प्रकाशन निर्माण की वह प्रक्रिया है जिसके द्बारा साहित्य या सूचना को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। राजकमल प्रकाशन वाणी प्रकाशन हिन्दी पुस्तकों को प्रकाशित करने वाला सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान रहा है। 
साहित्य की अनेकानेक विधाओं को लोगों के समक्ष लाने के लिए प्रकाशकों की जिम्मेदारी बहुत कठिन और उत्तरदायित्वों से भरी होती है। 
सबकी पसंद अलग अलग होती है, कोई लघुकथाओं में डूबता है, कोई कविताओं में, कोई उपन्यास में, कोई क्षणिकाओं में, कोई संस्मरण में, कोई हँसिकाओं में - ज्ञान भरी किताबों का भी अपना अलग महत्व होता है।  जनसँख्या असीम, पसंद असीम - मुख्य बात है आप कहाँ तक पहुँचते हैं।  आलोचनाओं से परे अश्लील किताबों की भी अपनी एक पहुँच है, कहने का तात्पर्य लिखनेवाले अलग अलग विचारों के हैं तो पढ़नेवाले भी।  मुख्य बात है, हम उन तक पहुँच पाते हैं या नहीं।  

वर्तमान में प्रकाशक बनना सबसे आसान क्षेत्र है, एवं उत्तरदायित्वहीन !!! उद्देश्य मात्र प्रिंट करवाना - पैसे रचनाकार के, प्रूफ रीडिंग भी 95 प्रतिशत रचनाकार का, लोगों तक पहुँचाने का कार्य भी रचनाकार का  .... दुःख होता है उनकी जुबान से यह सुनकर कि इस विधा में लोग पढ़ना नहीं पसंद करते  … 
वैसे कुछ लिखनेवालों की कलम से मैंने हिंदी की ही भर्तस्ना करते पढ़ा है, पर पत्रिका हो या किताब, यदि लोग नहीं पढ़ना चाहते तो उनको छापने से इंकार कर देना अधिक उचित है।  
यूँ भी मार्केटिंग एक कला है, जो सिर्फ बातों से नहीं होता। हाथ पर हाथ धरे रहने से तो खाना नहीं बनता, स्वाद की बात तो बहुत दूर की है !
पर इसमें हिन्दयुग्म ने बहुत हद तक अपनी पहुँच बनाई,  … और इसीलिए आज उसकी पहचान है।  मेरी पहली पुस्तक हिन्दयुग्म से ही है।  उसकी आरम्भिक तत्परता की मैं प्रशंसक भी हूँ।  कई लोगों के आगे मैंने यह नाम दिया। थोड़ी बहुत गलती सबों से होती है, और उसे मैंने नज़रअंदाज भी किया है। परन्तु सबकुछ सिर्फ बाजार की रणनीति बनते देख दुःख होता है, साहित्य फूट फूटकर रोता है। हिन्दयुग्म से गुज़ारिश है कि अपनी पहचान शेष न होने दे, जो पहुँच उन्होंने बनाई है - उसे भरपूर साँसें दे। 
ज्योतिपर्व प्रकाशन को भी मैंने अपना साथ दिया  … लेकिन तत्परता की कमी ने हतोत्साहित किया। पर समय माँजता है, सोचकर, उन्हें अपनी शुभकामनायें देती हूँ। 
तदनन्तर, मैंने ब्लूबक प्रकाशन से बात किया, मेरा एक संग्रह भी निकला है - "मैं से परे मैं के साथ" शुरुआत अच्छी है।  ईमानदारी है - लेकिन अभी तो पार्टी शुरू हुई है। 
खैर, मेरे अंदर भी यह ख्याल आया कि मैं प्रकाशन का कार्य शुरू करूँ,खोई गरिमा को एक रूप दूँ  लेकिन यह सिर्फ पैसे और प्रकाशन की बात ही नहीं, और अकेले इसे चला देना रचनाकारों के साथ धोखा करना है ! 
कई लोगों से मैंने बातचीत की, बातों के दरम्यान मुझे हमेशा रामधारी सिंह की पंक्तियाँ याद आईं  -

"यौवन चलता सदा गर्व से सिर ताने शर खींचे  …"

लेकिन वहीँ यह विचार भी आया -

"यौवन के उच्छल प्रवाह को देख मौन मन मारे 
सहमी हुई बुद्धि रहती है निश्छल नदी किनारे "  .... 

