परिकल्पना अपने मंच पर प्रेम उत्सव के रंग न बिखेरे तो सबकुछ अधूरा होता है और प्रेम कहते इतिहास की गहरी झुर्रियों से कई शख्स उभरते हैं - हीर-राँझा,लैला-मजनू,रोमियो-जूलियट …… अमृता इमरोज़ और न जाने कितनी ख्वाहिशें एक इमरोज़ की ....
इमरोज़ की कलम से लिखी इबारत कहें या इबादत जिसका मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव जी ने किया है -
तस्वीरों की दुकान के बाहर
सोहणी की तस्वीर देखी
इस सोहणी को देखते-देखते
मुझे कल की
वह सोहणी दिखाई देने लग पड़ी
जिसने पंजाब का एक दरिया
कच्चे घड़े से पार किया था
कई बार…
और आज मुझे
एक और सोहणी दिखाई दे रही है
जिसने आधी सदी से
अपनी कलम से
सारा पंजाब पार किया है-
लगातार…
इमरोज़ के साथ अमृता - तो कुछ एहसास अमृता के
एक ख़त
मैं – एक आले में पड़ी पुस्तक।
शायद संत–वचन हूँ, या भजन–माला हूँ,
या काम–सूत्र का एक कांड,
या कुछ आसन, और गुप्त रोगों के टोटके
पर लगता है मैं इन में से कुछ भी नहीं।
और लगता – कि क्रांतिकारियों की सभा हुई थीं
और सभा में जो प्रस्ताव रखा गया
मैं उसी की एक प्रतिलिपि हूँ
और फिर पुलिस का छापा
और जो पास हुआ कभी लागू न हुआ
सिर्फ़ कार्रवाई की ख़ातिर संभाल कर रखा गया।
और अब सिर्फ़ कुछ चिड़ियाँ आती हैं
चोंच में कुछ तिनके लाती हैं
और मेरे बदन पर बैठ कर
वे दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र करती हैं
(दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र कितनी हसीन फ़िक्र है!)
पर किसी भी यत्न के लिए चिड़ियों के पंख होते हैं,
पर किसी प्रस्ताव का कोई पंख नहीं होता।
(या किसी प्रस्ताव की कोई दूसरी पीढ़ी नहीं होती?)
अमृता-इमरोज़ हैं तो अंजू अनन्या है -
जब भी चाहा
तुम्हे पढ़ना ,
पढ़ पाई
दो ही वर्क ..
तीसरा पन्ना
पलटते ही ...
अक्सर , आ जाती तुम
और बतियाने लगती मुझसे ...
मैं उतर जाती
तुम्हारी बातों में इतना ...
कि , लुप्त हो जाता
फासला ....
समंदर और किनारे का
और मैं ,
बह जाती उन नीली
निश्छल जलतरंगों में .....
अब
जब चली गयी हो तुम
तब खुला है ये भेद
मुझ पर ...कि
क्यूँ नही पलट पाती थी
मैं , वो तीसरा पन्ना .....
क्यूंकि , तुम
चाहती थी
उसे खुद पढना ...
तभी तो
एक ही सांस में
उतर गई हो तुम
मेरे भीतर ....
और मैं ....
सुन रही हूँ ..
तुम्हें
तुम्हारे भीतर से ........!!
और इन सबके मध्य मेरे एहसासों की गहन सूक्ष्मता है -
इमरोज़ -अमृता -मैं-इमरोज़ .....
एक निष्पक्ष शक्ति ...ईश्वर
जो असुर की भक्ति को भी वरदान देता है
कर्म के अनुसार दिशा देता है ….
इमरोज़ में मैंने वही शक्ति देखी - निष्पक्ष
जो समान भाव लिए अपने दरवाज़े खोलता है
हर अतिथि को आत्मीयता
ईमानदार हाथों से पंछियों को पानी
और दाने
दीवारों की शून्यता को
यादों से रंगता है
रंग - जिसे उसने चुना
रंग - जिसने इमरोज़ को नहीं चुना !!!
….
30 जनवरी 2010
पहली बार मिली थी इमरोज़ से
हौज़ ख़ास की मुकम्मल ईँट लगा था वो …
फिर लम्हा-लम्हा
दिनोदिन
..... मैंने महसूस किया
कि एक इंसान के भीतर
ऐसी अद्भुत शक्ति
तभी नज़र आती है
जब वह अंगारों सी स्थिति में प्रेम की ठंडक लिए
सबकुछ सहता जाता है .!
