मंत्र मन के खामोश स्वर से निःसृत होते हैं 
और वही निभते और निभाये जाते हैं !
हम सब जानते हैं
जीवन के प्रत्येक पृष्ठ पर
कथ्य और कृत्य में फर्क होता है
और इसे जानना समझना
सहज और सरल नहीं ...
सम्भव भी नहीं !!!  ............................... 


तुम्हारे विचारों से गर्भित
मैं चिरगर्भिणी, घूमती हूँ
घूमती ही रहूँगी
My Photoगर्भ लिये, सबके मन में
जगाऊँगी कौतुहल थम-थमकर
कि दुनिया की दृष्टि
ठिठक जाती है
हर कुंवारी गर्भवती पर
उसके गर्भ का संधान करने
और मैं अबोल अभिशप्ता
कह नहीं पाती जग से
है कौन इसका वप्ता

कह नहीं पाती क्योंकि
श्रृंखलित हूँ तुम्हारे शब्द-चातुर्य से
और विवश हूँ   
जो मुग्ध है सभी उसके माधुर्य से
कि तुम अपने दाप व संताप को
मृदित अभिलाषा को
हर्ष और निराशा को
प्रज्जवलित पिपासा को
विश्व-वेदना की संज्ञा देकर
आवृत कर जाते हो उनकी पहचान
और मैं गर्भित हो जाती हूँ
तुम्हारे विचार-बीज से

मैं कुँवारी हूँ क्योंकि
तुम्हारे विचार पौरुषहीन हैं
निर्धाक जग-सम्मुख होने से
या किसी इच्छित योजना से
शब्दावतंस के मोहक वीतंस में
फंसाना चाहते हो सबको
मेरे कुँवारेपन की आड़ में
इस भिज्ञता से
कि ऐसे गर्भो के चर्चे
अधरों से कर्ण-विवरों में
उत्सुकता से उतारे जाते हैं
उनके प्रणय-काल की
सरस गाथाएं सुनी जाती है
और शब्दालंकार भर भरकर
दूर देश तक सुनाई जाती है
     
मैं रूषित नहीं हूँ
तुम्हारे नेपथ्य वास से
या शंकित हूँ इस गर्भ पर
होने वाले उपहास से
जो भाग्य -शिष्टि का प्रबलत्व
मानकर रखूँगी दृढ तितिक्षा
और निभाऊंगी अपना धर्म
एक निर्भट कालांतरयायी बन
तुम्हारे विचारों के उजले-काले
रंगीन स्मृतियों की रक्षिता बन
पूर्णगर्भा सी दिखूंगी
और सबकी आँखों में अटककर
मानसपटल पर सतत
एक पारंग चितेरिन सी
आकृतियाँ उभारा करुँगी
और उसी का अनुतोष पाकर
अपना समय गुज़ारा करुँगी  .......... निहार रंजन

वो स्त्रियाँ
बहुत दूर होती हैं हमसे
जिनकी देह से
मोगरे की गंध फूटती है, 
और जिनकी चमक से
रौशन हो सकता है हमारा चन्द्रमा ।

उनके पास अपनी ही
एक अँधेरी गुफा होती है
जहाँ तक
ब्रह्मा के किसी सूर्य की पहुँच नहीं होती ।

हमारे जनपद की स्त्री
सभी प्रचलित गंधों को
खारिज़ कर देती है ।
एक दिन ऐसा भी आता है
कि एक खुशबू का ज़िक्र भी
उसके लिए
किसी सौतन से कम नहीं होता ।

हमें प्रेम करने वाली ये स्त्रियाँ
चौबीस कैरेट की नहीं होतीं
ये जल्दी टूटती नहीं
कि कुछ तांबा ज़रूर मिला होता है इनमें ।

ये हमें क्षमा कर देती हैं
तो इसका मतलब यह नहीं है
कि बहुत उदार हैं ये,
इन्हें पता है कि इनके लिए
क़तई क्षमाभाव नहीं है
दुनिया के पास ।

ज़रा सा चिन्तित
ये उस वक्त होती हैं
जब इनका रक्तस्राव बढ़ जाता है,
हालांकि
सिर्फ इन्हें ही पता होता है
कि यही है इनका अभेद्य दुर्ग ।

नटी हैं हमारी स्त्रियाँ
कभी कभार
जब ये दहक रही होती हैं अंगार सी
तब भी ओढ़ लेती हैं
बर्फ की चादर ।

न जाने किस गर्मी से
पिघलता रहता है
इनके दुखों का पहाड़,
कि इनकी आँखों से
निकलने वाली नदी में
साल भर रहता है पानी ।

इनके आँसू
हमेशा रहते हैं संदेह के घेरे में
कि ये अक्सर रोती हैं
अपना स्थगित रुदन ।