एक रचनाकार की हैसियत से मेरी तलाश जारी है, प्रकाशक वह है जो कमर कसके निकले।  वचनबद्धता ज़रूरी है।  रुकावट कभी कभी आती है, हर बार नहीं।  चाह लें तो आज" भी आता है, और कल" भी  … पर न चाहो तो व्यस्त सभी हैं।  सूरज भी व्यस्त हो जाये तो फिर ?
आँखों के आगे एक नया प्रकाशन "शब्दारम्भ" गुजरा है, संक्षिप्त बातचीत, सम्मानित व्यवहार - बहुत कुछ सोचने को दे गया है और लगा है बच्चन की पंक्तियाँ सार्थक होंगी -

डुबकियां सिन्धुमें गोताखोर लगता है,
जा जा कर खालीहाथ लौटकर आता है,
मिलते न सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दूना विश्वास इसी हैरानी में,
मुट्ठी उसकी खाली हरबार नहीं होती,
कोशिश करनें वालों की कभी हार नही होती।
असफलता एक चुनौती है स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई देखो और सुधार करो,
जब तक न सफल हो नींद चैन की त्यागो तुम,
संघर्षोंका मैदान छोड़ मत भागो तुम,
कुछ किए बिना ही जयजयकार नही होती,
कोशिश करनें वालों की कभी हार नही होती।
… ………………………। प्रकाशक धर्म है, साहित्य से प्रेम, रचनाओं का सूक्ष्मता से अध्ययन, और स्पष्टवादिता, समय का मूल्य  … 
रश्मि प्रभा 


और जीत ऐसे ही मिलती है।  जानते हैं अन्य विचार -

परिचर्चा:
किसी भी प्रकाशन, प्रकाशक के लिए क्या ज़रूरी है ?


आज के दौर में जब चारों तरफ लेखकों और प्रकाशनों की बाढ़ सी आ रही हो उसमे ये प्रश्न उठाना भी लाजिमी है कि किसी भी प्रकाशन और प्रकाशक के लिए क्या जरूरी है अर्थात कौन सा पहलू ऐसा है जो सबसे जरूरी है तो इस सन्दर्भ में केवल एक मोड़ पर रुके रहना संभव ही नहीं है . आज गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में सबसे पहले तो अपनी एक पहचान बनाना जरूरी है और पहचान बनाने के लिए कुछ नियम कायदे बनाने जरूरी हैं जिनका सख्ती से पालन किया जाए .

एक प्रकाशक के लिए जरूरी है सबसे पहले वो उस लेखक को ढूंढें या उस लेखन को पकडे जिसमे उसे लगे हाँ , इसमें है समाज को बदलने की कूवत और साथ ही बन सकेगा हर आँख का तारा अर्थात जो सहज संप्रेषणीय होने के साथ सर्वग्राह्य हो न कि चलता नाम देखकर उसे ही छापे जाए बल्कि थोडा जोखिम उठाने की भी हिम्मत रख सके . आज बड़े बड़े प्रकाशन ऐसे ही बड़े नहीं बने उन्होंने भी अपने वक्त पर जोखिम उठाये नयों में से ऐसे मोती ढूंढें जो साहित्य का आकाश पर अपना परचम लहरा सकें और वो उसमे सफल भी हुए तो क्यों नहीं आज का प्रकाशक ये जोखिम उठाये और अपनी राह खुद बुने .

दूसरी जरूरी बात है सिर्फ पैसे के पीछे न भागे जैसा कि आजकल हो रहा है पैसे लो और जिस किसी को भी छाप दो फिर चाहे लेखक कहीं न पहुँच अपनी जेब तो गरम हो ही गयी न तो उससे प्रकाशक की साख पर ही बट्टा लगेगा तो जरूरी है पहले पाण्डुलिपि मंगवाई जाए , कुछ सिद्धहस्तों से पढवाई जाए और फिर लगे ये छापने योग्य है तो जरूर छापी जाए और लेखक से कीमत न लेकर उसके लेखन का प्रचार और प्रसार प्रकाशक करे ताकि वो जन जन तक पहुँच सके . आज तो वैसे भी इन्टरनेट के माध्यम से कहीं भी किताब पहुंचाई जा सकती है तो जरूरत है तो सिर्फ प्रचार और प्रसार की फिर तो पाठक खुद ही मंगवाने का जुगाड़ कर लेगा मगर उसे पता तो चले कि आखिर उस किताब को वो क्यों पढ़े ? प्रचार प्रसार ऐसा हो जो पाठक के मन को झकझोरे और वो उसे पढने को लालायित हो उठे तो प्रकाशन को स्वयमेव फायदा होगा . जितनी प्रतियाँ बिकेंगी प्रकाशक को ही मुनाफा होगा .