एक ख़ास साँचे में
इमरोज़ की सम्पूर्ण काया प्राकृतिक है
जिसमें उसने प्रेम के बीज डाले
और अपनी अनदेखी रिक्तता से विमुख
सपनों का मासूम सौदागर बन गया !
.....
शक्स ही विमुख हो अपनी रिक्तता से
तो लोगों का क्या है !
वे भी आश्चर्य से अपनी आँखें फैला
पूछते हैं
- भला ऐसा होता है क्या ?!?
.....
कोई क्या जवाब देगा
कौन देगा
क्या देगा !!! …….
वे तो आदतन बस आराधना करना जानते हैं
या आलोचना
दर्शन सुख,
और प्राप्य के भूखे होते हैं
ईश्वर की चाह से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता ...
.....
आलोचना,तीक्ष्ण दृष्टि,
और निर्विकार भाव से देखना
आम लोगों की आम प्रवृति है
और इमरोज़
आम नहीं …… बिल्कुल नहीं
तभी तो
मैंने उनके जीवन के कई पन्नों को खोलने का साहस किया
उम्र से परे सहयात्री बन
जीवन के कई ख्यालों को पलटने लगी
तर्कों से उन्हें झकझोरा
लेकिन पाया
कि एक खामोश बुत ने
अपने भीतर अमृता की अस्थियाँ संजो ली हैं
उसकी साँसों को अपनी साँसों से वर्तमान बना दिया है
चंद लम्हों के कैनवस में
इमरोज़ की समाधि बना
अमृता को जीता है ....
यह मेरी शरारती जिद थी
जब मैंने उनसे कहा था - "sms करना सीख लीजिये"
सच किसी साधक की तरह उन्होंने सीख लिया
और मैं इमरोज़ को समझने लगी ....
इमरोज़ - पहले इन्द्रजीत थे
फिर इमरोज़
अब - सिर्फ अमृता
जी हाँ अमृता प्रीतम !
इमरोज़ तो एक ख्वाब है
जिसे प्रेम की हर धड़कन ने खुली आँखों देखा
मैंने भी देखा -
एक ख्वाब -
इमरोज़ का !
- उम्र से निर्विकार
- जिसे वास्तविकता की कसौटी पर
- इतिहास के पन्नों से
अमृता का लिबास उतार
मैंने इश्क की धुंध में ढूंढा ….
मुझे मिला एक तपस्वी
जिसकी रगों में कर्ण का तेज प्रवाहित हो रहा था
जिसमें दान देने की अद्भुत क्षमता थी
पर कुछ पाने की चाह
सिर्फ देने के सुख में विलीन !!!
उसकी कोरों पर ठहरे सूनेपन को मैंने इंगित किया
तो उसने मुस्कुराकर कहा - इसके सुकून को देखो"
अकेलेपन में आहटों को सुनने को कहा
यादों के हौज़ ख़ास से निकल कहा -'मैं जहाँ हूँ अमृता वहीँ है !'
चेहरों में रिश्ते तलाशता यह शक्स कहता है
"प्यार में डूबी ज़िन्दगी को और चाहिए भी क्या !'
……………………………।
पर
मेरे ख्वाबों में जो साया है इमरोज़ का
उससे मैं बातें करती हूँ
कुछ यूँ ……
'यदि मैं अमृता होती
तो तेरी पीठ पर उँगलियों से नश्तर नहीं चुभोती
इमरोज़ के सिवाय कोई नाम नहीं लिखती
तुम मुंबई से लौट आए
मैं तुम्हारी परिक्रमा करके सोचती
मैंने विश्व पा लिया
सच है -
तुम इमरोज़ से अमृता हुए
और मैं इमरोज़ हुई …।'
ये इतना ही
जवाब देंहटाएंकितना कितना है
मोती बनना है
सागर का नहीं
बस बूंद ही का
ही तो कहना है !
बहुत उम्दा चयन !
बूंद को जिसने कह लिया
हटाएंसमंदर उसे छू ही लेता है …।
आपकी पंक्तियाँ मन की बारीकियों से जुड़ी होती हैं
इस पोस्ट को बार बार पढना होगा
जवाब देंहटाएंयहाँ तो सिर्फ़ निशब्द हो जाती हूँ
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंआभार!