चुप रहना बेहतर है,
चुप नहीं रहते जवाब ही दे देते तो ही सही था  … 
लगातार कोई अपशब्द कहे तो अनसुना करना सही है 
अपशब्द के विरोध में अपशब्द ज़रूरी होता है 
कम से कम अपनी मनःस्थिति गुनहगार नहीं होती  … 
लेकिन क्या अपनी मनःस्थिति खुद को नहीं धिक्कारती ?
जब सारे कुबोल एकांत में मथते हैं 
और एक शांत ख्याल भी हम सहज रूप से नहीं ले पाते !"
अच्छाई मनुष्य को लाचार कर देती है 
खुद ही खुद को शाबाशी देती है 
और अपशब्दों के दावानल में जलती रहती है। 

पूरी ज़िन्दगी इसी उधेड़बुन में बीत जाती है !!!!

सही को स्पष्टीकरण की ज़रूरत नहीं"
पर स्पष्टीकरण माँगा तो उसीसे जाता है !
गलत से मुँह लगना कोई नहीं चाहता 
पर उसकी तोहमतों पर विचारक सभी होते हैं 
और इसी बाज़ी को जीतने में 
एक बहुत बड़ा समूह 
तोहमत लगानेवाले के प्रश्नों को दुहराता है 
और सही' के चक्कर में 
अपराधी बनकर रह जाता है !

समझना मुश्किल है वक़्त की माँग को 
बोलो तो गड़बड़ 
ना बोलो तो गड़बड़  … 
सोचो न ब्रेकर पर कोई पूरी स्पीड से आगे बढ़ जाता है 
कोई धीरे होकर भी दुर्घटना का शिकार होता है 
अब किस्मत कहें या चांस 
पूरी ज़िन्दगी का यही हिसाब-किताब है 

रश्मि प्रभा 


एक महान डाकू की शोक सभा -आदित्य चौधरी
भारतकोश 

एक 'महान' नेता, एक 'महान' डाकू की शोक सभा संबोधित कर रहे थे।-
        "वो एक महान डाकू थे। ऐसे ख़ानदानी और लगनशील डाकू अब देखने में नहीं आते। आज भी मुझे अच्छी तरह याद है... जब उन्होंने पहली डक़ैती डाली तो वो नवम्बर-दिसम्बर का महीना रहा होगा; दिवाली के आसपास की बात है। डक़ैती डाल कर वो सीधे मेरे पास आए और डक़ैती का पूरा क़िस्सा मुझे एक ही साँस में सुना डाला। हम दोनों की आँखों में खुशी के आँसू थे। बाद में हम दोनों गले मिलकर ख़ूब रोए।"
आगे कुछ बोलने से पहले उन्होंने वही किया जो नेता अक्सर भाषण देते हुए करते हैं-
        उन्होंने माइक को देखा और भावुक होकर दाएँ हाथ से उसे पकड़ लिया। बाएँ हाथ की चार उंगलियों को मोड़कर एक लाइन में लगाया और ग़ौर से नाखूनों को देखा। इसके बाद कुछ सोचने का अभिनय किया और साँस छोड़कर (जो कि खिंची हुई थी) दोनों हाथ पीछे बाँध लिए। एक बार एड़ियों पर उचक कर फिर से कहना शुरू किया-
        "वो ज़माना ही ऐसा था... उस ज़माने में डक़ैती डालने में एक लगन होती थी... एक रचनात्मक दृष्टिकोण होता था। जो आज बहुत ही कम देखने में आता है। मुझे भी कई बार मूलाजी के साथ डक़ैतियों पर जाने का अवसर मिला। आ हा हा! क्या डक़ैती डालते थे मूलाजी। कम से कम ख़र्च में एक सुंदर डक़ैती डालना उनके बाएँ हाथ का खेल था। बाद में वक़्त की माँग के अनुसार उन्होंने अपनी डक़ैतियों में बलात्कार को भी एक समुचित स्थान दिया किन्तु दुर्भाग्य ! कि उन्होंने जो डक़ैतियाँ डालीं... हत्याएँ कीं और बलात्कार किए... उसका पूरा श्रेय और बाद में लाभ ख़ुद उन्हीं को नहीं मिल पाया।"
        "...उनकी आदत हमेशा दूसरों को बढ़ावा देने की रही। वो तो मानो एक विश्वविद्यालय ही थे। नये लड़कों को जब वो अपने साथ डक़ैतियों में ले जाते थे तो उन्हीं को हमेशा हत्याएँ और बलात्कार करने का मौक़ा भी देते थे। जहाँ तक मुझे याद आता है, जब भी वो मुझे मिले, उनके साथ चार-पाँच नई उम्र के लड़के होते थे। आ हा हा! क्या दृश्य होता था... सभी लड़के नशे में धुत्त, मुँह में पान और अपनी-अपनी अन्टी में तरह-तरह के हथियार लगाए हुए। उन लड़कों में से... जो आज जीवित बचे हैं, उनके नाम और फ़ोटो अख़बारों में देखकर बेहद प्रसन्नता होती है। मूलाजी के 'सधाए' हुए लड़के आज कई पार्टियों में सम्मानित पदों पर हैं। उस त्यागमूर्ति का ध्यान आने से ही मैं भावुक हो जाता हूँ।"
-तालियाँ बजीं...
        "शुरुआत में छः-सात डक़ैतियाँ डालने के बाद ही वो काफ़ी प्रसिद्धी पा गए थे लेकिन आप तो जानते ही हैं कि पुलिस ने हमेशा उनके साथ सौतेला व्यवहार ही किया। कई डक़ैतियाँ ऐसी थीं जो उन्होंने अपने बल-बूते पर ही डाली थीं, लेकिन पुलिस रिकार्ड से उनका नाम ग़ायब ही रहा और उन डक़ैतियों का श्रेय उन्हें नहीं मिल पाया। असल में उस समय जो पुलिस कप्तान था वो अपनी जाति के एक साधारण से डाकू को प्रमोट करने के चक्कर में रहता था। जिसमें कि बाद में वो सफल भी रहा।"
        ...
        "स्वर्गीय श्री मूलशंकर जी; जिन्हें हम "मूला डाकू" के नाम से जानते हैं, एक ज़बर्दस्त पक्षपात पूर्ण रवैए का शिकार हुए। पाँच अच्छी डक़ैतियाँ डालने के बाद मुश्किल से एक डक़ैती में मूला जी का नाम आ पाता था। इससे उनका प्रमोशन रुक गया। वो अपने डाकू कॅरियर की अगली सीढ़ी को पाने में असफल रहे याने नेता नहीं बन पाए।"
-वे भावुक हुए-
        "दोस्तों आप तो जानते हैं कि कौन अपनी पसंद से डाकू बनता है ?... कोई नहीं ! ये तो मजबूरी है दोस्तों... मजबूरी ! अगर मूलशंकर जी ने नेता बनने का सपना नहीं देखा होता तो बेचारे क्यों डाकू बनते। वो भी किसी सरकारी दफ़्तर में नौकरी करके डाकुओं से ज़्यादा नहीं कमा रहे होते ?
-वे और भावुक हुए-
        "... आप को पता ही है कि किसी पार्टी ने उन्हें चुनाव में टिकिट नहीं दिया और वो साधारण सा डाकू जो वास्तव में डाकू था ही नहीं, पिछली बार के चुनाव में लगातार तीसरी बार पार्टी की टिकिट पर जीता है। एस. पी. ने पक्षपात करके उसे डाकू बनाया। उसके सिर पर दो लाख का बिल्कुल झूठा इनाम रखवाया।" वे दहाड़े- "वो भोला-भाला डाकू चुनाव में टिकिट पा जाता है और मूला जी जैसे ख़तरनाक़ डाकू समाज सेवा से वंचित रह जाते हैं...? क्या यही लोकतंत्र है ?"
