हल्की सी बारिश
धीमी रौशनी सी ग़ज़ल
और किशोर चौधरी …।
काश शैतान को आता
अपनी माँ की संभावित मौत को कैश करना
ईमानदारी का ढोंग पीटते हमसफ़र को धोखा देना
दोस्त बनकर दोस्त चुराना।
तो वह भी प्यारा हो सकता था
जिसका करता हर कोई इंतज़ार।
शैतान को प्यारा होना पसन्द नहीं है इसलिए बस वो ऐसा नहीं है।
* * *
वो मेरा नहीं है इसका यकीं है मगर
उसकी चाहतों में मुकम्मल मैं भी हूँ।
इश्क़ मैं, तुम भी
और भीख में माँगना सिर्फ मोहोब्बत।
* * *
और तुम्हे पता है इश्क़
कि जंगल की गंध वाली व्हिस्की
मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है।
जैसे तुम नहीं मिलते
वैसे वह भी नहीं मिलती।
क्या मैं रो सकता हूँ इस बात पर?
* * *
शैतान ने कहा है तुमसे
कि हो जाना
अमेरिका सा तानाशाह
या फिर
जन्नत की झूठी तकरीरें करना
स्वर्ग के नकली स्वप्न दिखाना।
कुछ भी करना
मगर मुझे बाँधकर रखना अपने पास।
कि तुम बिन शैतान तनहा है।
* * *
दीवारों पर टूटती अंगड़ाइयों के साये
बिस्तरों पर सलवटों के निशान
गले में पड़े स्कार्फ के नीचे धब्बे
और खुशबुएँ सीलेपन की।
शैतान सब जानता है
मगर एक मोहब्बत तुम्हारी जाने क्या चीज़ है?
* * *
फरेब और वफ़ा के बीच
सिर्फ मोहोब्बत भर का फासला था।
इश्क़ मैं, तुम इसी वजह से करीब हो।
* * *
मोहोब्बत में हर कोई चाहता है
इस तरह करीब होना कि भड़क कर बुझ जाये।
शैतान मगर सीली माचिस की तरह इंतज़ार करता है।
* * *
याद के रोज़नामचे से
आहिस्ता से उड़ जाती हैं
हरे नीले रंग की परियां।
समन्दर के किनारे
ख़ानाबदोशों के टेंट से झांकती हुई आँखें
ज़िन्दगी भर साथ चलती हैं।
शैतान मुस्कुराता है आँखें सोचकर।
* * *
शैतान तुम्हारे प्यार में
हो जाता है एक लकड़हारा
छांट देता है दिल के जंगल का घना अँधेरा।
तुम भी कभी दियासलाई हो जाओ।
* * *
आँखों से उगना
दिल में बुझ जाना।
आकाश भर रखना मोहोब्बत।
बस डूबती नब्ज़ को भूल जाना
कि आखिर वह एक शैतान है।
तुम्हारा शैतान, अविनाशी।
* * *
वाद्ययन्त्र के बहत्तर हिस्सों में
सुर अलहदा मगर रूह एक है।
शैतान की प्रेमिका, शैतान की प्रेमिका।
* * *
हम भूल जाते हैं
बहुत सी चीज़ें कहीं रखकर
फिर धीरे धीरे भूलते जाते हैं
कि कहाँ रख रहे हैं अपने दिन-रात।
बेख़याली में होना कोई अचम्भा तो नहीं
मगर तुम भूल गए अपनी याद मेरे पास।
कभी उसे लेने आओ,
शैतान तुमसे मिलने की आस में रहता।
* * *
इश्क़ मैं, वे जो संगमरमर की मूरतें थीं, वे जिनकी हैसियत शाहों से ऊँची थी, वे जो बर्फ की ठण्ड से सफ़ेद थे। उनके बारे में लिखा था और लिखना जाया न गया कि अतीत के आइने में अब वे सूरतें आसानी से पढ़ीं जा रही हैं। किसी हुनर, इल्म, शक्ल के कारण मोहोब्बत करना गुनाह है तो कहो, अब तुम्हारे बारे में भी न लिखूं कि तुमसे तो बहुत सी वजहें हैं लिखने की।
शाख के उस सिरे तक
एक काफिला था, ठहरी हुई दस्तकें थीं. बंद दरवाज़े और दीवार से बिना कान लगाये सुनी जा सकती थी. ज़िंदगी मुझे बुला रही थी. मैं अपने सब रिश्ते झाड़ रहा था. चलो अच्छा हुआ जी लिए. जो उनमें था वह गले से उतरा. जिस किसी जानिब कोई टूटी बिखरी आवाज़ के टुकड़े थे सबको बुहारा. अपने आप से कहा चलो उठो. ज़िंदगी जा रही है. रास्तों को छूना है तो चलो उनपर. देखना है बदलते मौसम को तो बाहर आओ. प्रेम करना चाहते हो तो प्रेम करो. न करोगे कुछ तो भी सबकुछ जा ही रहा है. ज़िंदगी एक छलनी लगा प्याला है. कुछ रिस जायेगी कुछ भाप हो जायेगी.