एक जरूरी चीज और है लेखक और प्रकाशक में आईने की तरफ साफ़ रिश्ता हो जो कि आज कहीं नहीं दिखता बल्कि लेखक प्रकाशक पर और प्रकाशक लेखक पर दोषारोपण करते रहते हैं जो रिश्ते को कटु बनाते हैं क्योंकि पारदर्शिता नहीं होती तो लेखक को पता नहीं चलता कितनी प्रतियाँ बिक गयी हैं और उस हिसाब से कितनी रॉयल्टी बनी . रॉयल्टी मिलना तो आज दूर की ही बात हो चुकी है बल्कि प्रकाशक यही रोते हैं कि बिकी ही नहीं तो आखिर कहाँ गयीं ? जबकि सरकारी खजाने में भी किताबें पहुंचाई जाति हैं जो लेखक भी जानता है मगर उसके पास कोई सबूत नहीं होता तो कुछ साबित नहीं कर सकता ऐसे में दोनों के बीच गलतफहमियां पैदा हो जाती हैं जिनका सुखद भविष्य नहीं होता बल्कि जरूरी है एक ऐसा अग्रीमेंट जिसके तहत दोनों बंधे हों .

एक सच ये भी है कि कोई भी प्रकाशन बिना पैसों और धर्म हेतु नहीं चलाया जाता बल्कि प्रकाशक तभी काम करना चाहेगा जब उससे उसे कुछ लाभ हो तो इसके लिए जरूरी है आज के वक्त में तकनीक का सहारा लेना और उसके माध्यम से लेखकों और पाठकों से जुड़ना . पाठकों की समय समय पर राय लेना आखिर वो पढना क्या चाहते हैं अर्थात किस तरह का लेखन पाठक की पहली पसंद है ऐसी रायशुमारी समय समय पर की जाती रहे तो कोई ताकत नहीं जो प्रकाशक कभी घाटा उठाये बल्कि जब पाठक को उसके मतलब की सामग्री मिलेगी तो वो और कहीं नहीं भागेगा और लेखक भी ऐसे ही प्रकाशक की ओर आकर्षित होगा जो उसे पहचान दिलाये न कि उसका शोषण करे . इस तरह के प्रयोगों से दीर्घकाल में प्रकाशन को लाभ ही लाभ होगा मगर उसके लिए जरूरी है समझौता न करके सच्चाई और ईमानदारी से अपने प्रकाशन को आगे बढाए और अपनी एक मुकम्मल पहचान बनाए .

एक आखिरी बात और प्रकाशक को चाहिए प्रचार प्रसार के अलावा बड़े बड़े आलोचकों तक किताब पहुंचाए , उनकी समीक्षाएं करवाए फिर वो अच्छी हों या बुरी उससे प्रकाशक का कोई सरोकार नहीं होना चाहिए क्योंकि यही सही और मुकम्मल तस्वीर होगी आंकने की ताकि उसी हिसाब से आगे निर्णय वो ले सके . केवल साहित्यकारों की निगाह में स्थान पाने के लिए जो लेखन किया जाता है वो आम पाठक की समझ से परे होता है इसलिए जरूरी है आम पाठक की सोच को आधार बनाकर लेखक और उसके लेखन को तवज्जो दी जाए और सही व् उचित मूल्यांकन करवाया जाए तो निसंदेह लेखक के साथ प्रकाशक और प्रकाशन दोनों अपना मुकाम पा लेंगे क्योंकि वहां मूल्यों से समझौता नहीं होगा और जब ये बात बाज़ार में होगी तो हर लेखक जुड़ने में गौरव महसूस करेगा साथ ही चाहेगा कि वो ऐसा लिखे तो उसी प्रकाशन से छपे .

लेखक और प्रकाशक का मजबूत रिश्ता किसी भी प्रकाशन की सफलता का एक आधार स्तम्भ होता है जिसे हर प्रकाशक के लिए समझना जरूरी है .