यह कहकर उन्होंने सिर झुका लिया। यह मुद्रा तालियों की अपेक्षा में बनाई गयी थी लेकिन तालियों की बजाय सन्नाटा भांपकर वो फ़ौरन गला साफ़ करके बोले-
        "मैं किसी का भी नाम नहीं लेना चाहता क्योंकि आप स्वयं ही ऐसे साधारण डाकुओं के नामों से परिचित हैं। इस तरह अचानक इनाम बढ़ा कर किसी को भी रातों-रात डाकू बनाया जा सकता है... इससे तो हर ऐरा-ग़ैरा डाकू टिकिट का दावेदार बन जाएगा। वो दिन दूर नहीं जब लोग पुलिस को रिश्वत देकर बिना डक़ैती डाले ही अपना नाम डक़ैतियों में लिखवा लेंगे और डक़ैती-संस्कृति का सत्यानाश हो जाएगा।"
        "हमारे देश के डक़ैतों में अब जातीय भावना उत्पन्न होने लगी है। जो धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही है। डक़ैतियाँ अब जाति के आधार पर डाली जा रही हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी जाति के डाकू को बढ़ावा देने में लगा है। पार्टियों में भी जाति के आधार पर डाकुओं को वरीयता दी जाती है। अभी पिछले दिनों एक सज्जन के यहाँ एक 'शानदार डक़ैती' पड़ी। वो जानते थे... कि डक़ैती किसने डाली है... लेकिन उन्होंने डक़ैती में नाम लिखवाना अपनी ही जाति के एक ऐसे डाकू का... जो उस समय इलाक़े में था ही नहीं... इस जातिवादी डाकू-तन्त्र को रोकना होगा... अन्यथा इसके परिणाम बहुत बुरे होंगे। इससे योग्य डाकू पिछड़ जायेंगे।"
        "मैंने अनेक बार देखा है कि टिकिट प्राप्त करने की लालसा में बहुत से डाकुओं ने डक़ैती डालना कम करके दूसरे तरीक़ों से जल्दी प्रगति करनी चाही है। जैसे कुछ डक़ैतों ने शराब के ठेके लिए, कुछ ने जुए-सट्टे का कारोबार खोल लिया और कुछ ने अपहरण का धन्धा अपना लिया। ये तो ठीक है कि इस बदलाव से टिकिट पाने में आसानी हो जाती है, लेकिन डक़ैती की परम्परा को बेहद नुक़सान होता है।
        वे क्रोधित होकर दहाड़े, "क्या सिर्फ़ टिकिट पाने के लिए ही हम भू-माफ़िया बन जाएँ, शराब के ठेके लें, अपहरण करवाएँ और जुए-सट्टे का कारोबार करें... क्या सिर्फ़ डक़ैती डालने से ही टिकिट के लिए हमारी योग्यता सिद्ध नहीं हो जाती?" 
        तभी एक नौजवान डाकू बीच में बोला, "आजकल तो भू-माफियाओं का ज़माना है। पूछता कौन है डाकुओं को...डाकुओं से ज़्यादा इज़्ज़त तो राजनीति में अब दलालों को मिलती है !... अब गया ज़माना डाकुओं का !..."
        "भू-माफ़िया ! क्या है भू-माफ़िया हमारे सामने ?... कुछ भी नहीं... ज़्यादा से ज़्यादा चार-छ: मर्डर... बस !... और उसके बाद राजनीति में ट्रांसफ़र... उसके बाद क्या ? बताइए ?... राजनीति में स्थापित होने के बाद तो हमारी ही ज़रूरत पड़ती है 
ना ? अरे ! ख़ुद कहाँ करते हैं ये क़त्ल ? ये तो हमसे करवाते हैं ना ? इसमें सारी ग़लती किसकी है... आपकी। आपने ही यह छूट दी है। मैं पूछता हूँ कि जान जाने का ख़तरा सबसे ज़्यादा किसमें है... सिर्फ़ डक़ैती में! इसलिए सबसे ज़्यादा बहादुरी का काम डाकू बनना ही है, बाक़ी सारी चीज़ें कम बहादुरी की हैं, फिर भी डक़ैतों की मान्यता कम होती जा रही है। मान्यता ही कम नहीं हो रही है, बल्कि उनका मूल्यांकन भी ग़लत तरीक़े से होता है। इसका कारण है एकता की कमी। मेरे प्यारे डाकुओं एक हो जाओ और फिर से छा जाओ राजनीति पर..."