कुछ बेतरतीब बातें. बीते दिनों से उठाई हुई.
* * *
खुला पैसा अक्सर हम जिसे समझते हैं वह वो चवन्नियां अठन्नियां रुपये सौ रूपये नहीं होते। खुले पैसे वो होते हैं जिन्हें बेहिसाब खर्च किया जा सके। ऐसे ही खुली ज़िन्दगी वो है जो बहुत सारी है। जिसे आप अपने हिसाब से बेहिसाब खर्च कर सकते हैं।
* * *
शाख के उस सिरे तक जाकर बैठेंगे, जहाँ वह हमारी सांस-सांस पर लचकी जाये।
* * *
उस जगह मुद्दतों सूनापन और किसी आमद की हलकी आस रहती थी। अचानक दो जोड़ी गिलहरियाँ फुदकने लगी। वे कच्ची मूंगफली के दूधिया दाने मुंह में फंसाए इठलाती और फिर अचानक सिहरन की तरह दौड़ पड़ती। दक्खिन के पहाड़ों पर कुम्भ के मेले की तरह बारह साल बाद खिलने वाले फूल न थे मगर उल्लास भरी हवा किसी सम्मोहन की ठहर में घिर पड़ती।
दोपहर जब कासे के ज़रा भीतर की ओर लुढकी तो वही सूनापन लौटने लगा। शाम जैसे कोई रुई से भरा बोरा थी जिसका मुंह उल्टा खुल गया था। वह फाहों की तरह दसों दिशाओं से अन्दर आने लगी। जैसे आहिस्ता आहिस्ता किसी के चले जाने के दुःख का बोझ उतरता हो। नींद ख़्वाब थी। ख़्वाब नींद हो गए। प्रेम एक अबूझ रंग, गंध और छुअन बन कर आया स्मृति बनकर बस गया। एक लम्हा गोया एक भरा पूरा जीवन।
लौट लौट आने की दुआ हर सांस।
* * *
यूं तो दूर तक पसरी हुई रेत सा कोरा जीवन था, सब्ज़ा एक कही सुनी बात भर थी। दिन, रात के किनारों के भीतर लुढ़क जाते थे। सुबहें अलसाई हुई चल पड़ती थीं वापस दिन की ओर। धूल ढके उदास बाजे पर प्रकाश-छाया के बिम्ब बनते-मिटते रहते थे। सुर क्या थे, सलीका कहाँ था? जाने किस बेख़याली में लम्हे टूटते गिरते जाते।
दफ़अतन!
