हवा ने अल्हड़ता का जामा पहना था दर्द की दूरी बनाकर !



रश्मि प्रभा 


अपर्णा अनेकवर्णा 

अनेकवर्णा

एक मौत के बाद 
....................
वो सुन रही है
तेज़ संगीत
कान पर हेडफ़ोन्स चढ़ाये
जानती हूँ वो हेडफ़ोन्स
उसने अपने दुःख पर चढ़ा रखें हैं
'जस्ट लेट मी बी.. प्लीज़!'..
बड़ी विनम्रता से
सबको दूर किया है उसने ..
दुःख आपको खुद में समेट देता है..
सबसे छोटे वाले पर्सनल दायरे में
क़ैद हो जाना चाहता है मन
उस मन को थामे हुए तन..
वो संगीत सुनना है आज
जो लगभग रोज़ ही चिढ़ा देता है
पर आज आश्वस्त करेगा
कुछ तो बाँट रही है
शायद अभी देर है
अभी थोडा सा और रुकना है
सांत्वना दे पाना भी एक ज़रुरत है
ना पूरी हो तो
ख़ुद को ही
सांत्वना की ज़रुरत
पड़ ही जाती है
.......................................................
विंसेंट वैन गॉग की छतरी
............................................
एक तारों भरी रात बेचैन बिता
सुबह जब जागा था वो..
कटा कान अपनी अनुपस्थिति 
दर्द भरी धड़कनो से जता रहा था
सामने गेहूं के उदास कट चुके खेत थे..
काले कव्वों का झुण्ड बिखरे दाने
या जाने मूस तलाश रहा था..
कम से कम भोजन तो था उनके पास
बगल की झोपडी में कृषक परिवार
चंद उबले आलू बड़ी नफासत से
छूरी-कांटो से खाने का उपक्रम रहा था..
नज़रें मिलने से इंकार कर चुकी थीं.
बाहर उस प्रौढ़ औरत के भद्दे बूट्स धूप खा रहे थे..
उसने घबरा कर लियो को एक ख़त लिखना चाहा
न हो सका.. उसे कितना परेशां करता और.. रुक गया
नज़र कोने में पड़ी उस छतरी पर पड़ी...
जिसे भूल गया था कोई.. वापिस नहीं आया कभी लेने..
उसका मटमैला भूरा-पीला रंग पुकार रहा था
ये पीला तो अक्सर बातें करता है उससे...
जब वो उठा तो तय कर चुका था..
विंसेंट को उस देस पहुंचना था..
जहाँ आकाश में रातों को खिलते थे तारे..
दिन में चेरी.. बादाम.. आड़ू के दरख्तों पर बहार होती थी..
जहाँ सूरज पिघल आता था गेहूं के खेतों में..
गहरा हरा जीता था जैतून.. देवदार.. सरु में....
उस प्रौढ़ा के हाथ सख्त और आँखें नरम थीं..
जब वो निकला था..
उस छतरी को ले कर..
वो फिर से नयी-नयी थी..
ऊपर से गाढ़ी रौशनाई.. रात सी..
भीतर उसके सूरजमुखी के..
कितने ही सूरज खिले हुए थे...
अब विंसेंट आज़ाद था..
कटा कान भी वापिस उग आया था.... 

Ruchi Bhalla (सोशल मिडिया से )

नकचढ़ी दुनिया में .................
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घर के सामने एक घर है
लोग रहते हैं पर दिखते नहीं
दरवाजा खुलता तो है इस तरफ़
बस एक अवहेलना की तरह....
और वहाँ की खिड़की से भी कोई
यहाँ झाँकता नहीं
फ़िर भी एक रिश्ता कायम है
हमारे बीच पड़ोस का
मैं सोचती हूँ कि मिटा दूँ ये दूरी
खत्म कर दूँ ये परायेपन का फ़ासला
सोचते -सोचते कदम बढ़ जाते हैं
उस दरवाज़े की तरफ़
पर हाथ इंकार कर देता है
डोर - बेल से हाथ मिलाने में


जीवन के पन्ने

सड़क किनारे..... बरगद के नीचे
वो मिट्टी की चादर पर जा बैठता है
और पत्थर की स्लेट पर लिखता जाता है
पूरी तल्लीनता से हर रोज़ एक नई इबारत
वो लिखता जा रहा है........
हथौड़ी और छैनी से
दर्ज़ करता जा रहा है सिलबट्टे पर
ढेर कहानियां
और बेच रहा है सौ-सौ रुपए में
अपने जीवन के पन्ने


बड़े छोटे का अंतर 

चमचमाती कार में
बैठा हुया
वो गोरा चिट्टा बच्चा
जब भी खेलने जाता है
बीच रास्ते में
झुग्गी के सामने
उसे दिखते हैं
अपनी मां के संग खेलते
फटेहाल कई बदरंग बच्चे
गोरा चिट्टा बच्चा
मुड़ मुड़ कर उनके
खेल देखता है
कार
आया को साथ लिए
पार्क की ओर मुड़ जाती है ।

1 comments:

  1. अपर्णा की कवितायेँ अपने आप में परिपूर्ण और बेहतरीन होती हैं .........बधाई !

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