जो हम देखते हैं
जो हम सुनते हैं
वही सत्य हो
मन के कब्रिस्तान को खोला ही नहीं
सत्य की खुशबू
सत्य की दुर्गन्ध
बड़ी पैनी होती हैं
तो फिर जाती नहीं है .......
रश्मि प्रभा
मिलिए स्वप्न मञ्जूषा की कलम से लिपटे सत्य से -
बाप का जूता.....
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स्वप्न मञ्जूषा
शैल
उसकी उम्र मात्र १५ वर्ष की थी, अपने पिता की अर्थी को काँधा देते वक्त वो बिलख-बिलख कर रो पड़ा, लोग अभी तक कह रहे थे 'अरे बाप रे ! का कलेजा पाया है बच्चा, एको ठिप्पा लोर नहीं चुवाया है बच्चा, एकदम 'बज्जर करेजा ' है इसका, कोई और होता तो उतान हो गया होता, लेकिन वाह रे खेदना मान गए हैं तुमको' सब बहुत खुश थे कि लड़का दुःख झेल गया है, अब सयान हो गया है, करेजा होवे तो खेदना जैसा होवे, नइ तो ना होवे।
लेकिन उसका बिलखना देख सबको अपनी बात झूठ होती नज़र आ रही थी, और अब सब उसे समझाने में लगे थे 'अरे रे खेदना, काहे रो रहा है बेफजूल में, तुमको रोना सोभा नहीं देता रे बुड़बक, अरे रो-रो के मरल आत्मा को आउर काहे मार रहा है, सम्हारो अपना को, ई तो अभी सुरुआत है, अभिये से जी छोट करोगे तो आगे का होवेगा, हाड़-गोड़ सम्हार के रखो अभी तो का जाने केतना कुछ देखना बाकी है, मनुख जनम फोकट में नहीं न मिलता, दुःख-तपलिक झेलना पड़ता है '
मृत्युभोज के लिए खाने पर बैठी पंगत के आगे खेदना को खड़ा किया गया, चारों तरफ से सबकी निगाहें उसकी देह बींधती जा रही थीं , लग रहा था जैसे कोई मेमना फँस गया हो भेड़ियों के गिरोह में,
पंडित जी कह रहे थे.... 'अरे रे खेदना ! एक ठो खटिया, रजाई, गद्दा, चद्दर, धोती, साड़ी, जाकिट, ५ ठो काँसा-पीतर का बासन, चाउर-दाल, चीनी चायपत्ती, तुमरा बाप बीड़ी पीता था ऊ भी, छाता-जूता, कुछ दछिना और बाछी दान में नहीं देता तुम तो तुम्हारा बाप यहीं भटकते रह जाता...उसका मुक्ति ज़रूरी था ना...ई मिरतुभोज भी बहुते जरूरी है... पुरखा लोग को भी तारना होता है भाई ...चलो अच्छा हुआ सूद में पैसा उठा लिए हो....अब कल से महाजन के हियाँ काम पर लग जाओ....बेटा का ईहे तो फरज है, येही वास्ते न लोग-बाग़ बाल बच्चा करता है, अरे तुम्हरा बाप का तकदीर नीमन था जो एगो बेटा जना...नहीं तो मुक्ति कहाँ मिलना था उसको....हमलोग बहुते खुस हुए हैं तुमसे....अब एक काम करो, तुम एतना बड़ा तो अब होइए गए हो, अब तुम जरा अपना बाप का जूता पहिर लेवो तो ...!!
खेदना ने कातर नज़रों से पंडित जी को देखा ...लेकिन इनकार की कोई गुंजाइश नहीं थी...
पंडित जी हुलस कर बोले 'अरे पहिनो न...सुनाई नहीं पड़ रहा है का,... पहिरो...बुड़बक कहीं का !!!''
चमरौंध जूता में पाँव डाल कर खेदना फुसफुसाया 'ई तो बहुते ढीला है '
अरे तो का हुआ...हो जाएगा ठीक ...दो-चार साल में...हाँ और अब बोलो सबके सामने, हम अपना बाप का जूता पहिर लिए हैं....बोलो.....अरे बोलो न भकचोंधर कहीं के ...बोल !!
खेदना आंसू भरी नज़रों से सबको देखता रहा...शब्द स्फुटित नहीं हुए....
पंगत में बैठे सभी लोगों ने समवेत स्वर में कहा .... 'अरे खेदना एतना का फुटानी मार रहा है ...बोलता काहे नहीं है, बोलो ...अब हम अपना बाप का जूता पहिर लिए हैं '
इतनी सारी आवाजें शीशे की तरह कानों में जमने लगीं थी खेदना के..कहीं कान ही न बंद हो जाए...घबराया हुआ खेदना जोर-जोर से बोलने लगा 'हम अपना बाप का जूता पहिर लिए हैं ....हम अपना बाप का जूता पहिर लिए हैं.....हम अपना बाप का जूता पहिर लिए हैं '
न जाने कितनी बार वो बोलता ही चला गया ...
अब सभी लोग आश्वस्त होकर पत्तलों में पिल पड़े ..
पंडित जी ख़ुश थे ये सोचकर कि चलो, कल से खेदना महाजन के घर में सुबह से शाम ड्यूटी बजाएगा...नहीं तो महाजन को का जवाब देते भला...यही बात पर तो सूद पर नोट दिलवाए थे खेदना को, उसकी बची-खुची ज़मीन पर, अब खेदना तब तक महाजन के घर काम करेगा, जब तक कि इसका औलाद इसका जूता पहनने लायक न हो जाए..
चलो एक मुर्दा का तो उद्धार हो गया न...बाकी लोग कम से कम जिंदा तो हैं....!!
और मैं सोच रही हूँ क्या खेदना अब सचमुच जिंदा है ???
परिकल्पना और आपका हृदय से धन्यवाद दी, आपने मेरी इस रचना को इस योग्य समझा
जवाब देंहटाएंबहुत सारे मुर्दों को इसी तरह जीना पड़ता है । सुंदर कहानी ।
जवाब देंहटाएंये कहानी नही.आज का यथार्थ हैं,कितने ही मुर्दे इस तरह जीरहे हैं
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