एक छुअन से नीम बुझी आँखे जाग उठीं। रेत की हर लहर में समायी हुई अनेक गिरहों से भरी लहरें नुमाया हुई। एक उदास अधुन में जी रहा बाजा भर गया अपने ही भीतर किसी राग से।
ओ प्रेम, सबकी आँखों में कुछ सितारे रखना।
* * *
जैसे किसी लता पर फूटते पहले दम कच्चे रोएं का सबसे हल्का हरा रंग। जैसे किसी उम्मीद के कोकून से ताज़ा बाहर आये केटरपिलर की नाज़ुकी। जैसे अचानक पहली बार सुनी जा रही अविश्वसनीय किन्तु प्रतीक्षित प्रेम की बात दोशीज़ा कानों को छूती हुई।
वह कुछ इस तरह और गुज़रती रात रुक-रुक कर देखती हुई।
* * *
हाइवे पर गुजर रही है चौंध भरी रोशनियाँ
जैसे तुम्हारे ख़यालों की ज़मी पर
मुसलसल बरस रही हों याद की पीली पत्तियां।
वो शहर क्या था, ये रास्ता क्या है
मेरे बिना तुम कैसे हो, तुम बिन मैं जाने क्या हूँ।
* * *
तुम उचक भी नहीं सकते
मैं हद को तोड़ भी नहीं सकता
एक आवाज़ सुनने को एक सूरत देख लेने को
आज जाने क्या मनाही है
दिन ये उदासा था, शाम ये तनहा थी, रात ये खाली है।
एक बार व्हिस्की और उससे ज्यादा तुम आओ।
* * *
एक बलखाई तनहा पत्ती शाख से बिछड़ कर कुछ इस तरह उतरती है ज़मी की ओर जैसे कोई सिद्ध खिलाड़ी तरणताल में उतरने से पहले गोल कलाबाज़ियों के ध्यान में गुम होता है। वह अगर एक बार भी देख सकती पीछे या ज़रा सी नीचे से ऊपर की ओर भर सकती उड़ान तो भ्रम हो सकता था कि एक सूखी पत्ती बदल गयी है पीली तितली में।
वैसे होने को क्या नहीं हो सकता कि मुझसा बेवफ़ा और दिलफेंक आदमी भी आखिर पड़ गया प्यार में।
* * *
उन दीवारों के बारे में मालूम न था कि वे किसलिए बनी थी मगर खिड़कियाँ थीं आसमान को चौकोर टुकड़े की शक्ल में देखने के लिए। जो सबसे ठीक बात मालूम है वह है कि तुम्हारे लब बने थे मेरी रूह के पैरहन से खेलने के लिए।
* * *
पेड़ के नीचे हर रोज फूलों एक चादर बिछी होती थी. जैसे किसी प्रिय के मन से निशब्द आशीष झरता हो. वे दोनों मगर अनचाहे थे. जो फूल अपने आप झड़ते हों, जो आशीष अपने आप मिलता उसका कोई मोल नहीं था.
किसी से नहीं कहा कि था क्या
किसी के पास इस वजह को सुनने का मन भी न था
सबकुछ यथावत चाहिए था हर किसी को
मिलने से पहले की सूरत में
या ये अपरिहार्य था कि हिसाब बिना ढील के कर लिए जाएँ.
वे दयालु और प्रेमी कहलाना पसंद करते थे
उन्हें झूठ और फरेब से नफरत थी.
ऐसा उनका कहना था कि
वे नहीं जानते
उन्हें असल में डर किस स्थिति से था
अप्रिय हाल में उनकी देह भाषा किस तरह व्यक्त थी
वे जिस तरफ रौशनी में थे उसकी दूसरी तरफ क्या था
वे इकहरे कहलाना चाहते थे मगर बुने हुए थे त्रिआयामी.
पहाड़ के लोग सनोबर का चिलगोंजा थे
रेगिस्तान के लोग थार के डंठल थे
समंदर के लोग किसी समुद्री जीव के खोल थे
बावजूद इसके
जो सबसे पूछा गया वह सवाल एक था
वे सब जो जवाब देते थे वह जवाब एक था.
प्यार था तो फिर इतनी नफरत कहाँ से आई
नफरत थी तो वो प्यार जताने के सिलसिले क्या थे?
मेरे पास तुम्हारे लिए एक श्राप है, जाओ भुगतो इस जीवन को
जिस तरह उसने मुझे खोजा है, उस तरह कोई तुमको न खोज सके.
बेहतरीन !
जवाब देंहटाएं