वक्तव्य ख़त्म करने के इशारे को समझ कर भी अनजान बनकर वे घड़ी देखकर बोले-
        "काफ़ी समय हो गया... मुझे एक डाकू-शाला के उद्घाटन में भी जाना है इसलिए मैं यह कह कर अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ कि हम सब एक मिलकर रहें तो हर एक पार्टी हमारे महत्व को और ज़्यादा समझेंगी और फिर से मूला जी का दर्द भरा इतिहास नहीं दोहराया जाएगा। मेरे साथ नारा लगाइए...डाकू नेता भाई-भाई, और क़ौम कहाँ से आई"
सभी मिल कर डाकू-गान गाते हैं

जितने डाकू उतने पद
गिन ले जनता ध्यान से
हारेगी वो हर बाज़ी
सब डाकू हों मैदान में
आओ
आ जाऽऽऽओ
हर पद पे
छा जाऽऽऽ ओ
जी जान से
हेऽऽऽ
जी जान से    


वक्त का ज्वालामुखी और बर्फ जैसी औरतें
गीताश्री
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“ सेक्स वर्कर दूसरी औरतो से अलग होती है। इसके चार कारण हैं...हम अपनी मर्जी की मालिक होती हैं। हमें खाना बनाकर पति का इंतजार नहीं करना पड़ता। हमें उसके मैले कपड़े नहीं धोने पड़ते। हमें अपने बच्चों को अपने हिसाब से पालने के लिए आदमी की इजाजत नहीं लेनी पड़ती। हमें बच्चे पालने के लिए आदमी की जायदाद पर दावा नहीं करना पड़ता। ”
......नलिनी जमीला (एक सेक्सवर्कर की आत्मकथा में )
साथ रहने वाला एक आदमी पति बन जाता था और दूसरा भाई।
ये वो रिश्ते थे, जो बाजार बनाता था और बाजार ही देता था रिश्तों को नाम।
रिश्तों को नाम देने के बावजूद ऐसे रिश्तों को समझना मुश्किल है क्योंकि अबूझ रिश्तों की ये एक ऐसी कहानी है, जो किसी औरत के जिस्म से शुरु होकर औरत के अरमानों पर आकर खत्म हो जाती है।
लेकिन किसी के अरमान मिटे या सपने लुटे, इसकी परवाह बाजार कब करता है? केरल में भी हमने अरमानों की ऐसी अनगिनत चिताएं देखीं, जिसे किसी की बेचारगी और लाचारी हवा दे रही थी ।
केरल में सेक्स वर्करो की दुनिया के अनचीन्हे दर्द से साझा करते हुए मैंने देखा कि जो आदमी खुद को पति बता रहा है वो पति नहीं दलाल है और जो खुद को भाई बता रहा है वो ग्राहक ढूंढलानेवाला बिचौलिया. । और दोनों जिस्म के सौदे के बाद मिले पैसों से करते थे ऐश। लेकिन ये सब एक बंद दुनिया का चेहरा था, जिससे खुली दुनिया के लोग कोई मतलब नहीं रखना चाहते । तभी तो हमने पाया कि सेक्सवर्कर समाज से वैसे ही नफरत करती है जैसे समाज सेक्स वर्कर से।
कोई पति बनकर दलाली करेगा और कोई भाई बनकर ग्राहक लाएगा, शायद सामजिक ताने-बाने पर रिसर्च करनेवाले रिश्तों की इस नई परिभाषा को कुबुल न कर पाए, लेकिन सच था।
केरल के कोझीकोड में इन्हें रोपर्स के नाम से जाना जाता है। रोपर्स, रोप(रस्सी) शब्द से बना है। यानी दो किनारों को जोड़ने वाला, रस्सी की तरह जोड़ने वाला रोपड़,ये खुलासा केरल की मशहूर सेक्स वर्कर नलिनी जमाली ने भी अपनी आत्मकथा में किया है। उनकी आत्मकथा खूब बिकी है और हिंदी में भी अनुवाद होकर आई है। इसे पढ़ने के बाद केरल की सेक्सवर्कर के बारे में और करीब से जानने-समझने का मन हुआ।
