ग़ज़ल को मैं कहूं ग़ज़ल मुझको कहे
कुछ वो सुने कुछ मैं सुनूँ -
तेरे दिल में कुछ राहें बने ....
दिल पे रख कर हाथ , अपनी धड़कनें सुनते रहे
इस तरह जानां तेरे साथ हम चलते रहे
आज का उत्सव ग़ज़ल के नाम
हर ग़ज़ल का अपना एक नशा होता है, जिसके ख़ुमार का मज़ा ग़ज़ल कहने वाला और सुनने वाला दोनों लेते हैं... ग़ालिब, मीर, दाग़, फैज़, फ़राज़, फ़िराक, इकबाल, बशीर, कैफ़ी, जिगर... सभी ने अपने पढ़ने और सुनने वालो को बे-इन्तेहा अजीज़ सुखन दिए हैं... शायर रहे न रहे उसकी ग़ज़ल किसी न किसी बज़्म को ता-वक़्त रोशन करती रहती है...
शायद हर नाबालिग़ शाइर ग़ज़ल से ही आगाज़ करता है... कुछ सात बरस पहले कॉलेज के एक बोरिंग लेक्चर में शुरुआत हुई थी... तब मजमून अक्सर किसी की आँखें, कभी अदाएं, कभी जुल्फें, तो कभी लब हुआ करते थे... दोस्तों की दाद में अपनी शायरी भी उस दौर में खूब परवान चढ़ी... मोहब्बत भी हुई... दिल भी टूटा... फिर जुड़ा और फिर टूटा... उम्र बढ़ी और साथ में तजुर्बे भी...
मजमून भी अब आसमां की गहराई से निकल के आने लगे... शज़र पे लगे फ़ल रफ्ता रफ्ता पकने लगे... हसीनो को जुल्फों से लेकर मिट्टी की सोंधी महक तक, ग़ज़ल का ये सफ़र अपनी रफ़्तार में चलता रहा... तासीर भी बदली और तामीर भी... मानी भी बदले और हरक़तें भी... तुम आये, अभी तक हो... पहले लम्स में थे अब सिर्फ अक्स में...
कहते हैं, शाइर की उम्र उसके तसव्वुर का मोहताज होती है... मेरे तसव्वुर और हकीक़त, सब तुम ही रहे... तब से लिख रहा हूँ, अभी ज़मीं बाकी है, आसमां बाकी है, तुम कहीं भी रहो... अभी बयाँ बाकी है...
बुझती शम्मों में अभी तक ये धुआँ बाक़ी है,
मेरी गैरत को उछालो और भी फुरसत से,
लोग कहते हैं अभी मुझमें गुमाँ बाक़ी है...
चंद लम्हों को तड़पता है फ़साना मेरा,
शब् के पहलू में ज़रा सी ही जाँ बाक़ी है...
आसमां आज एहतमाम करे कह दो ये,
इस नशेमन के परिंदों की उड़ाँ बाक़ी है...
वो जो होता था कभी एहले-वफ़ा, एहले-दिल,
आज 'शाइर' वो तलबगार कहाँ बाक़ी है...
(केतन)
कहीं पे जलवे दिखा रही है कहीं जुनूँ आज़मा रही है
अगर तू बस दास्तान में है अगर नहीं कोई रूप तेरा
तो फिर फ़लक से ज़मीं तलक ये धनक हमें क्या दिखा रही है
सभी दिलो-जाँ से जिस को चाहें उसे भला आरज़ू है किस की
ये किस से मिलने की जुस्तजू में हवा बगूले बना रही है
तमाम दुनिया तमाम रिश्ते हमाम की दास्तान जैसे
हयात की तिश्नगी तो देखो नदी किनारों को खा रही है
चलो कि इतनी तो है ग़नीमत कि सब ने इस बात को तो माना
कोई कला तो है इस ख़ला में जो हर बला से बचा रही है
:- नवीन सी. चतुर्वेदी
सुलगते ख़्वाब में हर बार जो उंगली उठाता है।
तपिश इतनी तो है, जिससे न मुट्ठी तान पाता है।।
ये दुनिया है तो दो राहें रहेंगी हर घड़ी क़ायम-
थका हर आदमी मंज़िल कहां तक ढूंढ पाता है।।
ज़रा तफ़सील से आबो-हवा का रुख़ समझना है-
जो बैठी डाल पर अफसोस कुल्हाड़ी चलाता है।।
ज़हीनों की भरी महफ़िल में रहना है शगल जिसका-
वो खुशफ़हमी में अदबी ज़ेहन की खिल्ली उड़ाता है।।
अगरचे आइने से रू-ब-रू हो गौर फरमाये-
यकीनन ख़ुद ही अपनी आंख से नज़रें चुराता है।।
ये पानी ज़िंदगी है, मौत है, औ' है वैसा जगह जैसी-
वही चुल्लू भरा पानी, ज़रुरी काम आता है।।
सभी के पांव के छालों के गिनता अक्स जो तन्हा-
किसी हारे जुआरी-सा, ख़ुदी को बरगलाता है।।
कभी तो मुड़के देखेगा, खुली खि़ड़की बड़ी दुनिया-
अंधेरों में जो तीखे लफ़्ज का खंज़र चलाता है।।
मिला ख़त मुद्दतों के बाद, मेरे दोस्त का लिक्खा-
ग़जब फनकार, अन्दर झांकने से कांप जाता है।।
आप के ब्लाग के बारीक अक्षरों के कारण उसे पढ़ा कष्टकर है । छोटे अक्षर बड़े नहीं हो पाते ।
जवाब देंहटाएंवाह ! कुछ अलग !
जवाब देंहटाएंप्रभावोत्पादक प्रस्तुतियाँ।
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