हवा ने अल्हड़ता का जामा पहना था दर्द की दूरी बनाकर !
अपर्णा अनेकवर्णा
अनेकवर्णा
एक मौत के बाद
....................
वो सुन रही है
तेज़ संगीत
कान पर हेडफ़ोन्स चढ़ाये
जानती हूँ वो हेडफ़ोन्स
उसने अपने दुःख पर चढ़ा रखें हैं
'जस्ट लेट मी बी.. प्लीज़!'..
बड़ी विनम्रता से
सबको दूर किया है उसने ..
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वो सुन रही है
तेज़ संगीत
कान पर हेडफ़ोन्स चढ़ाये
जानती हूँ वो हेडफ़ोन्स
उसने अपने दुःख पर चढ़ा रखें हैं
'जस्ट लेट मी बी.. प्लीज़!'..
बड़ी विनम्रता से
सबको दूर किया है उसने ..
दुःख आपको खुद में समेट देता है..
सबसे छोटे वाले पर्सनल दायरे में
क़ैद हो जाना चाहता है मन
उस मन को थामे हुए तन..
वो संगीत सुनना है आज
जो लगभग रोज़ ही चिढ़ा देता है
पर आज आश्वस्त करेगा
कुछ तो बाँट रही है
सबसे छोटे वाले पर्सनल दायरे में
क़ैद हो जाना चाहता है मन
उस मन को थामे हुए तन..
वो संगीत सुनना है आज
जो लगभग रोज़ ही चिढ़ा देता है
पर आज आश्वस्त करेगा
कुछ तो बाँट रही है
शायद अभी देर है
अभी थोडा सा और रुकना है
सांत्वना दे पाना भी एक ज़रुरत है
ना पूरी हो तो
ख़ुद को ही
सांत्वना की ज़रुरत
पड़ ही जाती है
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अभी थोडा सा और रुकना है
सांत्वना दे पाना भी एक ज़रुरत है
ना पूरी हो तो
ख़ुद को ही
सांत्वना की ज़रुरत
पड़ ही जाती है
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विंसेंट वैन गॉग की छतरी
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एक तारों भरी रात बेचैन बिता
सुबह जब जागा था वो..
कटा कान अपनी अनुपस्थिति
दर्द भरी धड़कनो से जता रहा था
सामने गेहूं के उदास कट चुके खेत थे..
काले कव्वों का झुण्ड बिखरे दाने
या जाने मूस तलाश रहा था..
कम से कम भोजन तो था उनके पास
बगल की झोपडी में कृषक परिवार
चंद उबले आलू बड़ी नफासत से
छूरी-कांटो से खाने का उपक्रम रहा था..
नज़रें मिलने से इंकार कर चुकी थीं.
बाहर उस प्रौढ़ औरत के भद्दे बूट्स धूप खा रहे थे..
उसने घबरा कर लियो को एक ख़त लिखना चाहा
न हो सका.. उसे कितना परेशां करता और.. रुक गया
नज़र कोने में पड़ी उस छतरी पर पड़ी...
जिसे भूल गया था कोई.. वापिस नहीं आया कभी लेने..
उसका मटमैला भूरा-पीला रंग पुकार रहा था
ये पीला तो अक्सर बातें करता है उससे...
जब वो उठा तो तय कर चुका था..
विंसेंट को उस देस पहुंचना था..
जहाँ आकाश में रातों को खिलते थे तारे..
दिन में चेरी.. बादाम.. आड़ू के दरख्तों पर बहार होती थी..
जहाँ सूरज पिघल आता था गेहूं के खेतों में..
गहरा हरा जीता था जैतून.. देवदार.. सरु में....
उस प्रौढ़ा के हाथ सख्त और आँखें नरम थीं..
जब वो निकला था..
उस छतरी को ले कर..
वो फिर से नयी-नयी थी..
ऊपर से गाढ़ी रौशनाई.. रात सी..
भीतर उसके सूरजमुखी के..
कितने ही सूरज खिले हुए थे...
अब विंसेंट आज़ाद था..
कटा कान भी वापिस उग आया था....
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एक तारों भरी रात बेचैन बिता
सुबह जब जागा था वो..
कटा कान अपनी अनुपस्थिति
दर्द भरी धड़कनो से जता रहा था
सामने गेहूं के उदास कट चुके खेत थे..
काले कव्वों का झुण्ड बिखरे दाने
या जाने मूस तलाश रहा था..
कम से कम भोजन तो था उनके पास
बगल की झोपडी में कृषक परिवार
चंद उबले आलू बड़ी नफासत से
छूरी-कांटो से खाने का उपक्रम रहा था..
नज़रें मिलने से इंकार कर चुकी थीं.
बाहर उस प्रौढ़ औरत के भद्दे बूट्स धूप खा रहे थे..
उसने घबरा कर लियो को एक ख़त लिखना चाहा
न हो सका.. उसे कितना परेशां करता और.. रुक गया
नज़र कोने में पड़ी उस छतरी पर पड़ी...
जिसे भूल गया था कोई.. वापिस नहीं आया कभी लेने..
उसका मटमैला भूरा-पीला रंग पुकार रहा था
ये पीला तो अक्सर बातें करता है उससे...
जब वो उठा तो तय कर चुका था..
विंसेंट को उस देस पहुंचना था..
जहाँ आकाश में रातों को खिलते थे तारे..
दिन में चेरी.. बादाम.. आड़ू के दरख्तों पर बहार होती थी..
जहाँ सूरज पिघल आता था गेहूं के खेतों में..
गहरा हरा जीता था जैतून.. देवदार.. सरु में....
उस प्रौढ़ा के हाथ सख्त और आँखें नरम थीं..
जब वो निकला था..
उस छतरी को ले कर..
वो फिर से नयी-नयी थी..
ऊपर से गाढ़ी रौशनाई.. रात सी..
भीतर उसके सूरजमुखी के..
कितने ही सूरज खिले हुए थे...
अब विंसेंट आज़ाद था..
कटा कान भी वापिस उग आया था....
Ruchi Bhalla (सोशल मिडिया से )
अपर्णा की कवितायेँ अपने आप में परिपूर्ण और बेहतरीन होती हैं .........बधाई !
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