मैं केरल की यात्रा पर गई थी तंबाकू पर शोध करने, लेकिन वहां मेरे एक एकिटविस्ट मित्र साजू से मैंने अपनी इच्छा जताई।
शाम तक उनके आफिस में दो महिलाएं हाजिर थीं। रमणी और सरोजनी। कोट्टायम के उनके दफ्तर में बैठी, थोड़ी सकुचाई, झिझकती हुई दो सांवली-काली रंगत वाली यौन कर्मियों और मेरे बीच भाषा का संकट था। वे ना तो अंग्रेजी बोल सकती थीं, ना हिंदी समझती थी। ना मैं उनकी भाषा। मगर वे इस बातके लिए तैयार होकर आई थी कि एक पत्रकार को इंटरव्यू देना है। साजू खुद इंटरप्रेटर बन गया।
स्त्री का दर्द पहली बार पुरुष के मुख से अनुवाद होकर स्त्री तक आ रहा था। पता नहीं पुरुष ने उसमें क्या जोड़ा, क्या घटाया...मगर उन दोनों की दैहिक भाषा ने मुझे समझा दिया, सब कुछ। रमणी थोड़ी कम उम्र की थी। वह खुल रही थी, साहसपूर्वक, वैसे ही जैसे उसने यौनकर्म की दहलीज पर पैर रखा था।
बोलते हुए वह उसके भीतर की खड़खड़ साजू ने नहीं, मैंने सुनी। कुछ था जो खुलता और बंद होता था। खौफ के साथ अपने बाहर फैलने की ललक को वह रोक नहीं पा रही थी। रमणी को दिल्ली देखना है। उसने देखा नहीं, सुना भर है। बातचीत के दौरान वह लगभग गिड़गिड़ाती है-“ क्या आप मेरे लिए टिकट भेजोगे। अपने पास रखोगे। लालकिला, कुतुब मीनार देखना है। सुना है...बहुत सुंदर और बड़ा शहर है...।” मैं भी वादा कर देती हूं पर अभी तक पूरा नहीं कर पाई हूं। शायद कभी कर पाऊं...उनसे संपर्क का जरिया भी तो नहीं कोई. हम कौन सी भाषा में बात करेंगे, फोन पर? वो बोल रही थीं और मुझे मुझे निदा फाजली की पंक्तियां याद आ रही थीं-
“ इनके अन्दर पक रहा है वक़्त का ज्वालामुखीकिन पहाड़ों को ढके हैं बर्फ़ जैसी औरतें । ”
रमणी, बोलती कम है,हंसती ज्यादा है। हंसी हंसी में कहती है, मैं पहले एक दिन में पांच छह ग्राहक निपटा देती थी। अब थकान होने लगी है। अब संख्या कोई मायने नहीं रखती...दो तीन निपटा ले,यही बहुत है। वह थोड़ी गंभीर होती है---ग्राहको की संख्या मायने नहीं रखती, उनकी संतुष्टि मायने रखती है। धंधे में उतरने का कोई अफसोस? रमणी ईमानदारी से स्वीकारती है, अफसोस तो है, मगर जिंदगी चुनौती की तरह है, उसका सामना कर रहे हैं। अब भाग नहीं सकते। देर हो चुकी। इसके आगे का रास्ता बंद है। क्या करें?रमणी का यह वक्तव्य किसी अनुपस्थित को संबोधित था। साजू मुझे बता रहे थे और वह शून्य में देख रही थी।
बात-चीत से पता चला कि रमणी कोट्टायम शहर के एक संभ्रांत मुहल्ले में रहती है। वहां धंधा करने मे समस्या ही समस्या। उसने एक रास्ता निकाल लिया। जंगल ही उसका रेडलाइट एरिया बन गया है। वह ग्राहकों को पास के जंगल में ले जाती है। घास के बिछौने होते हैं। मोबाइल हैं, ग्राहक फोन करते हैं फिर जंगल में जगह तय होती है। कुछ ग्राहक जंगल नहीं जाना चाहते, तब सरोजनी की बन आती है। वह अपने ग्राहक उसकी तरफ भेज देती है। सरोजनी का घर भी तंग गलियो में हैं मगर वह घर से धंधा करती है। थोड़ी उम्र ज्यादा है इसलिए लोग शक कम करते हैं। साथ में एक पतिनुमा जीव रहता है।
