सब जिसके लिए लोग खपते हैं, कमा लिया. दोनों अलग-अलग शहर में थे एक दूसरे से अन्जान, अलबत्ता यादों में दोनों अभी भी एक-दूसरों को याद थे. अ का बेटा अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका था और अ उसकी शादी के लिए सुयोग्य लड़कियां ढूँढने लगी थी और उधर ब अपनी खूबसूरत और खूबसीरत बेटी के लिए भी यही सब उपक्रम करने लगा था. दोनों ने सोचा क्यों ना एक बार अपने-अपने बच्चों से जान लिया जाए कि कहीं उन्हें तो कोई पसंद नहीं. दोनों का सोचना सही निकला. इधर अ का बेटा एक लड़की से बेइन्तेहाँ मोहब्बत करता था और वो लड़की भी तो उधर दूसरी तरफ ब की बेटी को भी एक लड़के से प्रेम था. कहीं ना कहीं अ और ब की सी कहानी दोनों तरफ पनप रही थी.
अ ने अपने बेटे की प्रेमिका के बारे में कहीं से जानकारी जुटाई तो पता चला वो एक मॉडल थी.. लोगों ने बीच में मिर्च-मसाला लगा इस पेशे की बुराइयां गिनानी शुरू कर दीं- ''मैडम, आप तो जानती ही हैं इस पेशे में क्या-क्या उघाड़ना पड़ता है और क्या-क्या छुपाना पड़ता है.. अपनी इज्ज़त का कुछ तो ख्याल कीजिए. लोग क्या कहेंगे?''
उधर ब की बेटी को जो लड़का पसंद था उसके ना माँ का पता था ना बाप का.. अनाथालय में पला-बढ़ा था. लोगों ने यहाँ भी कहना शुरू किया, ''इंटेलिजेंट है तो उससे क्या? खानदान भी तो देखना पड़ता है कि नहीं? अगर इकलौती बेटी के लिए भी ढंग का खानदानी लड़का ना ढूंढ पाए तो लोग क्या कहेंगे?''

एक बार फिर दो अलग-अलग शहरों में दो प्रेम कहानियों का ''लोग क्या कहेंगे?'' के शोर के बीच क़त्ल कर दिया गया.. अब अ और ब की मर्जी के मुताबिक उनके बेटे-बेटियों की कहीं शादियाँ हो रही थीं. फिर शहनाइयों के बीच २५ साल पुराने 'अपने बच्चों के साथ ये ज़ुल्म ना होने देंगे' जैसे संकल्प दोहराए जा रहे थे.

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