हमारी स्त्रियाँ
अक्सर अपने समय से
थोड़ा आगे
या ज़रा सा पीछे होती हैं,
बीच का समय
हमारे लिए छोड़ देती हैं ये ।
ये और बात है
कि इस छोड़े हुए वक्त में
हमें असुविधा होती है ।

हमारी स्त्रियों को
कम उमर में ही लग जाता है
पास की नज़र का चश्मा
जिसे आगे पीछे खिसका कर
वो बीनती रहती हैं कंकड़
दुनिया की चावल भरी थाली लेकर ।

यही वज़ह है कि हमारे पेट भरे होते हैं
और अपनी स्त्रियों के जागरण में
हम सो जाते हैं सुख से ।

------------------------ विमलेन्दु

मैं स्त्री हूँ   

मेरे हिस्से की धूप 


मैं एक स्त्री हूँ-
My Photoआदम की पसली से निर्मित ...
ज़रूर बायीं पसली ही रही होगी 
वही जो दिल के करीब होती है 
तभी तो -
तुम्हारी हर धड़कन सुन पायी
हर जुम्बिश को परख पायी 
और कहे बगैर 
तुम्हारी हर टीस..हर दर्द को समझ पायी.
और तुम्हारा प्यार -
लहरों सा-
किनारे पर पहुँचने को आतुर 
जिसे मैंने पूरी शिद्दत से 
रेत सा जज़्ब किया !

फिर शुरू हुआ एक और अध्याय 
मातृत्व का !
वह सुख-
जिसने सम्पूर्ण बनाया मुझे 
अपने निर्माण को जब 
बाँहों में ले निहारा-
तो सारे ब्रह्माण्ड ने आशीषा 
और तह...दर तह ..... दर तह ...
यह आशीष -
एक पुख्ता , मुकम्मल वजह बन गए 
हमारे जीने की ....
और हमें लग गए 'पर'!

उन परों के सहारे  
हमने भरी उड़ानें-
वर्त्मान  में ..
भविष्य की...
और संजोये सपने 
उनकी सफलता के !

हमारे बोये यह वृक्ष 
फले देश विदेश में 
और परवान चढ़ता गया  
हमारा स्वाभिमान  
कुछ और अध्याय जुड़ गए जीवन में -
तृप्ति ...समृद्धि और गर्व के !

हमारी इस तृप्ति ने विस्तार पाया  
जब हुआ वहन उत्तरदायित्वों  का 
कन्यादान कर ...!
उस यज्ञ की समिधा बने  
हमारे त्याग-
हमारे कर्तव्यों के बोझ- 
हमारे समझौते -
हमारी लड़ाइयां जो हमें- 
एक दूसरे के और करीब ले आयीं -
जिन्होंने...झड़ रहे पलस्तर को पुख्ता किया -
और साथ ही पुख्ता किया 
हमारे प्रेम -
हमारे विश्वास - 
हमारे रिश्तों की नींव  को !

मैं कभी अकेली नहीं थी 
अगर मैंने हर परिस्थिति में तुम्हारा साथ निभाया 
तो तुमने भी मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ा -
जब भी डगमगाई -
तुम्हे अपने पास पाया..
एक सम्बल बन !
कभी मैं तुम्हारी बैसाखी बनी 
कभी तुम दीवार बने 
मेरे और विपदाओं के बीच !
मैं सहचरिणी बनी -
तो तुम्हारे धैर्य ने भी साथ दिया !
एक दूसरे के सहारे 
एक दूसरे का कन्धा बन ...
हमने ज़िन्दगी का सफ़र तै किया !
तुम्हारा मेरे लिए सम्मान -
मेरा ग़ुरूर बना !
और क्या चाहिए !!!
और क्या चाह सकती है एक स्त्री...
आज 
बीते जीवन का जायज़ा लेती हूँ 
तो एक संतोष ..एक सुकून से भर जाती हूँ 
हाँ..
मैं खुश हूँ की मैं एक स्त्री हूँ
और तुम मेरे जीवन साथी !!!

सरस दरबारी 

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी समय इसी जगह.....शुभ विदा । 

6 comments:

  1. उत्कृष्ट लिंक चयन ...सभी रचनाएँ प्रखर ... ...

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  2. बहुत सुंदर
    धूप हिस्सों में ना बटे
    एक हो और सब सूरज
    बने अपनी अपनी जगह :)

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  3. विमलेन्दु जी और सरस जी की रचनाएँ पढ़ कर अच्छा लगा. आपके इस प्रयास के बारे में धन्यवाद कहना बहुत कम होगा.

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  4. सार गर्भित रचनाएं !
    (नवम्बर 18 से नागपुर प्रवास में था , अत: ब्लॉग पर पहुँच नहीं पाया ! कोशिश करूँगा अब अधिक से अधिक ब्लॉग पर पहुंचूं और काव्य-सुधा का पान करूँ | )
    नई पोस्ट तुम

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  5. सभी रचनाएँ एक से बढ़कर एक .....
    सभी रचनाकारों को बधाई

    जवाब देंहटाएं

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