वंदना गुप्ता
rosered8flower@facebook.com
rosered8flower@gmail.com
उपसंपादक - सृजक (पत्रिका)


मेरी नज़र में एक अच्छा प्रकाशक वह है जिसे किताबों से प्रेम हो, जो कल्पना शील हो, रचनात्मक हो और साथ ही एक परिभाषित ध्येय और एक व्यावसायिक दृष्टिकोण रखता हो.
जब कोई कथाकार या कवि अपनी रचनाएँ किसी प्रकाशक के पास लेकर जाता है या प्रकाशन हेतु भेजता तो यह प्रकाशक को तै करना होता है की यह सामग्री उसके अपने परिभाषित मापदंडों पर खरी उतरती है की नहीं. उसका उदेश्य है अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंचना, पर साथ ही गुणवत्ता से कोई समझौता न करना भी उसका ध्येय होना चाहिए. अक्सर पैसे कमाने की होड़ में साधारण प्रकाशक हर तरह का सस्ता लेखन भी छापने को तैयार हो जाते हैं.
एक अच्छा प्रकाशक रचनात्मकता की कद्र करता है साथ ही अपने व्यावसायिक हितों को भी अनदेखा नहीं करता. पाठकों की नब्ज़ पहचानने वाला प्रकाशक पूरी कोशिश करता है कि वह ऐसा साहित्य परोसे जो रुचिकर हो स्वीकार्य हो और मर्यादाओं के दायरे में हो.
हर अच्छे प्रकाशक की अपनी एक पहचान होती है जो उसे सबसे अलग करता है. कई किताबें केवल प्रकाशक या प्रकाशन के नाम से बिकतीं हैं. वे बाज़ार में अपना रुतबा, लेखन के चयन व उसकी प्रस्तुति से कायम करते हैं और फिर उस मुकाम को बनाये रखने की जद्दोजहद बरकरार रखते हैं. और सबसे ज़रूरी बात है की एक अच्छे प्रकाशक की अपने पाठकों के प्रति जवाबदेही होती है उन्हें तत्परता से अच्छा, स्वस्थ, ज्ञानवर्धक और रोचक साहित्य परोसने की.
अपनी कमियों अपनी खामियों को पहचान उन्हें स्वीकृत करके और उचित सुधार करके ही मनुष्य सफलता की और अग्रसर होता है एक अच्छे प्रकाशक को भी ऐसा ही होना चाहिए.
सरस दरवारी 
मेरे हिस्से की धूप


किसी भी प्रकाशन के लिए मेरी राय में निम्न बातें ज़रूरी है।


1 अच्छे और लोकप्रिय साहित्य की समझ।
2 अच्छा नेटवर्क और डिस्ट्रिब्यूशन। ( पुस्तक विक्रेताओं के लिए)
3 पाठकों तक पहुँच।
4 पुस्तक को विभिन्न माध्यमों द्वारा पाठकों तक पहुंचाने और विक्रय करने का सामर्थ्य।
5 स्थापित और नए दोनों लेखकों को प्राथमिकता।
6 बने बनाए ढर्रे और प्रतिमानों से हट कर साहित्य की नयी श्रेणियों और विधाओं को खोज-खंगाल कर पाठकों तक लाना।
7 उचित प्रचार-प्रसार। ( पाठकों के लिए )
8 नयी पीढ़ी में अपने साहित्य और अपनी भाषा के साहित्य को लोकप्रिय बनाने के प्रयास करना।
9 लेखकों को उचित सम्मान, पारदर्शिता एवं लेखक-गणों समय- समय पर संवाद।

10 किसी भी प्रकाशन के लिए अपने पूर्ववर्ती महान और गुमनाम लेखकों का साहित्य भी वर्तमान पीढ़ी तक लाना ज़रूरी है।
उदाहरण के लिए देवदास एक फ़िल्म के रूप में तीन बार बनी किन्तु उपन्यास खोजने पर बमुश्किल मिल पता है। या पाठकों को उसके प्रकाशक का नाम नहीं पता।
देवदास पुस्तक भी तो विभिन्न प्रकाशकों के प्रयासों से छप सकती है और पाठकों तक पहुंचायी जा सकती है।
11 साथ ही अच्छी छपाई, सुंदर कलेवर और तुलनात्मक रूप से वहन की जा सकने वाली दरें भी एक महती आवश्यकता है।

12 पाठकों के साथ संवाद , विभिन्न माध्यमों और योजनाओं के द्वारा अपने साहित्य को सर्व-सुलभ करवाना ।
13 साथ ही प्रचलित ट्रेंड की समझ होना एवं नया ट्रेंड को स्थापित करने का जोखिम एवं दूरदर्शिता का होना भी आवश्यक है।
14 एक अच्छे प्रकाशक के पास खुले दिमाग वाले एवं योग्य लोगों की एक समर्पित समिति सदैव रहनी चाहिए जो प्रकाशक का पथ-प्रदर्शन करती रहे जो कि रचना चयन में निर्भीक एवं निष्पक्ष रूप से अपनी राय दे सके।


हृषीकेश वैद्य
http://tumharadev.blogspot.in/

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