सन सनननन हवा
कुछ नमी सी है
इन्द्र ने मेघ मल्हार छेड़ दिया है
सोचा है रिमझिम फुहारों से
कुछ बूंदें चुन चुन
एक पाजेब बना लूँ
जब जब सूखे का एहसास होगा
इस पाजेब से हरियाली ले आऊँगी
धरा को सुकून दे
... बारिश हो तो मकसद पूरी कर लूँ
मॉनसून की आहटों को संजो लूँ
प्रकृति के संग प्रकृति सा रिश्ता जोड़ लूँ ...
रश्मि प्रभा
इंतज़ार है, क्षितिज में कबसे, काले, घने, बादलों का
सतीश सक्सेना
इंतज़ार है ! क्षितिज में कबसे, काले घने, बादलों का !
पृथ्वी, मानव को सिखलाये,सबक जमीं पर रहने का !
गर्म हवा के लगे, थपेड़े,
वृक्ष न मिलते राही को ,
लकड़ी काट उजाड़े जंगल
अब न रहे ,सुस्ताने को !
ऐसे बिन पानी, छाया के, सीना जलता जननी का !
रिमझिम की आवाजें सुनने,तडपे जीवन धरती का !
चारो तरफ अग्नि की लपटें
निकलें , मानव यंत्रों से !
पीने का जल,जहर बनाये
मानव अपने हाथों से !
डेली न्यूज़ के सौजन्य से , अच्छा लगता है जब लोग
बिना भेजे, रचना को छपने योग्य समझे !आभार !
मां के गर्भ को खोद के ढूंढे ,लालच होता रत्नों का !
आखिर मां भी,कब तक देगी संग,हमारे कर्मों का !
उसी वृक्ष को काटा हमने
जिस आँचल में, सोते थे !
पृथ्वी के आभूषण, बेंचे
जिनमें आश्रय पाते थे !
मूर्ख मानवों की करनी से, जलता छप्पर धरती का !
आग लगा फिर पानी ढूंढे,करता जतन, बुझाने का !
जननी पाले बड़े जतन से
फल जल भोजन देती थी !
शुद्ध हवा, पानी के बदले
हमसे प्यार , चाहती थी !
दर्द से तडप रही मां घर में, देखे प्यार मानवों का !
नईं कोंपलें , सहम के देखें , साया मूर्ख मानवों का !
जल से झरते, झरने सूखे
नरम मुलायम पत्ते, रूखे
कोयल की आवाज़ न आये
जल बिन वृक्ष, खड़े हैं सूखे
यज्ञ हवन के, फल पाने को, है आवाहन मेघों का !
हाथ जोड़ कर,बिन पछताये,इंतज़ार बौछारों का !
भीतर मेघ मल्हार...
इन दिनों फुरसत में हूं. फुरसत जो हमेशा फुर्र से उड़ जाती थी. कभी इस डाल, कभी उस डाल. उसका पीछा करना अच्छा लगता था. बीमारी के बहाने अब वो मेरे पीछे लगी रहती है. यह भी अच्छा लग रहा है. सावन ऐसा तो कभी बीता ही नहीं कि हम सोते रहें और ये बीतता रहा. दोस्त कहते हैं कि मैं मौसमों की माशूका हूं. $जरूर वे दरवाजे पर अब भी मेरा इंतजार करते होंगे. मैं तो सोई रहती हूं. दवाइयां खाती हूं और सो जाती हूं. कितना जुल्म करती हूं ना? जागती हूं तो बादल या तो बरस के जा चुके होते हैं या ना बरसने का मूड बनाकर रूठे न$जर आते हैं. हां पत्तों पर गिरी बूंदों को छूकर सावन महसूस करती हूं. सोचती हूं वो भी क्या सावन था जब बेधड़क दरवाजे को धकेलते हुए कमरे में जीवन में स्मृतियों में दाखिल हो जाया करता था. अब ये मौसम इतने सहमे से क्यों रहते हैं. इन्हें किसका डर है.
क्यों बूंदें मुझे नहीं भिगोतीं, क्यों मैं उन्हें बालकनी से देखती भर रहती हूं. बादलों पे पांव रखकर चलने का चाव रहा हमेशा से, बूंद बनकर बरसने की तमन्नाएं रहीं...फिर ये नींद न जाने कहां से आ गई. डॉक्टरों से मिली उधार की नींद. कुछ न करने की ताकीद, कुछ न सोचने की ताकीद. आदत है बात मान लेने की सो ये भी मान ली और देखो कैसे उदास सा बादल का टुकड़ा बालकनी की रेलिंग को पकड़कर बैठा है.
मैं उससे कहती हूं मुझे डर लगने लगा है इन दिनों. चलने से डर कि गिर जाऊंगी, जीने से डर कि मर जाऊंगी...बूंदों को हाथ लगाती हूं और डरकर हटा लेती हूं कहीं बह न जाऊं इनके साथ. बह ही तो जाना चाहती थी हमेशा से. बादल का वो टुकड़ा मेरी बातें सुनता है और चला जाता है.
मां, आज कौन सा दिन है? दिनों का हिसाब किताब बिगड़ गया है. मुंडेर पर दूर बैठा कौव्वा दिखता है, किसका घर है वो...मां से पूछती हूं. पूरा सावन मायके में बीत रहा है फिर भी गुनगुनाती हूं 'अम्मा मेरे बाबुल को भेजो री..' .पापा आकर बगल में खड़े हो जाते हैं. सब हंस देते हैं जाने क्यों मेरी ही आंखें छलक पड़ती हैंं. मैं सावन को दोनों हाथों से पकड़ लेना चाहती हूं. इसकी बूंदों में किसी के होने का इंतजार नहीं. किसी के आने की तमन्ना नहीं, बस सूखे मन को भिगो लेने की ख्वाहिश है...मेरा डर बढ़ रहा है इन दिनों. मां के सीने से चिपक जाती हूं...तभी बूंदों की बौछार हम दोनों को भिगो देती है...मौसम मुस्कुरा रहा है. मत घबराओ प्रिये, जब तुम सोओगी मैं तुम्हारे सिरहाने बैठकर तुम्हारा इंतजार करूंगा...मैं निश्चिंत होकर आंखें मूंद लेती हूं...बाहर बूंदों का साज बज रहा है भीतर मेघ मल्हार...
जवाब देंहटाएंआभार याद करने को , ऊपर रचना को कॉपी करने में कुछ गड़बड़ हुई है कृपया चेक कर लें !मंगलकामनाएं !
बहुत सुंदर सतीश जी सच में बहुत खूबसूरती से बहुत खूबसूरत लिखते हैं :) प्रतिभा जी की रचना भी बहुत अच्छी है ।
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