पति का जिक्र आया तो नलिनी याद आ गई। नलिनी ने एसे पतियो के बारे में साफ लिखा है कि मकान वगैरह किराए पर लेना हो तो ये लोग बड़े काम आते हैं। लेकिन कुल मिलाकर ये किसी सिरदर्द से कम नहीं हैं। सरोजनी का पति भी एसा ही है। सरोजनी ही उसका खर्च चलाती है। बदले में वह उसे सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का नाटक करता है। घर पर अक्सर ग्रहको का आना जाना देख कर कई बार पड़ोसी पूछ लेते हैं, सरोजनी का जवाब होता है-“ये लोग प्रोपर्टी डीलर हैं, मेरा प्लाट खरीदना चाहते हैं। देखने आते रहते हैं।“
सरोजनी बताती है-“ कई बार उसके पास युवा लड़को का ग्रुप आता है। वह पांच मिनट में उन्हें मुक्ति देकर भेज देती है। भीतर से उसे ग्लानी होती है कभी कभी, उनकी और अपनी उम्र देखकर। लेकिन ग्राहक तो ग्राहक है, चाहे किसी भी वक्त या किसी भी उम्र का हो..। “ लेकिन पैसे की जरूरत ऐसी सोच पर लगाम लगा देती है ।
रमणी भी कहती है, पैसा बड़ी चीज है। उन्हें कैसे लौटा दें। मैंने कहा, छोड़ क्यो नहीं देती ये धंधा...दोनों एक साथ बोल पड़ी, इतना पैसा किस काम में मिलेगा। अब हमें कौन काम देगा। हम किसी काम के लायक बचे ही नहीं...अब तो आदत सी पड़ गई है...। अब छोड़ भी दे तो लोग हमें चैन से नहीं जीने देंगे।
रमणी अब बातचीत में सहज हो चुकी है और उसे ये स्वीकारने में झिझक नहीं होती कि इस पेशे में भी वो कभी-कभार आनंद ढूंढ लेती है।
कैसे,मैं चकित होती हूं... ।
वह स्वीकार करती है कि एक स्थाई ग्राहक से वह भी आनंद लेती है। यहां पैसा गौण है। उससे मोल-भाव नहीं करती। रमणी के पास किस्से बहुत है...। एक बार पैसे वाला अधेड़ ग्राहक आया, कहा—“मैं अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता हूं, मगर मैं जिस उत्तेजना की तलाश में हूं, वहां नहीं है। चलो, सेक्स में ‘फन’ करते हैं...।“ लेकिन रमणी अच्छी तरह जानती है कि दूसरों को भले ही उसके जिस्म में ‘फन’ की तलाश हो, लेकिन वो खुद अपने पति के मर जाने और कंगाल हो जाने के बाद यातना के जिस रास्ते पर चल रही है,वो रास्ता
कहां खत्म होगा। न घर बचा न कोई जमीन का टुकड़ा, जिसे वह अपना कह सके। रिश्तेदारो ने शरण देने से मना कर दिया। कम पढी लिखी थी, सो नौकरी ना मिली। एक शाम उसने खुद को पीकअप प्वाइंट पर पाया। जिस्म की कमाई से पहले बेटियो को पाला, अब खुद को पाल रही है। इसी नरक में अपने लिए सुख का एकाध कतरा भी तलाश लेती है। यह सब बताते हुए उसकी आंखों में कहीं भी संकोच या शरम नहीं..है तो बस थोड़ी शिकायत, थोड़ा धिक्कार।
दोनों से बातचीत करते हुए ही हमने जाना कि केरल में कहीं भी कोई रेडलाइट एरिया नहीं है। इसीलिए वहां सेक्सवर्कर पूरे समाज में घुली मिली है। उन्हें अलग से चिनिहत नहीं किया जा सकता। इसकी दिक्कते भी हैं। बताते हैं कि केरल में 10,000 स्ट्रीट बेस्ड सेक्सवर्कर हैं। इनमें हिजड़े भी शामिल हैं। इसके बावजूद सोनागाछी की एकता उनके लिए रोल माडल की तरह है। वहां एक अनौपचारिक रुप से संगठन बना है, सेक्सवर्कर फोरम केरला(एस डब्लू एफ के) जो इनके हितो का ध्यान रखने लगा है। गाहे-बगाहे आंदोलनों में शिरकत भी करने लगा है।मगर एसडब्लूएफके सोनागाछी के दुर्वार महिला समन्य समिति की तरह ताकतवर नहीं है। रमणी,सरोजनी उसकी सदस्य बन चुकी हैं।
सरोजनी की दो बेटियां हैं, चेन्नई में रहती हैं। वे हिंदी नहीं जानती, किताब नहीं पढ सकती, तो क्या हुआ, फोटो तो पहचान सकती है। रमणी और सरोजनी ने फोटो तो खिचवाए लेकिन न छपवाने का आग्रह किया। बेटियां हालांकि अब जान गई हैं कि मां क्या काम करती हैं। पहले तो बहुत विरोध हुआ अब नियति को कुबुल कर चुकी है । साथ कुछ वक्त बिताने के बाद जब वो जाने की अनुमति मांग रहीं थीं
तो वहां मौजूद आंखें उन्हें संशय से घूर रही थीं. तभी मुझे निशांत की कविता(वर्त्तमान संदर्भ में छपी हुई) की पंक्तियां याद आने लगी....
इन औरतो को,
गुजरना पड़ता है एक लंबी सामाजिक प्रक्रिया से
तय करना पड़ती है एक लंबी दूरी
झेलनी पड़ती हैं गर्म सलाखों की पैनी निगाहें
फाड़ने पड़ते हैं सपनो को
रद्दी कागजो की तरह
चलाना पड़ता है अपने को खोटे सिक्कों की तरह
एक दूकान से दूसरे दूकान तक.
वो चली गईं, लेकिन दोनों मेरे सामने एसे खुली जैसे अंधड़ में जंग लगे दरवाजे-खिड़कियो की सांकलें भरभरा कर खुल जाती है। उन्होंने अपने दर्द को कही से भी अतिरंजित नही किया...बल्कि भोगे हुए को ज्यों का त्यों रख दिया। शायद उन्हें लग रहा था कि इस जलालत से भरी दुनिया में कोई है, जो उसकी व्यथा सहानूभूति पूर्वक सुन रहा है। उसके भीतर मुझे लेकर प्रश्नाकुलता थी। भाषाई संकट के कारण पूछ नहीं पा रही थी,शायद साजू की उपस्थिति भी संकोच पैदा कर रही थी। फिर भी साजू के बावजूद उन्हें जो कुछ कहना था साफ-साफ कह गई। सुना गई अपनी कहानी। उस कहानी में गुड गर्ल बनने का सिंड्रोम नहीं था । ये रास्ता उन्होंने खुद चुना था। शिकायतें कम थीं और लहजे में.मुक्ति की चाह भी खत्म थी। उनके जाने के बाद भी रमणी की खिलखिलाहट मेरे सामने गूंज रही थी और दर्द की दरिया में भींगने के बाद पनपे अवसाद को कम कर रही थी । सरोजनी ने भी अपनी चालबाजियो को चटखारे लेकर सुनाया था, और उसे सुनाने में मजा भी आ रहा था, लेकिन क्या वो सचमुच चालबाज है ।

उनके जाने के बाद मैं सोच रही थी और बगल में बैठा साजू शरमा रहा था ।

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